اتوار، 21 اگست، 2016

फ़ज़ाइले मदीना और मस्जिदे नबवी की ज़ियारत के आदाब व अहकाम

फ़ज़ाइले मदीना और मस्जिदे नबवी की ज़ियारत के आदाब व अहकाम
तहरीर: मक़बूल अहमद सलफ़ी
दफ़्तर तआवुनी बराए दावत व इरशाद शुमाल अत-ताइफ़ (मिस्रह)
मदीना रूए ज़मीन की मुक़द्दस सरज़मीन है, इसके मुख़्तलिफ़ अस्मा हैं मसलन ताबह, तय्यबा, दार, ईमान, दार हिजरह वग़ैरा। आम तौर से इस शहर को मदीना मुनव्वरा के नाम से जाना जाता है मगर इसका इस्तिमाल सलफ़ के यहां नहीं मिलता। जब हम मदीना मुनव्वरा कहते हैं तो इससे तमाम इस्लामी मुल्क मुराद लिया जाएगा क्योंकि इस्लाम ने सारी जगहों को रौशन कर दिया, इसलिए एक ख़ास वस्फ़ नब्विय्यह से मदीना को मुत्तसिफ़ करना बेहतर है। इसका पुराना नाम यसरब है, अब यह नाम लेना भी मना है।
अहादीस़े रसूल की रौशनी में मदीना नब्विय्यह के बे शुमार फ़ज़ाइल हैं चंद फ़ज़ाइल पेशे ख़िदमत हैं।
٭ मदीना ख़ैर व बरकत की जगह है:
والمدينةُ خيرٌ لهم لو كانوا يعلمون
तर्जुमा: और मदीना इनके लिए बाइस ख़ैर व बरकत है अगर इल्म रखते। (सहीह अल-बुख़ारी: 1875)
٭ यह हरम पाक है:
إنها حرَمٌ آمِنٌ
तर्जुमा: बेशक मदीना अमन वाला हरम है। (सहीह मुस्लिम: 1375)
٭ फ़रिशतों के ज़रिए ताऊन और दज्जाल से मदीने की हिफ़ाज़त:
على أنقابِ المدينةِ ملائكةٌ ، لا يدخُلُها الطاعونُ ، ولا الدجالُ
तर्जुमा: मदीना के रास्तों पर फ़रिश्ते मुक़र्रर हैं इसमें ना तो ताऊन और ना ही दज्जाल दाख़िल हो सकता है। (सहीह अल-बुख़ारी: 7133)
٭ मदीने में ईमान सिमट जाएगा:
إن الإيمانَ ليأْرِزُ إلى المدينةِ ، كما تأْرِزُ الحيةُ إلى جُحرِها
तर्जुमा: मदीना में ईमान इसी तरह सिमट आएगा जैसे सांप अपने बल में सिमट जाता है। (सहीह अल-बुख़ारी: 1876)
٭ मदीना से मुहब्बत करना है:
اللهمَّ حَبِبْ إلينَا المدينةَ كحُبِّنَا مكةَ أو أَشَدَّ
तर्जुमा: ऐ अल्लाह!मदीने को हमें मक्का की तरह बल्कि इससे भी ज़्यादा महबूब बना दे। (सहीह अल-बुख़ारी: 1889)
٭ मदीना में मरने वाले के लिए शिफ़ाअत नबवी:
منِ استطاع أن يموتَ بالمدينةِ فلْيفعلْ فإني أشفعُ لمن ماتَ بها
तर्जुमा: जो शख़्स मदीना शरीफ़ में रहे और मदीने ही में इसको मौत आए में इसकी सिफ़ारिश करूंगा। (अस-सिल्सिलतुस् सहीहतु: 6/ 103 4)
क़ाबिल सद्र शक हैं वह लोग जो मदीने में हैं या इसकी ज़ियारत पे अल्लाह की तरफ़ से बुलाए गए। इस मुबारक सरज़मीन पे मस्जिदे नबवी ﷺ है जिसे आप ﷺ ने अपने दस्त मुबारक से तामीर किया। अल्लाह के रसूल ﷺ ने इस मस्जिद की ज़ियारत का हुक्म फ़रमाया है:
لا تُشَدُّ الرحالُ إلا إلى ثلاثةِ مساجدَ : مسجدِ الحرامِ، ومسجدِ الأقصَى، ومسجدي هذا
तर्जुमा: मस्जिदे हराम, मस्जिदे नबवी और बैतुल मक़्दिस के अलावा (हुसूल सवाब की निय्यत से) किसी दूसरी जगह का सफ़र मत करो। (सहीह अल-बुख़ारी: 1995)
गोया सवाब की निय्यत से दुनिया की सिर्फ़ तीन मसाजिद की ज़ियारत करना जाएज़ है बाक़ी मसाजिद और मक़बरों की ज़ियारत करना जाएज़ नहीं।
अलबत्ता जो लोग मदीने में मुक़ीम हों या कहीं से ब-हैसियत ज़ाइर आए हों तो इनके लिए मस्जिदे नबवी की ज़ियारत के अलावा मस्जिद क़ुबा, बक़ीउल् ग़रक़द और शोहदा उहुद की ज़ियारत मशरूअ् है।
मस्जिदे नबवी:
मस्जिदे नबवी की बड़ी अहमियत व फ़ज़ीलत है हरम मक्की के अलावा मस्जिदे नबवी में एक वक़्त की नमाज़ दुनिया की दीगर मक़ामात में छे महीने बीस दिन से बरतर है। नबी ﷺ का फ़रमान है:
صلاةٌ في مسجدي هذا خيرٌ من ألفِ صلاةٍ فيما سواهُ، إلا المسجدَ الحرامَ
तर्जुमा: मेरी इस मस्जिद में एक नमाज़ का सवाब एक हज़ार नमाज़ के बराबर है सिवाए मस्जिदे हराम के। (सहीह अल-बुख़ारी: 1190)
इसे हरम मदनी भी कहते हैं। इसमें एक जगह ऐसी है जो जन्नत के बाग़ों में से है। नबी ﷺ का फ़रमान है:
ما بين منبري وبيتي روضةٌ من رياضِ الجنةِ
तर्जुमा: मेरे मिम्बर और मेरे घर के दरमियान जन्नत के बाग़ों में से एक बाग़ है। (सहीह मुस्लिम: 1390)
मस्जिदे नबवी की ज़ियारत के आदाब:
(1) मस्जिद नबवी में दाख़िल होते वक़्त दायां पैर आगे करें और यह दुआ पढ़ें:
أَعوذُ باللهِ العَظيـم وَبِوَجْهِـهِ الكَرِيـم وَسُلْطـانِه القَديـم مِنَ الشّيْـطانِ الرَّجـيم، بِسْمِ اللَّهِ، وَالصَّلاةُ وَالسَّلامُ عَلَى رَسُولِ الله، اللّهُـمَّ افْتَـحْ لي أَبْوابَ رَحْمَتـِك.
