बैतुल माल का नक़दी अमवाल से ज़रूरत की अश्या
ख़रीद कर देना
जवाब: मक़बूल अहमद सलफ़ी
इस्लामिक दअ्वह सेंटर-मिस्रह-ताइफ़
इस्लामिक दअ्वह सेंटर-मिस्रह-ताइफ़
रमज़ानुल मुबारक के मौक़ा से मालदार लोग उमूमन
अपने माल की ज़कात निकालते हैं, इनमें से बअ्ज़ तो ख़ुद से ग़ुरबा व मसाकीन और
मुस्तहक़ीन में ज़कात तक़्सीम करते हैं जबकि कुछ लोग दीनी मराकिज़ और बैतुल माल नामी
इदारों को बतौर ज़कात नक़दी रक़ूम देते हैं। यह इदारे ज़कात की रक़म से ज़रूरतमन्दों को
ज़रूरत की अश्या ख़रीद कर देते हैं। एक मुद्दत से यह काम बर्रे सग़ीर में होता चला आ
रहा है, सऊदी अरब के ख़ैराती इदारे भी फ़ुक़रा व मसाकीन में राशन पॅकेज, साथ में कुछ नक़दी रक़म दिया करते हैं लेकिन आज कल इसके अद्म जवाज़ पर बअ्ज़ उलमा
के फ़तावा सोशल मीडिया पर गश्त कर रहे हैं जिनकी वजह से आम लोगों में काफ़ी बेचैनी
है और वह इस मुआमले में मुख़्तलिफ़ उलमा से रुजूअ् कर रहे हैं।
मालेगांव से फ़रीद अहमद साहिब मुझे लिखते हैं "आज कल ज़कात के माल से राशन किट तक़्सीम को लेकर मस्अला बताया जा रहा है कि ज़कात अदा नहीं होगी। यहां सवाल यह है कि अहले ख़ैर हज़रात जमाअत के बैतुल माल में अपनी ज़कात रक़म की शक्ल में अदा करते हैं और बैतुल माल के ज़िम्मेदारान हस्बे ज़रूरत व मौक़ा के मुस्तहिक़ अफ़राद को राशन किट, सर्दी के मौसम में कम्बल, बे-रोज़गार अफ़राद को ठेला गाड़ी या दीगर ज़राए से ज़रिया मआश का नज़्म करते हैं, बअ्ज़ हज़रात ईदैन के मौक़े पर नए कपड़े तक़्सीम करते हैं वग़ैरा। ऐसी सूरत में जमाअत के बैतुल माल के ज़िम्मेदारान को क्या रक़म के ज़रिए से ही इमदाद करना होगी या मुरव्वजा तरीक़े से भी इमदाद की जा सक्ती है जिसका ऊपर ज़िक्र किया गया है। बराहे करम इस सिलसिले में क़ुरआन व हदीस की रौशनी में दलाइल के साथ रहनुमाई फ़रमाएं। नवाज़िश होगी"।
इस सवाल का जवाब लिखने से पहले इससे मुताल्लिक़ मुख़्तलिफ़ उलमा के फ़तावा व आरा का गहराई से मुतालआ किया हूं और इस नतीजे पर पहुंचा कि इस मुआमले में कोई इख़्तिलाफ़ नहीं है कि साहिबे निसाब अपने नक़दी रक़म की ज़कात हर हाल में नक़दी सूरत में ही निकालेगा ख़्वाह वह बज़ाते ख़ुद मुस्तहिक़ को दे या नियाबत के लिए दीनी मराकिज़ और बैतुल माल को दे ताहम दीनी मराकिज़ और बैतुल माल नक़दी ज़कात में तसर्रुफ़ कर सक्ते हैं या लोगों की मस्लिहत व ज़रूरत का ख़याल करके उनके मुनासिब हाल अश्या माली ज़कात से ख़रीद कर दे सकते हैं? इस मुआमले में उलमा के दरमियान इख़्तिलाफ़ नज़र आता है।
इस मुख़्तलफ़ फ़ीही मस्अले का जवाब जानने से पहले यह बताना ज़रूरी है कि जहां मुसलमान रहते हैं वहां मुसलमानों का इस्लामी ख़ज़ाना या बैतुल माल का वजूद होना चाहिए जिस से मुसलमानों में मौजूद ज़रूरतमन्दों की हाजात पूरी की जा सके जैसा कि हम अहेदे रिसालत व ख़िलाफ़त में देखते हैं मगर इस जानिब मुसलमानों में अद्म इत्तिहाद की वजह से बड़ी कोताही नज़र आती है ताहम कुछ लोग जमाअती सतह पर बैतुल माल या दीनी मराकिज़ के ज़रिए समाजी ख़िदमात अंजाम देते हैं जो कि क़ाबिले क़द्र है, मज़ीद इसमें बहतरी की ज़रूरत दरकार है और जो इन्फ़िरादी या इज्तिमाई तौर पर सदक़ात व अतिय्यात जमा करके ख़ियानत करते हैं उनकी इस्लाह भी होनी चाहिए।
