اتوار، 21 اگست، 2016

फ़ज़ाइले मदीना और मस्जिदे नबवी की ज़ियारत के आदाब व अहकाम

फ़ज़ाइले मदीना और मस्जिदे नबवी की ज़ियारत के आदाब व अहकाम
तहरीर: मक़बूल अहमद सलफ़ी
दफ़्तर तआवुनी बराए दावत व इरशाद शुमाल अत-ताइफ़ (मिस्रह)
मदीना रूए ज़मीन की मुक़द्दस सरज़मीन है, इसके मुख़्तलिफ़ अस्मा हैं मसलन ताबह, तय्यबा, दार, ईमान, दार हिजरह वग़ैरा। आम तौर से इस शहर को मदीना मुनव्वरा के नाम से जाना जाता है मगर इसका इस्तिमाल सलफ़ के यहां नहीं मिलता। जब हम मदीना मुनव्वरा कहते हैं तो इससे तमाम इस्लामी मुल्क मुराद लिया जाएगा क्योंकि इस्लाम ने सारी जगहों को रौशन कर दिया, इसलिए एक ख़ास वस्फ़ नब्विय्यह से मदीना को मुत्तसिफ़ करना बेहतर है। इसका पुराना नाम यसरब है, अब यह नाम लेना भी मना है।
अहादीस़े रसूल की रौशनी में मदीना नब्विय्यह के बे शुमार फ़ज़ाइल हैं चंद फ़ज़ाइल पेशे ख़िदमत हैं।
٭ मदीना ख़ैर व बरकत की जगह है:
والمدينةُ خيرٌ لهم لو كانوا يعلمون
तर्जुमा: और मदीना इनके लिए बाइस ख़ैर व बरकत है अगर इल्म रखते। (सहीह अल-बुख़ारी: 1875)
٭ यह हरम पाक है:
إنها حرَمٌ آمِنٌ
तर्जुमा: बेशक मदीना अमन वाला हरम है। (सहीह मुस्लिम: 1375)
٭ फ़रिशतों के ज़रिए ताऊन और दज्जाल से मदीने की हिफ़ाज़त:
على أنقابِ المدينةِ ملائكةٌ ، لا يدخُلُها الطاعونُ ، ولا الدجالُ
तर्जुमा: मदीना के रास्तों पर फ़रिश्ते मुक़र्रर हैं इसमें ना तो ताऊन और ना ही दज्जाल दाख़िल हो सकता है। (सहीह अल-बुख़ारी: 7133)
٭ मदीने में ईमान सिमट जाएगा:
إن الإيمانَ ليأْرِزُ إلى المدينةِ ، كما تأْرِزُ الحيةُ إلى جُحرِها
तर्जुमा: मदीना में ईमान इसी तरह सिमट आएगा जैसे सांप अपने बल में सिमट जाता है। (सहीह अल-बुख़ारी: 1876)
٭ मदीना से मुहब्बत करना है:
اللهمَّ حَبِبْ إلينَا المدينةَ كحُبِّنَا مكةَ أو أَشَدَّ
तर्जुमा: ऐ अल्लाह!मदीने को हमें मक्का की तरह बल्कि इससे भी ज़्यादा महबूब बना दे। (सहीह अल-बुख़ारी: 1889)
٭ मदीना में मरने वाले के लिए शिफ़ाअत नबवी:
منِ استطاع أن يموتَ بالمدينةِ فلْيفعلْ فإني أشفعُ لمن ماتَ بها
तर्जुमा: जो शख़्स मदीना शरीफ़ में रहे और मदीने ही में इसको मौत आए में इसकी सिफ़ारिश करूंगा। (अस-सिल्सिलतुस् सहीहतु: 6/ 103 4)
क़ाबिल सद्र शक हैं वह लोग जो मदीने में हैं या इसकी ज़ियारत पे अल्लाह की तरफ़ से बुलाए गए। इस मुबारक सरज़मीन पे मस्जिदे नबवी ﷺ है जिसे आप ﷺ ने अपने दस्त मुबारक से तामीर किया। अल्लाह के रसूल ﷺ ने इस मस्जिद की ज़ियारत का हुक्म फ़रमाया है:
لا تُشَدُّ الرحالُ إلا إلى ثلاثةِ مساجدَ : مسجدِ الحرامِ، ومسجدِ الأقصَى، ومسجدي هذا
तर्जुमा: मस्जिदे हराम, मस्जिदे नबवी और बैतुल मक़्दिस के अलावा (हुसूल सवाब की निय्यत से) किसी दूसरी जगह का सफ़र मत करो। (सहीह अल-बुख़ारी: 1995)