(2) दो रक्अत नमाज़ तहिय्यतुल् मस्जिद की निय्यत से पढ़ें, अगर यह नमाज़ रियाज़ुल् जन्नह में अदा करें तो ज़्यादा बेहतर है और ख़ूब दुआ करें।
(3) इसके बाद रसूले अकरम ﷺ पर निहायत अदब व इहतराम से दरूद व सलाम अर्ज़ करें, सलाम के लिए यह अल्फ़ाज़ कहना मस्नून हैं:
(السلام عليك أيها النبي ورحمة الله وبركاته , صلى الله عليك وجزاك عن أمتك خيرالجزاء)
फ़िर हज़रत अबू बक्र रज़ी अल्लाह अन्हु पर

और हज़रत उमर रज़ियल्लाहू अन्हु पर
السلام علیک یاابابکر! ورحمۃ اللہ وبرکاتہ ،رضی اللہ عنک وجزاک عن امۃ محمد خیراً
के ज़रिए सलाम कहीं।
(4) औरतों के लिए ब-कसरत क़ब्रों की ज़ियारत जाएज़ नहीं क्योंकि रसूलुल्लाह ﷺ ने ब-कसरत क़ब्रों की ज़ियारत करने वाली औरतों पर लानत फ़रमाई है लेकिन कभी कभार ज़ियारत कर सक्ती हैं।
(5) ज़ाइरीन के लिए ज़्यादा से ज़्यादा मस्जिदे नबवी में ठहरना, कसरत से दुआ व इस्तिग़्फ़ार, ज़िक्र व अज़्कार, तिलावते क़ुरआन और दीगर नफ़्ली इबादात व आमाले सॉलिहा करना चाहिए।
( 6)मस्जिद से निकलने वक़्त यह दुआ पढ़ें:
بسْـمِ اللَّـهِ وَالصَّلاةُ وَالسَّلامُ عَلَى رَسُولِ اللَّهِ، اللَّهُمَّ إنِّي أَسْأَلُكَ مِنْ فَضْلِكَ، اللَّهُمَّ اعْصِمْنِي مِنَ الشَّيْطَانِ الرَّجِيم.
मस्जिद नबवी की ज़ियारत करने वालों के लिए तम्बीहात
1/ हुजरह नबवी की खिड़कियों और मस्जिद के दीवारों को बरकत की निय्यत से छूना याब व सह लेना या तवाफ़ करना जाएज़ नहीं है बल्कि यह सब बिदअत वाले आमाल हैं।
2/ नबी ﷺ से अपनी मुश्किल का सवाल करना याबी मारी की शिफ़ा का सवाल करना या इसी तरह की दीगर चीज़ों का सवाल करना जाएज़ नहीं है, यह सब चीज़ इ न सिर्फ़ अल्लाह तआला से मांगी जाएंगी, गुज़रे हुए लोगों से मांगना अल्लाह के साथ शिर्क और ग़ैरुल्लाह की इबादत करना है।
3/ बअ्ज़ लोग नबी की क़ब्र की तरफ़ खड़े होकर और हाथ उठा कर मुस्तक़िल दुआ करते हैं यह भी ख़िलाफ़े सुन्नत है, मस्नून यह है कि वह क़िबला रुख़ होकर अल्लाह तआला से मांगे।
4/ इसी तरह आपकी क़ब्र के पास आवाज़ बुलन्द करना, देर तक ठहरे रहना, मख़्सूस दुआ पढ़ना या हज़ार व लाख मरतबा दरूद पढ़ कर हदिया करना ख़िलाफ़े सुन्नत है।
5/ बअ्ज़ लोग आप पर दरूद व सलाम भेजते वक़्त सीने पर या नीचे नमाज़ की तरह हाथ बांध लेते हैं जो कि ख़ुशूअ् व ख़ुज़ूअ् और इबादत की हैअत है और यह सिर्फ़ अल्लाह के लिए बजा है।
6/ मौजूदा मिम्बर नबी ﷺ के दौर का नहीं है, गिर होता भी तो इससे बरकत लेना या रियाज़ुल् जन्नह के सुतूनों से बरकत लेना और बतौरे ख़ास इनके पास नमाज़ का क़स्द करना जाएज़ नहीं है।
7/नबी ﷺ के मुताल्लिक़ दुनिया की तरह सलाम की आवाज़ सुनने या सलाम के वक़्त रूह लौटाए जाने का अक़ीदा रखना ग़लत है।
बक़ीउल् ग़रक़द: जन्नतुल् बक़ीअ् नाम सहीह नहीं है, हदीस में इसका नाम बक़ीउल् ग़रक़द आया है। यह अहले मदीना का क़ब्रिस्तान है इसमें तक़रीबन दस हज़ार अन्सार व मुहाजिरीन और अज़वाजे मुतह्हरात मद्फ़ून हैं मगर मरूर ज़माना और ख़ास कर बग़ल से बहने वाला महज़ूर नामी नाला की वजह से मादूदे चंद के किसी की क़ब्र की पहचानी नहीं जाती। बअ्ज़ किताबों में बहुत सी क़ब्रों की शनाख़्त की गई है, यह सब अंदाज़े पे मुनहसिर हैं। क़ब्रें तो मिटनी ही हैं क्योंकि इस्लाम ने क़ब्रों को ऊंचा करने, इस पे चराग़ां करने, इमारत बनाने और पुख़्ता करने से मना किया है ताकि इसे सज्दह गाह ना बना लेता जाए।
बक़ीउल् ग़रक़द की ज़ियारत के वक़्त शरई आदाब मल्हूज़ रखना निहायत ज़रूरी है। उम्मुल मुमिनीन हज़रत आइशा रज़ियल्लाहू अन्हा बयान करती हैं कि रसूलुल्लाह ﷺ जब मेरे यहां रात बसर करते तो रात के आख़िरी पहर बक़ीअ् जाते और यह दुआ पढ़ते:
السلام عليكم دارَ قومٍ مؤمنين . وأتاكم ما تُوعدون غدًا . مُؤجَّلون . وإنا ، إن شاء الله ، بكم لاحقون . اللهمَّ ! اغفِرْ لأهلِ بقيعِ الغَرْقدِ
हम भी यह दुआ पढ़ें, इसके अलावा भी मय्यत की मग़्फ़िरत और बुलंदी दरजात की दुआ कर सक्ते हैं। मगर ध्यान रहे कि अहल क़ब्र के वसीले से दुआ करना, क़ब्रों के पास ताज़ीमन हाथ बांध कर खड़ा होना, इसे सज्दह या तवाफ़ करना, वहां नौहा करना, क़ब्र वाले के लिए या क़ब्र की तरफ़ तवज्जह करके नमाज़ पढ़ना, बतौर तबर्रुक क़ब्र की मिट्टी उठाना या क़ब्रों और दीवार क़ब्रिस्तान को चूमना चाटना और अहले क़ुबूर के ईसाले सवाब के वास्ते दरूद, सूरह फ़ातिहा, चारों क़ुल, सूरह या-सीन और सूरह बक़रा की आख़िरी आयात पढ़ना, यह सारे उमूर नाजाइज़ हैं, इसलिए हमें इन कामों से हर हाल में बचना है।
मस्जिदे क़ुबा: नबी ﷺ मक्का से मदीना हिजरत के वक़्त इस मस्जिद को बनाया था। इसकी भी बड़ी फ़ज़ीलत वारिद है। चंद अहादीस़ देखें।
عَنِ ابْنِ عُمَرَ رَضِيَ اللهُ عَنْهُمَا قَالَ: كَانَ رَسُولُ الله صلى الله عليه وسلم يَأْتِي مَسْجِدَ قُبَاءٍ، رَاكِباً وَمَاشِياً، فَيُصَلِّي فِيهِ رَكْعَتَيْنِ
तर्जुमा: हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहू अन्हुमा से रिवायत है कि नबी ﷺ पैदल या सवार होकर क़ुबा तशरीफ़ लाते और दो रक्अत (नमाज़ नफ़्ल) अदा करते। (सहीह मुस्लिम: 1399)
وَعَنْ سَهْل بن حُنَيْفٍ رَضِيَ اللهُ عَنْهُ قَالَ: قَالَ رَسُولُ الله صلى الله عليه وسلم: «مَنْ تَطَهَّرَ فِي بَيْتِهِ ثمَّ أَتَى مَسْجِدَ قُبَاءَ فَصَلَّى فِيهِ صَلاَةً كَانَ لَهُ كَأَجْرِ عُمْرَةٍ
तर्जुमा: हज़रत सहल बन हनीफ़ रज़ियल्लाहू अन्हु से रिवायत है इन्होंने कहा कि नबी ﷺ ने इरशाद फ़रमाया: जिस शख़्स ने अपने घर में वुज़ू किया और फ़िर मस्जिद क़ुबा में आकर नमाज़ अदा की तो इसे एक उमरा का सवाब मिलेगा। (सहीह इब्न माजा: 1168)