अल्लामह सुयूती रहिमहुल्लाह ने तारीख़ अल-ख़ुलफ़ा में लिखा है कि इस्लामी हुकूमत के शुरू दौर में बैतुल माल का क़ियाम इस तरह नहीं था जिस तरह हज़रत उमर रज़ियल्लाहू अन्हु ने मुतआरिफ़ करवाया। मैं उनके दौर से यानी अहेदे फ़ारूक़ी से बैतुल माल की दो मुस्तनद मिसालें बयान करना चाहता हूं ताकि इन मिसालों से अपनी बात वाज़ेह कर सकूं।
(1) पहला वाक़िया सहीह बुख़ारी का है, ज़ैद बिन अस्लम रिवायत करते हैं, उन से उनके वालिद ने बयान किया कि मैं उमर बिन ख़त्ताब रज़ियल्लाहू अन्हु के साथ बाज़ार गया। उमर रज़ियल्लाहू अन्हु से एक नौजवान औरत ने मुलाक़ात की और अर्ज़ किया कि अमीरुल मुअ्मिनीन! मेरे शौहर की वफ़ात हो गई है और चंद छोटी छोटी बच्चियां छोड़ गए हैं। अल्लाह की क़सम कि अब ना उनके पास बकरी के पाए हैं कि उनको पका लें, ना खेती है, ना दूध के जानवर हैं। मुझे डर है कि वह फ़ुक़्र व फ़ाक़ा से हलाक ना हो जाएं। मैं ख़फ़ाफ़ बिन ईमा ग़िफ़्फ़ारी रज़ियल्लाहू अन्हु की बेटी हूं। मेरे वालिद नबी करीम ﷺ के साथ गज़वए हुदैबियह में शरीक थे। यह सुन कर उमर रज़ियल्लाहू अन्हु उनके पास थोड़ी देर के लिए खड़े हो गए, आगे नहीं बढ़े। फिर फ़रमाया, मरहबा, तुम्हारा ख़ानदानी ताल्लुक़ तो बहुत क़रीबी है। फिर आप एक बहुत क़वी ऊँट की तरफ़ मुड़े जो घर में बंधा हुवा था और उस पर दो बोरे ग़ल्ले से भरे हुए रख दिए। उन दोनों बोरों के दरमियान रुपया और दूसरी ज़रूरत की चीज़ें और कपड़े रख दिए और उसकी नकील उनके हाथ में थमा कर फ़रमाया कि इसे ले जा, यह ख़त्म ना होगा इससे पहले ही अल्लाह तआला तुझे इससे बेहतर देगा। एक साहिब ने इस पर कहा, ऐ अमीरुल मुअ्मिनीन! आप ने उसे बहुत दे दिया। उमर रज़ियल्लाहू अन्हु ने कहा, तेरी माँ तुझे रोए, अल्लाह की क़सम! इस औरत के वालिद और इसके भाई जैसे अब भी मेरी नज़रों के सामने हैं कि एक मुद्दत तक एक क़िला के मुहासरे में वह शरीक रहे, आख़िर उसे फ़त्ह कर लिया। फिर हम सुब्ह को उन दोनों का हिस्सा माले ग़नीमत से वसूल कर रहे थे। (सहीह अल-बुख़ारी: 4160)
(2) दूसरा वाक़िया मुख़्तलिफ़ कुतुबे तारीख़ व सिअर में दर्ज है जैसे तारीख़े तबरी, तारीख़े दिमश्क़ और फ़ज़ाइलुस्-सहाबा वग़ैरा और इसकी सनद हसन दर्जे की है। यह वाक़िया भी हज़रत उमर के ग़ुलाम अस्लम बयान करते हैं कि वह सय्यदना उमर के साथ हर्रा वाक़िम की तरफ़ निकले, ज़िरार के मक़ाम पर आग जल रही थी, हज़रत उमर ने कहा हो सकता हो यहां सवार डेरा डाला हो और सर्दी की वजह से आग जला रखी हो। क़रीब हुए तो देखा कि एक औरत के पास छोटे छोटे बच्चे रो रहे हैं और आग पर हंडिया चढाई हुई है। अलैक सलैक के बाद कुछ इस तरह गुफ़्तगू हुई।
उमर रज़ियल्लाहू अन्हु ने कहा: क्या हम क़रीब आ जाएं?
वह औरत बोली: अच्छे तरीक़े
से क़रीब आ जाएं या हमें छोड़ दें।
फिर जब हम क़रीब हुए तो उमर ने पूछा: तुम्हें क्या हुवा है?
उस औरत ने कहा: रात हो चुकी
है और सर्दी भी है।
उन्होंने पूछा: यह बच्चे क्यूं रो रहे हैं?