गोया सवाब की निय्यत से दुनिया की सिर्फ़ तीन मसाजिद की ज़ियारत करना जाएज़ है बाक़ी मसाजिद और मक़बरों की ज़ियारत करना जाएज़ नहीं।
अलबत्ता जो लोग मदीने में मुक़ीम हों या कहीं से ब-हैसियत ज़ाइर आए हों तो इनके लिए मस्जिदे नबवी की ज़ियारत के अलावा मस्जिद क़ुबा, बक़ीउल् ग़रक़द और शोहदा उहुद की ज़ियारत मशरूअ् है।
मस्जिदे नबवी:
मस्जिदे नबवी की बड़ी अहमियत व फ़ज़ीलत है हरम मक्की के अलावा मस्जिदे नबवी में एक वक़्त की नमाज़ दुनिया की दीगर मक़ामात में छे महीने बीस दिन से बरतर है। नबी ﷺ का फ़रमान है:
صلاةٌ في مسجدي هذا خيرٌ من ألفِ صلاةٍ فيما سواهُ، إلا المسجدَ الحرامَ
तर्जुमा: मेरी इस मस्जिद में एक नमाज़ का सवाब एक हज़ार नमाज़ के बराबर है सिवाए मस्जिदे हराम के। (सहीह अल-बुख़ारी: 1190)
इसे हरम मदनी भी कहते हैं। इसमें एक जगह ऐसी है जो जन्नत के बाग़ों में से है। नबी ﷺ का फ़रमान है:
ما بين منبري وبيتي روضةٌ من رياضِ الجنةِ
तर्जुमा: मेरे मिम्बर और मेरे घर के दरमियान जन्नत के बाग़ों में से एक बाग़ है। (सहीह मुस्लिम: 1390)
मस्जिदे नबवी की ज़ियारत के आदाब:
(1) मस्जिद नबवी में दाख़िल होते वक़्त दायां पैर आगे करें और यह दुआ पढ़ें:
أَعوذُ باللهِ العَظيـم وَبِوَجْهِـهِ الكَرِيـم وَسُلْطـانِه القَديـم مِنَ الشّيْـطانِ الرَّجـيم، بِسْمِ اللَّهِ، وَالصَّلاةُ وَالسَّلامُ عَلَى رَسُولِ الله، اللّهُـمَّ افْتَـحْ لي أَبْوابَ رَحْمَتـِك.
(2) दो रक्अत नमाज़ तहिय्यतुल् मस्जिद की निय्यत से पढ़ें, अगर यह नमाज़ रियाज़ुल् जन्नह में अदा करें तो ज़्यादा बेहतर है और ख़ूब दुआ करें।
(3) इसके बाद रसूले अकरम ﷺ पर निहायत अदब व इहतराम से दरूद व सलाम अर्ज़ करें, सलाम के लिए यह अल्फ़ाज़ कहना मस्नून हैं:
(السلام عليك أيها النبي ورحمة الله وبركاته , صلى الله عليك وجزاك عن أمتك خيرالجزاء)
फ़िर हज़रत अबू बक्र रज़ी अल्लाह अन्हु पर

और हज़रत उमर रज़ियल्लाहू अन्हु पर
السلام علیک یاابابکر! ورحمۃ اللہ وبرکاتہ ،رضی اللہ عنک وجزاک عن امۃ محمد خیراً
के ज़रिए सलाम कहीं।
(4) औरतों के लिए ब-कसरत क़ब्रों की ज़ियारत जाएज़ नहीं क्योंकि रसूलुल्लाह ﷺ ने ब-कसरत क़ब्रों की ज़ियारत करने वाली औरतों पर लानत फ़रमाई है लेकिन कभी कभार ज़ियारत कर सक्ती हैं।
(5) ज़ाइरीन के लिए ज़्यादा से ज़्यादा मस्जिदे नबवी में ठहरना, कसरत से दुआ व इस्तिग़्फ़ार, ज़िक्र व अज़्कार, तिलावते क़ुरआन और दीगर नफ़्ली इबादात व आमाले सॉलिहा करना चाहिए।
( 6)मस्जिद से निकलने वक़्त यह दुआ पढ़ें:
بسْـمِ اللَّـهِ وَالصَّلاةُ وَالسَّلامُ عَلَى رَسُولِ اللَّهِ، اللَّهُمَّ إنِّي أَسْأَلُكَ مِنْ فَضْلِكَ، اللَّهُمَّ اعْصِمْنِي مِنَ الشَّيْطَانِ الرَّجِيم.