इन अहादीस़ की रौशनी में पता चलता है कि हमें हफ़्ते के दिन हो या जिस फ़ुर्सत मिले घर से वुज़ू करके आएं और मस्जिदे क़ुबा में नमाज़ अदा करें ताकि उमरा के बराबर सवाब पा सकें। नमाज़ के अलावा इस मस्जिद में दीगर किसी मख़्सूस इबादत का ज़िक्र नहीं मिलता। और यह भी याद रहे कि अहले मदीना या ज़ाइरीन मदीना के अलावा किसी दुसरे मक़ाम से सिर्फ़ मस्जिदे क़ुबा की ज़ियारत पे आना मशरूअ् नहीं है।
शोहदा उहुद: मदीना में उहुद नाम का एक पहाड़ है इसके दामन में हिजरत के तीसरे साल मुसलमानों और क़ुरैश के दरमियान लड़ाई हुई जो गज़वा उहुद के नाम से मश्हूर है। इस गज़वा में सत्तर सहाबा किराम (64 अन्सारी, 6 मुहाजिर) शहीद हुए। इन्हें इसी पहाड़ी दामन में दफ़न किया गया। शुहदाए उहुद में सय्यद अश-शुहदा हम्ज़ह बिन अब्दुल् मुत्तलिब, मुसअब बिन उमैर, अब्दुल्लाह बिन हबश, जाबिर बिन अब्दुल्लाह बिन अम्र बिन हराम, अम्र बिन जमूह, सअ्द बिन रबीअ्, ख़ारिजह बिन ज़ैद, नुअ्मान बिन मालिक और अब्दह बिन हसहास रज़ियल्लाहू अन्हुम क़ाबिले ज़िक्र हैं।
इमाम तबरी रहिमहुल्लाह लिखते हैं कि मैदान उहुद में क़िबले की तरफ़ शुहदाए उहुद की क़ब्रें हैं, इनमें से कोई क़ब्र मालूम नहीं सिवाए हम्ज़ह रज़ियल्लाहू अन्हु के।
शुहदाए उहुद की ज़ियारत इसी तरह करें जैसे बक़ीउल् ग़रक़द के तहत लिखा है। जिन बातों से मना किया गया है यहां भी इन बातों से गुरेज़ करें और यह बात ज़हन में बिठाएं कि जबल उहुद पे चढ़ना कोई इबादत नहीं है ना ही वहां के दरख़्तों, पत्थरों और ग़ारों में कपड़े और धागे बांधें ख़्वाह किसी निय्यत से हो।
ज़ाइरीन के लिए तीन अहम नसीहतें
(1) मज़कूरा बाला मक़ामात मुक़द्दसा यानी मस्जिदे नबवी, नबी ﷺ की क़ब्र मुबारक, हज़रत उमर व अबू बक्र रज़ी अल्लाह अन्हुमा की क़ब्रों, रियाज़ुल् जन्नह, मस्जिद क़ुबा, बक़ीअ् क़ब्रिस्तान और क़ब्रिस्तान शोहदा उहुद के अलावा मदीना के दीगर मक़ामात की सवाब की निय्यत से ज़ियारत करना शरअन जाएज़ नहीं है ख़्वाह मसाजिद हों मसलन मसाजिद सब्अ ह, मस्जिद जबल उहुद, मस्जिद क़िब्लतैन, मस्जिद जुमा या मसाजिद ईदगाह वग़ैरा ख़्वाह कोई तारीख़ी मक़ाम मसलन मैदान बदर या बिअर रौहा जिसे बिदअतियों ने बिअर शिफ़ा नाम दे रखा है। इसलिए अपना वक़्त और रुपया पैसा फ़ुज़ूल ख़र्च करने से बेहतर है किसी मिस्कीन को सदक़ा कर दें।
(2) आप को अल्लाह तआला ने शहर नबी ﷺ की ज़ियारत का मौक़ा अता किया। इस पे अल्लाह का शुक्र बजा लाएं साथ ही नबी ﷺ से सारी काइनात से ज़्यादा हत्ता कि अपनी जान से भी ज़्यादा मुहब्बत करने का अज़्म मुसम्मम करें। आप ﷺ से मुहब्बत ईमान का हिस्सा है। मुहब्बत की अलामात में से है कि आप ﷺ की सुन्नत का इल्म हासिल किया जाए, इस पे अमल किया जाए और दूसरों तक इसको पहुंचाया जाए। इस मज़मून के ज़रिए ज़ियारत के जो आदाब मालूम हुए इस पे अमल करना और इसे फैलाना भी हुब्ब नबी ﷺ में दाख़िल है।
(3) अल्लाह के यहां किसी भी अमल की क़ुबूलियत के लिए तीन शर्तें हैं, हमेशा इन्हें ज़हन में रखें।
पहली शर्त निय्यत का ख़ालिस होना: नबी ﷺ का फ़रमान है: बेशक आमाल का दारू मदार निय्यत पर है। (बुख़ारी)
दूसरी शर्त अक़ीदा तौहीद का होना: यानी अमल करने वाले का अगर अक़ीदा दुरुस्त नहीं तो नेक अमल भी क़ुबूल नहीं होता। अल्लाह तआला का फ़रमान है:
وَلَوْ أَشْرَكُوا لَحَبِطَ عَنْهُم مَّا كَانُوا يَعْمَلُونَ
तर्जुमा: और अगर बिल-फ़र्ज़{अम्बिया अलैहिमुस् सलाम}भी शिर्क करते तो इनके भी किए हुए तमाम आमाल ज़ाए कर दिए जाते। (सूरह अल-अनआम 88)
तीसरी शर्त अमल का सुन्नत के मुताबिक़ होना: क्योंकि जो अमल नबी ﷺ के सुन्नत के मुताबिक़ ना हो वह भी बर्बाद कर दिया जाता है। नबी ﷺ ने फ़रमाया:
مَنْ عَمِلَ عَمَلا لَیْسَ عَلَیْہَ اَمْرُنَا فَہُورَدٌّ

तर्जुमा: वह अमल जिस पर मेरा हुक्म नहीं, मरदूद है। (बुख़ारी)

ہفتہ، 21 مئی، 2016

ग़रीबी से मुताल्लिक़ अव्वाम में फैली 40 ग़लत फ़हमियां

ग़रीबी से मुताल्लिक़ अव्वाम में फैली 40 ग़लत फ़हमियां

मक़बूल अहमद सलफ़ी

सोशल मीडिया पे कई महीनों से एक पोस्ट गर्दिश कर रही है जिसमें बतलाया गया है कि 40 बातों से घर में ग़ुरबत आती है। आइए इन बातों की तरफ़ चलते हैं।
(1) ग़ुस्ल ख़ाने में पेशाब करना:
हम्माम में पेशाब करने से नबी  ने मना फ़रमाया है मगर इस वक़्त के हम्माम मिट्टी के होते थे मगर आजकल का हम्माम पक्का होता है, इसलिए इसमें पेशाब करना जाएज़ है। और यह नबी  के फ़रमान में नहीं है कि हम्माम में पेशाब करने से ग़ुरबत आती है, हज़रत अली रज़ियल्लाहू अन्हु की तरफ़ यह क़ौल मंसूब किया जाता है मगर यह झूठ है
(2) टूटी हुई कंघी से कंगा करना:
आप  का हुक्म है:""जिसके बाल हों वह इनकी इज़्ज़त करे। "" (अबू दावूद, किताबुत् तरज्जुल)
इस हदीस से पता चला कि बालों की ज़ीनत के लिए कंघी करनी चाहिए चाहे कंघी टूटी हो या सालिम, अगर काम लायक़ है तो कंघी करें कोई हर्ज नहीं है और ना ही इसके करने से ग़रीबी आती है
(3) टूटा हुवा सामान इस्तिमाल करना:
टूटा हुवा सामान काम के लायक़ हो तो इसका इस्तिमाल जाएज़ है
हज़रत उम्मे सलमा रज़ियल्लाहू अन्हा से रिवायत है कि वह रसूलुल्लाह  और सहाबा रज़ियल्लाहू अन्हुम के लिए एक चौड़े बरतन में खाना लाएं। (इतने में) हज़रत आइशा रज़ियल्लाहू अन्हा गईं। इन्होंने एक चादर ओढ़ रखी थी और इनके पास एक पत्थर था। इन्होंने पत्थर मार कर बरतन तोड़ दिया। नबी अकरम  ने बरतन को दोनों टुकड़ों को मिला कर रखा और दोबार फ़रमाया:" खाओ, तुम्हारी माँ को ग़ैरत गई थी" इसके बाद रसूलुल्लाह  ने हज़रत आइशा रज़ियल्लाहू अन्हा का बरतन लेकर हज़रत उम्मे सलमा रज़ियल्लाहू अन्हा के हाँ भेज दिया और हज़रत उम्मे सलमा रज़ियल्लाहू अन्हा का (टूटा हुवा) बरतन हज़रत आइशा रज़ियल्लाहू अन्हा को दे दिया। सुनन अन-नसाई:39 66 )
٭ अल्लामह अल्बानी ने हदीस को सहीह कहा है। (सहीह सुनन अन-नसाई:36 9 3)
(4) घर में कोड़ा करकट रखना:
घर का कोड़ा करकट घर के किसी कोने में जमा करने में कोई हर्ज नहीं है, जब ज़्यादा हो जाए तो फेंक दे। इसमें एक अहतियात यह होना चाहिए कि खाने पीने की बची हुई ज़ाइद चीज़ें ज़ाए ना करे बल्कि किसी को देदे। घर में कूड़ा रखने से ग़रीबी आती है यह भी हज़रत अली रज़ियल्लाहू अन्हु की तरफ़ मंसूब झूठी बात है
(5) रिश्तेदारों से बद-सुलूकी करना:
ऐसा कोई ख़ास फ़रमाने नबवी नहीं है कि रिश्तेदारों से बद-सुलूकी ग़ुरबत का सबब है, लेकिन बहुत सारे ऐसे नुसूस हैं जिन से पता चलता है कि मासियत और गुनाह के काम से रिज़्क़ में तंगी होती है
( 6 ) बाएं पैर से पाजामह पहनना:
मुम्किन इससे मुराद हो पाजामह पहनने में बाएं जानिब से शुरू करना। नबी  शर्फ़ वाला काम दाएं से पसन्द फ़रमाते थे, इस बिना पर दाएं जानिब से पाजामह पहनना बेहतर है मगर किसी ने बाएं से पहन लिया तो कोई मासियत नहीं है और ना ही यह ग़रीबी फ़ाक़ा का सबब बनेगा।
( 7 ) मग़रिब इशा के दरमियान सोना:
मग़रिब और इशा के दरमियान सोना मकरूह है, इसका सबब इशा की नमाज़ फ़ौत हो जाना है इस लिए नबी  इशा से पहले सोना और इशा के बाद बात करना नापसन्द फ़रमाते थे। अगर कोई आदतन नहीं ज़रूरतन कभी सो जाए तो वह इशा की नमाज़ आधी रात से पहले कभी भी पढ़ ले
( 8 ) महमान आने पर नाराज़ होना:
इस्लाम ने महमान की ख़ातिरदारी पे उभारा है, लिहाज़ा किसी महमान की आमद पे नाराज़गी का इज़हार ना करे। महमान नवाज़ी बाहर से आने वाले मुसाफ़िर के वास्ते वाजिब है और जो मुक़ीम हो इसकी ज़ियाफ़त अहसान सुलूक के दर्जे में है। जिसने ज़ियाफ़त में अहसान को छोड़ा इस पे गुनाह नहीं मगर वाजिबी ज़ियाफ़त के तर्क पे मासियत आएगी।
( 9 ) आमदनी से ज़्यादा ख़र्च करना:
इसे बे वक़ूफ़ी, हिमाक़त, नासमझी और फ़ाश ग़लती कह सकते हैं।
( 10 ) दांत से रोटी काट कर खाना:
दांत से रोटी काट कर खाने से ग़रीबी नहीं आती, अगर ऐसा होता तो दुनिया में कोई मालदार ही नहीं होता क्योंकि दांतों से काट कर ही लोग बड़े होते हैं। रोटी तो हाथ से भी तोड़ी जा सक्ती है मगर ऐसी भी बहुत चीज़ें हैं जिन्हें अक्सर दांत से ही काट कर खाया जाता है। आज अंग्रेज़ी स्टाइल आया है और देहातों में तो नहीं शहरों में खाने के साथ चाक़ू रख देते हैं जबकि आज से पहले यह स्टाइल नहीं चलता था।
( 11 ) चालीस दिन से ज़्यादा ज़ेरे नाफ़ के बाल रखना:
चालीस दिन के अन्दर ज़ेरे नाफ़ मूंड लेना चाहिए क्योंकि रसूलुल्लाह  ने यही हद मुक़र्रर की है जो इससे ज़्यादा ताख़ीर करते हैं वह सुन्नत की मुख़ालिफ़त करते हैं
( 12 ) दांत से नाख़ुन काटना:
इस्लाम में कहीं दांतों से नाख़ुन काटने की मुमानिअत वारिद नहीं है, लेकिन चूंकि इस्लाम हिफ़्ज़ान सेहत पे ध्यान दिलाता है। इसलिए अगर दांत से नाख़ुन काटने में कोई तिब्बी नुक़्सान का पहलू निकलता हो तो इससे परहेज़ किया जाए और अगर इसमें नुक़्सान नहीं तो भी दांत से नाख़ुन काटना सहीह नहीं लगता क्योंकि नाख़ुन में गन्दगी होती है और गन्दी चीज़ को मूँह से पकड़ना और दांतों से काटना सहीह नहीं है,ख़ुसूसन लोगों के सामने
( 13 ) खड़े खड़े पैजामा पहनना:
पाजामह खड़े और पड़े दोनों पहन सकते हैं, आप को जो सहूलत हो वह इख़्तियार करें। और किसी पे कोई गुनाह कोई ग़रीबी नहीं शरीअत की जानिब से
( 14 ) औरतों का खड़े खड़े बाल बांधना:
यह कोई मस्अला नहीं है। इसमें एक ही बात अहम है कि औरत अजनबी मर्द के सामने बाल ना बांधे। बाक़ी वह खड़े होकर, बैठ कर और सो कर किसी भी तरह बाल बांध सक्ती है
( 15 ) फटे हुए कपड़े जिस्म पर सीना:
फटे हुए कपड़े जिस्म पे होते हुए रफ़ू करना आसान हो तो इसमें कोई हर्ज नहीं और उतारने की ज़रूरत पड़े तो बहरसूरत इसे उतारना ही होगा।
( 16 ) सुबह सूरज निकलने तक सोना:
इन्सान को चाहिए कि वह सुबह सवेरे बेदार हो, फ़ज्र की नमाज़ पढ़े और फिर रोज़ी की तलाश में निकले। नबी  का फ़रमान है:
مَن صَلَّى الصُّبحَ فَهُوَ فِي ذِمَّةِ اللَّهِ (مسلم : 657)
 (मुस्लिम:657 )
तर्जुमा:जिसने फ़ज्र की नमाज़ पढ़ी वह अल्लाह के अमान में आगया।
जो बन्दा नमाज़ छोड़ कर रोज़ाना ताख़ीर से उठे इसकी क़िस्मत में बर्बादी ही बर्बादी है क्योंकि इसने अपने रब से अमान उठा लिया, इसके साथ कभी भी और कुछ भी हो सक्ता है
( 17 ) दरख़्त के नीचे पेशाब करना:
किसी भी चीज़ के साया में ख़्वाह दरख़्त का हो या किसी और का इसके नीचे पेशाब पाख़ाने से मना किया गया है। नबी  का फ़रमान है:
 اتقوا اللاّعِنَيْن، الذي يتخلى في طريق الناس أو في ظلهم. (مسلم)
 (मुस्लिम)
तर्जुमा:लानत का सबब बनने वाली दो बातों से बचो, एक यह कि आदमी लोगों के रास्ते में क़ज़ाए हाजत करे, दुसरे यह कि इनके साए की जगह में ऐसा करे।
तबरानी ने मुअ्जम अल-औसत में फलदार दरख़्त के नीचे क़ज़ाए हाजत की मुमानिअत वाली रिवायत ज़िक्र की है, यह रिवायत ज़ईफ़ है। फलदार दरख़्त साया वाली मज़कूरा बाला हदीस के ज़िम्न में है क्योंकि आम तौर से हर दरख़्त का साया होता है। लेकिन जो दरख़्त आम हो और वैसे ही बिला-ज़रूरत आबादी से दूर सुन्सान जगह पे पड़ा हो तो इसके नीचे क़ज़ाए हाजत में कोई हर्ज नहीं।
( 18 ) बैतुल ख़ला में बातें करना:
क़ज़ाए हाजत के वक़्त बात करना मना है। नबी  का फ़रमान है:
يخرجُ الرجلانِ يضربانِ الغائطَ كاشفَينِ عن عوراتِهما يتحدَّثانِ ، فإنَّ اللهَ يمقُتُ على ذلك(صحیح الترغیب للالبانی: 155)
(सहीह अत-तरग़ीब लिल-अल्बानी:155)
तर्जुमा:" दो आदमी क़ज़ा हाजत करते हुए आपस में बातें ना करें कि दोनों एक दुसरे के सत्तर को देख रहे हों ; क्यूंकि अल्लाह तआला इस बात पर नाराज़ होते हैं
यहां सवाल पैदा होता है कि आज कल घरों में हम्माम बना होता है तो क्या इसमें बातें करना जाएज़ है ?