मस्जिद नबवी की ज़ियारत करने वालों के लिए तम्बीहात
1/ हुजरह नबवी की खिड़कियों और मस्जिद के दीवारों को बरकत की निय्यत से छूना याब व सह लेना या तवाफ़ करना जाएज़ नहीं है बल्कि यह सब बिदअत वाले आमाल हैं।
2/ नबी ﷺ से अपनी मुश्किल का सवाल करना याबी मारी की शिफ़ा का सवाल करना या इसी तरह की दीगर चीज़ों का सवाल करना जाएज़ नहीं है, यह सब चीज़ इ न सिर्फ़ अल्लाह तआला से मांगी जाएंगी, गुज़रे हुए लोगों से मांगना अल्लाह के साथ शिर्क और ग़ैरुल्लाह की इबादत करना है।
3/ बअ्ज़ लोग नबी की क़ब्र की तरफ़ खड़े होकर और हाथ उठा कर मुस्तक़िल दुआ करते हैं यह भी ख़िलाफ़े सुन्नत है, मस्नून यह है कि वह क़िबला रुख़ होकर अल्लाह तआला से मांगे।
4/ इसी तरह आपकी क़ब्र के पास आवाज़ बुलन्द करना, देर तक ठहरे रहना, मख़्सूस दुआ पढ़ना या हज़ार व लाख मरतबा दरूद पढ़ कर हदिया करना ख़िलाफ़े सुन्नत है।
5/ बअ्ज़ लोग आप पर दरूद व सलाम भेजते वक़्त सीने पर या नीचे नमाज़ की तरह हाथ बांध लेते हैं जो कि ख़ुशूअ् व ख़ुज़ूअ् और इबादत की हैअत है और यह सिर्फ़ अल्लाह के लिए बजा है।
6/ मौजूदा मिम्बर नबी ﷺ के दौर का नहीं है, गिर होता भी तो इससे बरकत लेना या रियाज़ुल् जन्नह के सुतूनों से बरकत लेना और बतौरे ख़ास इनके पास नमाज़ का क़स्द करना जाएज़ नहीं है।
7/नबी ﷺ के मुताल्लिक़ दुनिया की तरह सलाम की आवाज़ सुनने या सलाम के वक़्त रूह लौटाए जाने का अक़ीदा रखना ग़लत है।
बक़ीउल् ग़रक़द: जन्नतुल् बक़ीअ् नाम सहीह नहीं है, हदीस में इसका नाम बक़ीउल् ग़रक़द आया है। यह अहले मदीना का क़ब्रिस्तान है इसमें तक़रीबन दस हज़ार अन्सार व मुहाजिरीन और अज़वाजे मुतह्हरात मद्फ़ून हैं मगर मरूर ज़माना और ख़ास कर बग़ल से बहने वाला महज़ूर नामी नाला की वजह से मादूदे चंद के किसी की क़ब्र की पहचानी नहीं जाती। बअ्ज़ किताबों में बहुत सी क़ब्रों की शनाख़्त की गई है, यह सब अंदाज़े पे मुनहसिर हैं। क़ब्रें तो मिटनी ही हैं क्योंकि इस्लाम ने क़ब्रों को ऊंचा करने, इस पे चराग़ां करने, इमारत बनाने और पुख़्ता करने से मना किया है ताकि इसे सज्दह गाह ना बना लेता जाए।
बक़ीउल् ग़रक़द की ज़ियारत के वक़्त शरई आदाब मल्हूज़ रखना निहायत ज़रूरी है। उम्मुल मुमिनीन हज़रत आइशा रज़ियल्लाहू अन्हा बयान करती हैं कि रसूलुल्लाह ﷺ जब मेरे यहां रात बसर करते तो रात के आख़िरी पहर बक़ीअ् जाते और यह दुआ पढ़ते:
السلام عليكم دارَ قومٍ مؤمنين . وأتاكم ما تُوعدون غدًا . مُؤجَّلون . وإنا ، إن شاء الله ، بكم لاحقون . اللهمَّ ! اغفِرْ لأهلِ بقيعِ الغَرْقدِ