हदीस की रू से इस हालत में कलाम मना है जब दो आदमी नंगे होकर एक दुसरे को देखते हुए बात करे लेकिन हम्माम में बात करने की मुमानिअत पे कोई दलील नहीं है। फिर भी बेहतर सूरत यही है कि हम्माम में क़ज़ाए हाजत करते वक़्त बात ना करे लेकिन ज़रूरत पड़े या फिर क़ज़ाए हाजत से पहले हम्माम में दाख़िल होते वक़्त बात कर सकता है
( 19 ) उल्टा सोना:
पेट के बल सोना नापसंदीदा और मकरूह अमल है, इसकी कराहत की वजूहात में जहन्नमियों के सोने की मुशाबहत और जिस्मानी नुक़्सान वग़ैरा हैं
अल्लाह तआला का फ़रमान है:
:{يَوْمَ يُسْحَبُونَ فِي النَّارِ عَلَى وُجُوهِهِمْ ذُوقُوا مَسَّ سَقَرَ} ( سورة القمر : 48) 
(सूरतुल् क़मर:48 )
तर्जुमा:जिस दिन वह अपने मूँह के बल आग में घसीटे जाएंगे (और इन से कहा जाएगा) दोज़ख़ की आग लगने के मज़े चख़ो
रसूले अकरम  ने फ़रमाया:
:"إِنَّ ھٰذِہِ ضِجْعَۃٌ یُبْغِضُھَا اللّٰہُ تَعَالٰی یَعْنِی الْاَضْطِجَاعُ عَلَی الْبَطَنِ"۔(صحیح الجامع الصغیر:2271)
(सहीह अल् जामेउस् सग़ीर:2271)
तर्जुमा:" यक़ीनन इस तरह लेटने को अल्लाह तआला नापसन्द फ़रमाता है यानी पेट के बल (ओंधा) लेटना। "
الاضطجاع علی البطن:… यानी ऐसे सोना कि पेट ज़मीन की तरफ़ और पुश्त ऊपर की तरफ़ हो,
इसलिए किसी को पेट के बल नहीं सोना चाहिए मगर ऐसा सोने से ग़रीबी आती है इसका कोई सबूत नहीं है
( 20 ) क़ब्रिस्तान में हंसना:
क़ब्रिस्तान ऐसी जगह है जहां जाकर आख़िरत याद करनी चाहिए इसलिए वहां हंसना नापसंदीदा अमल है। वहां बात करते हुए या यूं ही हंसी गई तो इसमें कोई हर्ज नहीं, और इससे रिज़्क़ पे कोई असर नहीं पड़ेगा।
(21) पीने का पानी रात में खुला रखना:
खाने पीने का बरतन रात में खुला रखने से ग़ुरबत नहीं आती, अलबत्ता सोते वक़्त ग़ुदा वाला बरतन ढक दिया जाए। नबी  का फ़रमान है:
أطفِئوا المصابيحَ إذا رقدتُم ، وغلِّقوا الأبوابَ ، وأوكوا الأسقِيةَ ، وخَمِّروا الطَّعامَ والشَّرابَ - وأحسَبُه قالَ - ولو بِعودٍ تعرُضُه عليهِ(صحيح البخاري: 5624)
 (सहीह अल-बुख़ारी:5624)
तर्जुमा:रात में जब सोने लगो तो चराग़ जा दिया करो, दरवाज़े बंद कर दिया करो, मश्कीज़े का मूँह बांध दिया करो, खाने पीने के बरतनों को ढांप दिया करो, अगर ढकने के लिए कोई चीज़ ना मिले तो (बिस्मिल्लाह कहकर) कोई लकड़ी ही चौड़ाई में रख दो।
एक दूसरी रिवायत इस तरह है:
غطُّوا الإناءَ . وأوكوا السِّقاءَ . فإنَّ في السَّنةِ ليلةً ينزلُ فيها وباءٌ . لا يمرُّ بإناءٍ ليسَ عليهِ غطاءٌ ، أو سقاءٍ ليسَ عليهِ وِكاءٌ ، إلَّا نزلَ فيهِ من ذلِكَ الوباءِ . صحيح مسلم: 2014)
( सहीह मुस्लिम:20 14 )
तर्जुमा:नबी  ने फ़रमाया:बरतन ढक दो, मश्कीज़े का मूँह बंद करो, इसलिए कि साल में एक रात ऐसी आती है जिसमें बिला नाज़िल होती है, और जिस चीज़ का मूँह बंद ना हो और जो बरतन ढका हुवा ना हो इसमें यह वबा उतर पड़ती है।
बरतन खुला छोड़ने से ग़रीबी आने वाली बात शीआ कुतुब से मन्क़ूल है, इसकी किताब में लिखा है कि बीस ख़स्लतें ऐसी हैं जिन से रिज़्क़ में कमी आती है, इनमें से एक पानी के बरतन का ढकना खुला रखना है। (بحار الأنواراز محمد باقر مجلسی ج 73، ص 314 ح1)
(22) रात में सवाली को कुछ ना देना:
यह बात भी शीआ कुतुब से आई है, और इसे हज़रत अली रज़ियल्लाहू अन्हु की तरफ़ मंसूब की जाती है जिसकी कोई हक़ीक़त नहीं
रात हो या दिन साइल को अगर देने के लिए कुछ है तो देना चाहिए क्योंकि अल्लाह तआला का फ़रमान है:
وَفِي أَمْوَالِهِمْ حَقٌّ لِلسَّائِلِ وَالْمَحْرُومِ( الذاریات : 19(
 (अज़-ज़ारियात:19 )
तर्जुमा:और इनके माल में मांगने वालों का और सवाल से बचने वालों का हक़ था।
क़ुरआन की आयत" وَيُؤْثِرُونَ عَلَى أَنفُسِهِمْ وَلَوْ كَانَ بِهِمْ خَصَاصَةٌ " (حشر:9)"(हश्र:9 ) से पता चलता है कि रात के वक़्त ही आप  के पास एक साइल आया था मगर आप के पास कुछ नहीं था तो आप ने इन्हें कुछ नहीं दिया और इस साइल की ज़ियाफ़त दुसरे सहाबी के ज़िम्मे लगाई
( 23 ) बुरे ख़यालात करना:
इन्सान गुनाहों का पुतला है, इससे हमेशा ग़लती होती रहती है। इसके दिमाग़ में बुरे ख़यालात आते रहते हैं। एक मुस्लिम का काम है कि वह इन बुरे ख़यालात से तौबा करता रहे और इन्हें अमली जामा पहनाने से बच्चे। अल्लाह तआला अपने बन्दों पे बहुत महरबान है वह बन्दों के दिल में पैदा होने वाले बुरे ख़यालात पे पकड़ नहीं करता जब तक कि इसे अमली जामा ना पहना दे
 إنَّ اللهَ تجاوزَ عنْ أمتي ما حدَّثتْ بهِ أنفسَها ، ما لمْ تعملْ أو تتكلمْ(صحيح البخاري:5269)
 (सहीह अल-बुख़ारी:5269 )
तर्जुमा:सय्यदना अबू हुरैरह रज़ीयल्लाहु तआला अन्हु से रिवायत है कि रसूलुल्लाह  ने फ़रमाया:बेशक अल्लाह ने मेरी उम्मत के इन वसवसों से दरगुज़र फ़रमाया है जो सीनों में पैदा होते हैं, जब तक लोग इन पर अमल ना करें या ज़बानी इज़हार ना करें।
इसलिए यह बात कहना ग़लत है कि बुरे ख़यालात से ग़रीबी आती है, अलबत्ता एक बात यह कही जा सक्ती है कि बुराई और फ़हश काम करने से ग़ुरबत सक्ती है। अल्लाह तआला का फ़रमान है:
الشَّيْطَانُ يَعِدُكُمُ الْفَقْرَ وَيَأْمُرُكُم بِالْفَحْشَاءِ( سورۃ البقرۃ: 268)
 (सूरतुल् बक़रह:268 )
तर्जुमा:शैतान तुम्हें फ़क़ीरी से धमकाता है और बे-हयाई का हुक्म देता है।
( 24 ) बग़ैर वुज़ू के क़ुरआने मजीद पढ़ना:
अफ़्ज़ल यही है कि वुज़ू करके क़ुरआन की तिलावत करे लेकिन बग़ैर वुज़ू के भी मुस्हफ़ से तिलावत करना जाएज़ है, इसलिए यह बात कहना मबनी बर ग़लत है कि बग़ैर वुज़ू के क़ुरआने मजीद पढ़ने से ग़रीबी आता है
(25) इस्तिंजा करते वक़्त बातें करना:
आज कल घरों में बैतुल ख़ला बने होते हैं और आदमी पर्दे में होता है, इसलिए ज़रूरत के तहत इस्तिंजा और क़ज़ाए हाजत के वक़्त कलाम करने में कोई हर्ज नहीं है
इस सिलसिले में एक हदीस आती है:
لا يَخرجِ الرَّجلانِ يَضربانِ الغائطَ ، كاشفَينِ عَن عورتِهِما يتحدَّثانِ فإنَّ اللَّهَ يمقُتُ علَى ذلِكَ( السلسلۃ الصحيحة : 7 / 321 )
(अस-सिलसिलतुस् सहीहतु:7 /321)
तर्जुमा:दो मर्दों के लिए यह जाएज़ नहीं है कि वह बैतुल ख़ला के लिए निकलें, तो अपनी अपनी शर्मगाह खुली रख ـ कर आपस में बातें करने लगें, क्योंकि अल्लाह तआला इस अमल से नाराज़ होता है।
इस हदीस में क़ज़ाए हाजत के वक़्त बात करने की मुमानिअत दो बातों के साथ है
अव्वलन:दोनों बात करने वाले आदमी अपनी शर्मगाह खोले हुए हों
सानियन:वह दोनों एक दुसरे को देख रहे हों।
यूंही इस्तिंजा और क़ज़ाए हाजत के वक़्त बात करना मकरूह है मगर ज़रूरत के तहत बात कर सक्ते हैं।
शेख़ इब्न उसैमीन रहिमहुल्लाह से सवाल किया गया कि क़ज़ाए हाजत से पहले हम्माम के अन्दर बात करने का क्या हुक्म है ?
 तो शेख़ ने जवाब दिया:इसमें कोई हर्ज नहीं है, ख़ुसूसन जब ज़रूरत दरपेश हो, क्योंकि इसकी मुमानिअत की कोई सराहत नहीं है सिवाए इस सूरत के जब दो आदमी एक दुसरे के पास बैठ के पाख़ानह करे और दोनों बातें करे। और मुजर्रद क़ज़ाए हाजत वाली जगह के अन्दर से कलाम करने की मुमानिअत नहीं है
( 26 ) हाथ धोए बग़ैर खाना खाना:
खाने से पहले हाथ धोना ज़रूरी नहीं है, रिवायात से पता चलता है कि नबी  ने हाथ धोए बग़ैर भी खाना खाया है। खाना खाने से पहले हाथ धोने वाली कोई रिवायत सहीह नहीं है सिवाए एक रिवायत के जो नसाई में है
عن أم المؤمنين عائشة –رضي الله عنها- أن رسول الله –صلى الله عليه وسلم – كان إذا أراد أن ينام وهو جنب توضأ ، وإذا أراد أن يأكل غسل يديه۔(رواہ النسائي وصححه الألباني )
 (रवाहु अन-नसाई  ه अल-अल्बानी)
तर्जुमा:हज़रत आइशा रज़ियल्लाहू अन्हा से रिवायत है इन्होंने बयान किया कि रसूलुल्लाह  जब भी सोने का इरादा करते और आप हालते जनाबत में होते तो वुज़ू करते और जब खाने का इरादा करते तो अपने दोनों हाथ धोते
इस हदीस को शेख़ अल्बानी ने सहीह क़रार दिया है
इस रिवायत में मुतलक़ हाथ धोने का ज़िक्र नहीं है बल्कि जनाबत से मुताल्लिक़ है, इसलिए यह कहा जाएगा कि अगर हाथ में गन्दगी लगी हो तो खाने से पहले हाथ धोना लेना चाहिए वगरना ज़रूरत नहीं है। और इससे मुताल्लिक़ ग़ुरबत वाली बात झूठी है
( 27 ) अपनी औलाद को को सुना:
औलाद की तरबियत वालिदैन के ज़िम्मे है, माँ बाप बच्चों की तरबियत के लिए डांट सकते हैं, कोस सकते हैं, बल्कि मार भी सकते हैं क्योंकि बच्चों के सिलसिले में अहम चीज़ इनकी तरबियत है
तरबियत की ग़र्ज़ से बच्चों को मारने का हुक्म हमें इस्लाम ने दिया है:
مُرُوا أولادَكم بالصلاةِ و هم أبناءُ سبعِ سِنِينَ ، واضرِبوهم عليها وهم أبناءُ عشرِ سِنِينَ ، وفَرِّقُوا بينهم في المضاجعِ( صحيح الجامع للالبانی : 5868)
 (सहीह अल् जामेअ् लिल-अल्बानी:5 86 8 )
तर्जुमा:" जब तुम्हारी औलाद सात साल की उमर को पहुंच जाए तो इन्हें नमाज़ का हुक्म दो और जब वह दस साल के हो जाएं तो (नमाज़ में कोताही करने पर) इन्हें सज़ा दो, और बच्चों के सोने में तफ़रीक़ कर दो।
इमाम शाफ़ई रहिमहुल्लाह कहते हैं:बापों और माओं की ज़िम्मेदारी है कि वह अपनी औलादों को अदब सिखलाएं। तहारत और नमाज़ की तालीम दें और बा-शऊर होने के बाद (कोताही की सूरत में) इनकी पिटाई करें। (शरह अस-सुन्नह:2/ 40 7 )
( 28 ) दरवाज़े पर बैठना:
दरवाज़ा से लोगों की आमदो रफ़्त होती है, इसलिए अदब का तक़ाज़ा है कि दरवाज़े पे ना बैठा, नबी  ने हुक्म फ़रमाया है कि रास्ते को हक़ दो।
लेकर अगर अपना घर हो, लोगों की आमद रफ़्त नहीं हो तो फिर अपने घर के दरवाज़े पे बैठने में कोई हर्ज नहीं है। फ़रिश्ते जुमा के दिन मस्जिद के दरवाज़े पे खड़े रहते हैं
إذا كان يومُ الجمعةِ كان على كلِّ بابٍ من أبوابِ المسجدِ ملائكةٌ يكتبون الأوَّلَ فالأوَّلَ . فإذا جلس الإمامُ طوَوْا الصُّحفَ وجاؤوا يستمعون الذِّكرَ .(صحيح مسلم: 850)
 (सहीह मुस्लिम:85 0)
तर्जुमा:रसूलुल्लाह  ने इरशाद फ़रमाया:जब जुमा का दिन होता है तो फ़रिश्ते मस्जिद के हर दरवाज़े पर खड़े हो जाते हैं, पहले आने वाले का नाम पहले, इसके बाद आने वाले का नाम इसके बाद लिखते हैं (इसी तरह आने वालों के नाम इनके आने की तरतीब से लिखते रहते हैं) जब इमाम ख़ुत्बा देने के लिए आता है तो फ़रिश्ते अपने रजिस्टर (जिन में आने वालों के नाम लिखे गए हैं) लपेट देते हैं और ख़ुत्बा सुनने में मश्ग़ूल हो जाते हैं।
दरवाज़े पे फ़र्श बिछाने से मुताल्लिक़ अनस रज़ियल्लाहू अन्हु से मरवी रिवायत:
عَنْ أَنَسٍ قَالَ: "نَهَى رَسُولُ اللَّهِ - صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ - أَنْ يُفْرَشَ عَلَى بَابِ الْبُيُوتِ، وَقَالَ: نَكِّبُوهُ عَنِ الْبَابِ شيئًا".(إتحاف الخيرة المهرة بزوائد المسانيد العشرة)
इसकी सनद में मूसा बिन मुहम्मद बिन इब्राहीम अत-तैमी ज़ईफ़ रावी है, इसलिए यह नाक़ाबिल ऐतेबार है
(29 ) लहसुन प्याज़ के छिल्के जलाना:
यह बात भी शीआ से मन्क़ूल है, इनकी किताब जामेअ् अल-आख़्बार में मज़्कूर है जिसे बअ्ज़ सूफ़ियों ने अपनी किताब में ज़िक्र कर दिया और अव्वाम में मश्हूर हो गई। इस बात को तुर्किस्तान के हनफ़ी आलम बुरहान अद-दीन ज़रनौजी ने अपनी किताब"تَعْلِیْمُ الْمُتَعَلِّمِ طَرِیْقُ التَّعَلِّمِ" में ज़िक्र किया मगर इस्लाम मैं इस बात की कोई हक़ीक़त नहीं है
( 30 ) फ़क़ीर से रोटी या फिर और कोई चीज़ ख़रीदना:
यह बात भी शीआ की किताब जामेअ् अल-आख़्बार में मौजूद है
फ़क़ीर तो ख़ुद ही मुहताज होता है वह क्यूं किसी से कुछ बेचेगा और अगर इसके पास कोई क़ीमती सामान है तो इसे बीच सकता है। फ़क़ीर से कुछ ख़रीदना ग़रीबी का सबब हो तो कोई फ़क़ीर मालदार नहीं हो सक्ता और फ़क़ीर से ख़रीदने वाला कोई मालदार नहीं रह सकता। अक़ल नक़्ल दोनों ऐतेबार से यह झूठी बात है
( 31 ) फूंक से चराग़ बुझाना:
यह बात शीआ किताब जामेअ् अल-आख़्बार से मन्क़ूल है जो हमारे लिए हुज्जत नहीं है। चराग़ तो फूंक से ही बुझाया जाता है, कोई दुसरे तरीक़े से बुझाए इसमें भी कोई हर्ज नहीं लेकिन फूंक से चराग़ बुझाना बाइस ग़रीबी है मबनी बर ग़लत है
 नूर ख़ुदा है कुफ़्र की हरकत पे ख़न्दा ज़न
फूंकों से यह चराग़ बुझाया ना जाएगा
(32) बिस्मिल्लाह पढ़े बग़ैर खाना:
खाना खाते वक़्त बिस्मिल्लाह कहना वाजिब है
عن أُمُّ كُلْثُومٍ عَنْ عَائِشَةَ رَضِيَ اللَّهُ عَنْهَا أَنَّ رَسُولَ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ قَالَ إِذَا أَكَلَ أَحَدُكُمْ فَلْيَذْكُرْ اسْمَ اللَّهِ تَعَالَى فَإِنْ نَسِيَ أَنْ يَذْكُرَ اسْمَ اللَّهِ تَعَالَى فِي أَوَّلِهِ فَلْيَقُلْ بِسْمِ اللَّهِ أَوَّلَهُ وَآخِرَهُ (صحيح سنن أبي داود:3202 ) .
 (सहीह सुनन अबी दाऊद:3202) 
तर्जुमा:उम्म कुलसुम आइशा रज़ियल्लाहू अन्हा से बयान करती हैं कि रसूलुल्लाह  ने फ़रमाया:जब तुम में से कोई खाना खाए तो अल्लाह का नाम ले, और अगर अल्लाह तआला का नाम लेना इब्तिदा में भूल जाए तो कहे:
: بِسْمِ اللَّهِ أَوَّلَهُ وَآخِرَهُ.
वाक़ई बिस्मिल्लाह के बग़ैर खाना खाना बाइस नुक़्सान ख़ुसरान है, इसके खाने में शैतान शामिल हो जाता है इसलिए यह कहा जा सक्ता है कि अल्लाह के ज़िक्र के बग़ैर मुस्तक़िल खाना खाने से वह खाने की नेअ्मत और इसकी बरकत से महरूम हो जाएगा लेकिन अगर भूले से ऐसा हो जाए तो अल्लाह तआला ने भूल चूक को माफ़ कर दिया है
(33) ग़लत क़सम खाना:
इस्लाम में झूठी क़सम खाना गुनाहे कबीरा है नबी  का फ़रमान है:
 الكبائرُ : الإشراكُ باللهِ ، وعقوقُ الوالديْنِ ، أو قال : اليمينُ الغَموسُ(صحيح البخاري:6870)
 (सहीह अल-बुख़ारी:6870)
तर्जुमा:कबीरा गुनाह यह हैं:अल्लाह के साथ शिर्क करना, वालिदैन की नाफ़रमानी करना, झूठी क़सम खाना।
ऐसे लोगों के लिए दर्दनाक अज़ाब है, इसलिए एक मुसलमान को क़तई तौर पर झूठी क़सम नहीं खाना चाहिए। अगर किसी ने साबिक़ा किसी मुआमले पे अमदन झूठी क़सम खाई है तो सच्ची तौबा करे, अगर झूठी क़सम के ज़रिए किसी का हक़ मारा तो इसको वापस करे और अगर आइन्दा किसी काम के ना करने पे क़सम खाई और वह काम कर लिया तो क़सम का कफ़्फ़ारा अदा करे। इसका कफ़्फ़ारा दस मिस्कीनों को औसत दर्जे का खाना खिलाना है जो अपने घर वालों को खिलाते हो या इसी तरह इन मिस्कीनों को कपड़े देना है या एक गर्दन यानी ग़ुलाम या बांदी को आज़ाद करना है। जिसे यह सब कुछ मयस्सर ना हो तो वह तीन दिन रोज़ा रखे।
( 34 ) जूता चप्पल उल्टा देख कर सीधा नहीं करना:
इस्लामी ऐतेबार से इस बात की कोई हक़ीक़त नहीं है। नबी  के ज़माने में भी जूता था मगर आप  से, सहाबा किराम से या अइम्मह अरबा से इस क़सम की कोई बात मन्क़ूल नहीं है
इब्न अक़ील हंबली रहिमहुल्लाह ने किताबुल् फ़ुनून में लिखा है:
"والويل لمن رأوه أكب رغيفا على وجهه،أو ترك نعله مقلوبة ظهرها إلى السماء"۔(الآداب الشرعية1 /268-269)
 (अल-आदाब अश-शरिअह 1/26 8-26 9 )
तर्जुमा:बर्बादी है इसके लिए जिसने उलटी हुई रोटी देखी या पलटा हुवा जूता जिसकी पीठ आस्मान की तरफ़ हो इसे छोड़ दिया।
इस कलाम में बहुत सख़्ती है, क़ुरआन हदीस की रोशनी मैं इस कलाम की कोई हैसियत नहीं रहती
नबी  जूते में नमाज़ पढ़ते थे। अनस बिन मालिक रज़ियल्लाहू अन्हु सवाल किया गया ?