हम भी यह दुआ पढ़ें, इसके अलावा भी मय्यत की मग़्फ़िरत और बुलंदी दरजात की दुआ कर सक्ते हैं। मगर ध्यान रहे कि अहल क़ब्र के वसीले से दुआ करना, क़ब्रों के पास ताज़ीमन हाथ बांध कर खड़ा होना, इसे सज्दह या तवाफ़ करना, वहां नौहा करना, क़ब्र वाले के लिए या क़ब्र की तरफ़ तवज्जह करके नमाज़ पढ़ना, बतौर तबर्रुक क़ब्र की मिट्टी उठाना या क़ब्रों और दीवार क़ब्रिस्तान को चूमना चाटना और अहले क़ुबूर के ईसाले सवाब के वास्ते दरूद, सूरह फ़ातिहा, चारों क़ुल, सूरह या-सीन और सूरह बक़रा की आख़िरी आयात पढ़ना, यह सारे उमूर नाजाइज़ हैं, इसलिए हमें इन कामों से हर हाल में बचना है।
मस्जिदे क़ुबा: नबी ﷺ मक्का से मदीना हिजरत के वक़्त इस मस्जिद को बनाया था। इसकी भी बड़ी फ़ज़ीलत वारिद है। चंद अहादीस़ देखें।
عَنِ ابْنِ عُمَرَ رَضِيَ اللهُ عَنْهُمَا قَالَ: كَانَ رَسُولُ الله صلى الله عليه وسلم يَأْتِي مَسْجِدَ قُبَاءٍ، رَاكِباً وَمَاشِياً، فَيُصَلِّي فِيهِ رَكْعَتَيْنِ
तर्जुमा: हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहू अन्हुमा से रिवायत है कि नबी ﷺ पैदल या सवार होकर क़ुबा तशरीफ़ लाते और दो रक्अत (नमाज़ नफ़्ल) अदा करते। (सहीह मुस्लिम: 1399)
وَعَنْ سَهْل بن حُنَيْفٍ رَضِيَ اللهُ عَنْهُ قَالَ: قَالَ رَسُولُ الله صلى الله عليه وسلم: «مَنْ تَطَهَّرَ فِي بَيْتِهِ ثمَّ أَتَى مَسْجِدَ قُبَاءَ فَصَلَّى فِيهِ صَلاَةً كَانَ لَهُ كَأَجْرِ عُمْرَةٍ
तर्जुमा: हज़रत सहल बन हनीफ़ रज़ियल्लाहू अन्हु से रिवायत है इन्होंने कहा कि नबी ﷺ ने इरशाद फ़रमाया: जिस शख़्स ने अपने घर में वुज़ू किया और फ़िर मस्जिद क़ुबा में आकर नमाज़ अदा की तो इसे एक उमरा का सवाब मिलेगा। (सहीह इब्न माजा: 1168)
इन अहादीस़ की रौशनी में पता चलता है कि हमें हफ़्ते के दिन हो या जिस फ़ुर्सत मिले घर से वुज़ू करके आएं और मस्जिदे क़ुबा में नमाज़ अदा करें ताकि उमरा के बराबर सवाब पा सकें। नमाज़ के अलावा इस मस्जिद में दीगर किसी मख़्सूस इबादत का ज़िक्र नहीं मिलता। और यह भी याद रहे कि अहले मदीना या ज़ाइरीन मदीना के अलावा किसी दुसरे मक़ाम से सिर्फ़ मस्जिदे क़ुबा की ज़ियारत पे आना मशरूअ् नहीं है।
शोहदा उहुद: मदीना में उहुद नाम का एक पहाड़ है इसके दामन में हिजरत के तीसरे साल मुसलमानों और क़ुरैश के दरमियान लड़ाई हुई जो गज़वा उहुद के नाम से मश्हूर है। इस गज़वा में सत्तर सहाबा किराम (64 अन्सारी, 6 मुहाजिर) शहीद हुए। इन्हें इसी पहाड़ी दामन में दफ़न किया गया। शुहदाए उहुद में सय्यद अश-शुहदा हम्ज़ह बिन अब्दुल् मुत्तलिब, मुसअब बिन उमैर, अब्दुल्लाह बिन हबश, जाबिर बिन अब्दुल्लाह बिन अम्र बिन हराम, अम्र बिन जमूह, सअ्द बिन रबीअ्, ख़ारिजह बिन ज़ैद, नुअ्मान बिन मालिक और अब्दह बिन हसहास रज़ियल्लाहू अन्हुम क़ाबिले ज़िक्र हैं।