أكان النبي صلى الله عليه وسلم يصلي في نعليه؟ قال:نعم [رواه البخاري: 386]
 [रवाह अल-बुख़ारी:38 6 ]
तर्जुमा:किया नबी  अपने जूतों में नमाज़ पढ़ते थे, कहने लगे हाँ।
ज़ाहिर सी बात है जूते में नमाज़ पढ़ते हुए जूता पलटेगा
इसलिए उल्टे जूते के मुताल्लिक़ मज़कूरा बाला बातें करना ठीक नहीं है अलबत्ता यह कह सकते हैं कि चूंकि जूते के निचले हिस्से में गन्दगी लगी होती है बिनाबरीं उल्टे जूते को पलट दिया जाए ताकि लोग इससे घुन ना महसूस करें
( 35 ) हालात जनाबत में हजामत करना:
हालते जनाबत में मर्द औरत के लिए महज़ चंद चीज़ मम्नूअ् हैं, इनमें नमाज़, तवाफ़, मस्जिद में क़ियाम और क़ुरआन की तिलावत वग़ैरा। बक़िया दीगर काम जुनुबी अंजाम दे सकता है। हालते जनाबत में हजामत को बाइसे ग़रीबी बतलाना ग़ैर इस्लामी नज़रिया है
( 36 ) मकड़ी का जाला घर में रखना:
यह बात भी बातिल मरदूद है। इस बात की निस्बत हज़रत अली रज़ियल्लाहू अन्हु की तरफ़ की जाती है
طهّروا بيوتكم من نسيج العنكبوت ، فإنّ تركه في البيوت يورث الفقر .
तर्जुमा:घरों को मकड़ी के जालों से साफ़ रखा करो क्योंकि मकड़ी के जालों का घर में होना इफ़्लास का बाइस है।
यह बात तफ़्सीर स़अ्लबी और तफ़्सीर क़ुरतुबी के हवाले से बयान की जाती है मगर इसकी सनद में अब्दुल्लाह बिन मैमून अल-क़द्दाह मतरूक मुत्तहिम बिल् किज़्ब रावी है। " तहज़ीबुत् तहज़ीब"( 6/44-45) 
( 37 ) रात को झाड़ू लगाना:
रात हो या दिन किसी भी वक़्त झाड़ू लगा सकते हैं, इसकी मुमानिअत की कोई दलील नहीं है, ना ही इस काम से मासियत होती है। इसलिए रात को झाड़ू देना तंगदस्ती का सबब बतलाना तवह्हुम परस्ती और ज़ोअ्फ़ ऐतक़ादी है। मुसलमानों में बरेलवी तबक़ा इस तवह्हुम का शिकार है। अल्लाह तआला इन्हें हिदायत दे
( 38 ) अंधेरे में खाना:
वैसे उजाले में खाए तो अच्छी है मगर किसी को उजाला मयस्सर ना हो सके तो अंधेरे में खाने में कोई हर्ज नहीं है। सूरह हश्र में एक अन्सारी सहाबी का ज़िक्र है जिन्होंने महमान रसूल  को अंधेरे में महमानी कराई बावजूदयकि चराग़ मौजूद था मगर इन्होंने बीवी को चराग़ बुझाने कहा ताकि अंधेरे में महमान शिकम सैर होकर खाए और मेज़बान भूका रहे। इस मन्ज़र को अल्लाह देख रहा है इसने आयत नाज़िल की:
ويؤثرون على أنفسهم ولو كان بهم خصاصة(الحشر:9)
 (अल-हश्र:9 )
तर्जुमा:वह अपने ऊपर दूसरों को तरजीह देते हैं गो ख़ुद को कितनी ही सख़्त हाजत हो।
( 39 ) घड़े में मूँह लगा कर पीना:
पानी का कोई भी बरतन हो अगर मूँह लगाकर पीना आसान हो, इसका हजम बड़ा ना हो या इस का दहाना कुशादा ना हो जिस से मूँह में मिक़दार से ज़्यादा पानी जाने का ख़तरा हो तो बरतन से मूँह लगाकर पिया जा सक्ता है। मुत्तफ़क़ अलैह एक रिवायत में मुश्क से मूँह लगाकर पानी पीने की मुमानिअत है
وعن ابن عباس قال نهى رسول الله صلى الله عليه وسلم عن الشرب من قي السقاء(صحيح البخاری :5629 )
 (सहीह अल-बुख़ारी:5629 )
तर्जुमा:और हज़रत इब्न अब्बास रज़ीयल्लाहु तआला अन्हुमा कहते हैं कि रसूले करीम  ने मुश्क के दहाने से पानी पीने से मना फ़रमाया है
इस हदीस के अलावा एक दूसरी हदीस है जिस से साबित होता है कि नबी  ने मुश्क में मूँह लगाकर पानी पिया है।
 دخلَ عليَّ رسولُ اللَّهِ صلَّى اللَّهُ عليْهِ وسلَّمَ فشرِبَ من في قربةٍ معلَّقةٍ قائمًافقمتُ إلى فيها فقطعتُهُ (صحيح الترمذي:1892)
 (सहीह अत-तिरमिज़ी:18 9 2)
तर्जुमा:(एक दिन) रसूले करीम  मेरे यहां तशरीफ़ लाए तो आप  ने खड़े खड़े लटकी हुई मुश्क के मूँह से पानी पिया, चुनांचे में मुश्क के मूँह के पास जा कर खड़ी हुई और इसको काट लिया
ख़ुलासा के तौर पे यह कहना चाहूँगा कि बरतन छोटा हो तो इसमें मूँह लगाकर पानी पिएं, बड़ा हो तो दुसरे छोटे बरतन में उंडेल कर पिएं और अगर बड़े बरतन से पीने की हाजत पड़ जाए तो इसमें कोई हर्ज नहीं
( 40 ) क़ुरआने मजीद ना पढ़ना:
क़ुरआन पढ़ने और अमल करने की किताब है जो इससे दूरी इख़्तियार करता है वह वाक़ई अल्लाह की रहमत से दूर हो जाता है। नबी  ने क़ुरआन पढ़ने का हुक्म दिया है इससे ईमान में ज़्यादती, इल्म अमल में पुख़्तगी और ज़िंदगी की तमाम शय में बरकत आती है। इसलिए क़ुरआन पढ़ने का मामूल बनाएं और समझ कर पढ़ें। जो बिला समझे पढ़ते हैं वह नुज़ूले क़ुरआन के मक़्सद से बे ख़बर और तिलावत के आदाब से नावाक़िफ़ हैं।