इमाम तबरी रहिमहुल्लाह लिखते हैं कि मैदान उहुद में क़िबले की तरफ़ शुहदाए उहुद की क़ब्रें हैं, इनमें से कोई क़ब्र मालूम नहीं सिवाए हम्ज़ह रज़ियल्लाहू अन्हु के।
शुहदाए उहुद की ज़ियारत इसी तरह करें जैसे बक़ीउल् ग़रक़द के तहत लिखा है। जिन बातों से मना किया गया है यहां भी इन बातों से गुरेज़ करें और यह बात ज़हन में बिठाएं कि जबल उहुद पे चढ़ना कोई इबादत नहीं है ना ही वहां के दरख़्तों, पत्थरों और ग़ारों में कपड़े और धागे बांधें ख़्वाह किसी निय्यत से हो।
ज़ाइरीन के लिए तीन अहम नसीहतें
(1) मज़कूरा बाला मक़ामात मुक़द्दसा यानी मस्जिदे नबवी, नबी ﷺ की क़ब्र मुबारक, हज़रत उमर व अबू बक्र रज़ी अल्लाह अन्हुमा की क़ब्रों, रियाज़ुल् जन्नह, मस्जिद क़ुबा, बक़ीअ् क़ब्रिस्तान और क़ब्रिस्तान शोहदा उहुद के अलावा मदीना के दीगर मक़ामात की सवाब की निय्यत से ज़ियारत करना शरअन जाएज़ नहीं है ख़्वाह मसाजिद हों मसलन मसाजिद सब्अ ह, मस्जिद जबल उहुद, मस्जिद क़िब्लतैन, मस्जिद जुमा या मसाजिद ईदगाह वग़ैरा ख़्वाह कोई तारीख़ी मक़ाम मसलन मैदान बदर या बिअर रौहा जिसे बिदअतियों ने बिअर शिफ़ा नाम दे रखा है। इसलिए अपना वक़्त और रुपया पैसा फ़ुज़ूल ख़र्च करने से बेहतर है किसी मिस्कीन को सदक़ा कर दें।
(2) आप को अल्लाह तआला ने शहर नबी ﷺ की ज़ियारत का मौक़ा अता किया। इस पे अल्लाह का शुक्र बजा लाएं साथ ही नबी ﷺ से सारी काइनात से ज़्यादा हत्ता कि अपनी जान से भी ज़्यादा मुहब्बत करने का अज़्म मुसम्मम करें। आप ﷺ से मुहब्बत ईमान का हिस्सा है। मुहब्बत की अलामात में से है कि आप ﷺ की सुन्नत का इल्म हासिल किया जाए, इस पे अमल किया जाए और दूसरों तक इसको पहुंचाया जाए। इस मज़मून के ज़रिए ज़ियारत के जो आदाब मालूम हुए इस पे अमल करना और इसे फैलाना भी हुब्ब नबी ﷺ में दाख़िल है।
(3) अल्लाह के यहां किसी भी अमल की क़ुबूलियत के लिए तीन शर्तें हैं, हमेशा इन्हें ज़हन में रखें।
पहली शर्त निय्यत का ख़ालिस होना: नबी ﷺ का फ़रमान है: बेशक आमाल का दारू मदार निय्यत पर है। (बुख़ारी)
दूसरी शर्त अक़ीदा तौहीद का होना: यानी अमल करने वाले का अगर अक़ीदा दुरुस्त नहीं तो नेक अमल भी क़ुबूल नहीं होता। अल्लाह तआला का फ़रमान है:
وَلَوْ أَشْرَكُوا لَحَبِطَ عَنْهُم مَّا كَانُوا يَعْمَلُونَ
तर्जुमा: और अगर बिल-फ़र्ज़{अम्बिया अलैहिमुस् सलाम}भी शिर्क करते तो इनके भी किए हुए तमाम आमाल ज़ाए कर दिए जाते। (सूरह अल-अनआम 88)
तीसरी शर्त अमल का सुन्नत के मुताबिक़ होना: क्योंकि जो अमल नबी ﷺ के सुन्नत के मुताबिक़ ना हो वह भी बर्बाद कर दिया जाता है। नबी ﷺ ने फ़रमाया:
مَنْ عَمِلَ عَمَلا لَیْسَ عَلَیْہَ اَمْرُنَا فَہُورَدٌّ

तर्जुमा: वह अमल जिस पर मेरा हुक्म नहीं, मरदूद है। (बुख़ारी)