उस औरत ने जवाब दिया: भूक की वजह।
उन्होंने पूछा: हांडी में क्या चीज़ (पक रही) है?
उस औरत ने जवाब दिया: इसमें वह है जिसके साथ
मैं इन बच्चों को चकरा रही हूं ताकि वह सो जाएं। हमारे और उमर के दरमियान अल्लाह
है।
उमर रज़ियल्लाहू अन्हु ने फ़रमाया: अल्लाह तुझ पर रहम करे, उमर को तुम्हारे बारे में क्या पता है?
उस औरत ने कहा: उमर हमारा हाकिम है और फिर
हमसे ग़ाफ़िल रहता है?
सय्यदना उमर रज़ियल्लाहू अन्हु ने मेरी तरफ़
रुख़ करके फ़रमाया: चलो हमारे साथ, फिर हम भागते हुए उस जगह गए जहां आटा रखने का
स्टोर था। उन्होंने आटे की एक बोरी और चरबी का एक डब्बा निकाला और कहा: यह मुझ पर
लाद दो। मैंने कहा: आप के बजाए मैं इसे उठा लेता हूं।
उन्होंने कहा: तेरी माँ ना रहे, क्या तू क़ियामत के दिन मेरा वज़न उठाएगा?
लिहाज़ा मैंने यह वज़न आप पर लाद दिया और आप के
साथ चला, आप भागे भागे जा रहे थे, फिर आप ने यह सामान उस औरत के सामने डाल दिया
और थोड़ा सा आटा निकाल कर कहा:
मैं इसे हवा में अच्छाल कर साफ़ करता हूं, तुम इसमें मेरे साथ तआवुन करो।
वह हांडी के नीचे फूंकें (भी) मार रहे थे फिर हांडी को उतार दिया और कहा: कोई चीज़ ले आओ। वह एक बरतन ले आई तो उन्होंने इसे उस बरतन में उंडेल दिया और फिर उन से फ़रमाने लगे: तुम इन्हें खिलाओ और मैं इसे बिछाता हूं।
उन्होंने सैर होकर खा लिया और कुछ खाना बाक़ी भी रह गया।
उमर (रज़ियल्लाहू अन्हु) खड़े हो गए और मैं भी खड़ा हो गया फिर वह औरत कह रही थी:
अल्लाह तुझे जज़ाए ख़ैर दे: अमीरुल मोमिनीन (उमर रज़ियल्लाहू अन्हु) के बजाए तुझे साहिबे इक़्तिदार (ख़लीफ़ा) होना चाहिए था।
उन्होंने फ़रमाया: जब तुम अमीरुल मोमिनीन के पास जाओ तो अच्छी बात कहना और वहां मुझ से बात करना। इन शा अल्लाह
फिर आप पीछे हट गए और ज़ानों के बल बैठ गए। हमने कहा: हमारी तो दूसरी शान है।
आप मुझ से कोई कलाम नहीं कर रहे थे फिर मैंने बच्चों को उछलते कूदते और खेलते हुए देखा और बाद में वह सो गए तो उमर (रज़ियल्लाहू अन्हु) ने फ़रमाया: ऐ अस्लम! भूक ने इनकी नींद ख़त्म कर रखी थी और इन्हें रुला दिया था, लिहाज़ा मैंने यह देखना पसन्द किया जो मैंने देख लिया है। [ फ़ज़ाइलुस्-सहाबा ज.1, स.290-291, ह.382 व सनदुहु हसन। मन्क़ूल अज़ मक़ालात, जिल्द 6, स. 250-253 ब-तस्रिफ़े क़लील]
बैतुल माल के ज़रिए ज़रूरतमंद मुसलमानों की ज़रूरियात पूरी करने के बारे में इन दो वाक़िआत से बहुत सारे अस्बाक़ मिलते हैं। इन अस्बाक़ में मिनजुमला एक सबक़ यह मिलता है कि मुस्लिम मुल्क व मुआशरा में ज़रूरतमन्दों को उनकी ज़रूरत की चीज़ें फ़राहम करने के लिए बैतुल माल का इंतिज़ाम होना चाहिए ताकि इसके ज़रिए हाजतमन्दों की हाजत पूरी की जा सके। मिस्कीन से पूछने की ज़रूरत नहीं है कि आप को क्या चाहिए बल्कि ज़िम्मादार ख़ुद ही उनकी मुकम्मल मालूमात हासिल करे और हाजत व ज़रूरत के मुताबिक़ उनकी इमदाद करे, फ़ुक़रा व मसाकीन उमूमन शर्म व हया की वजह से अपनी ज़रूरत बयान नहीं कर सक्ते हैं, यह ज़िम्मेदारों का ही काम है। ऊपर आप ने पहले वाक़िया में पढ़ा कि एक बेवा औरत के पास चंद छोटी छोटी बच्चियां थीं, उनके पास खाने पीने और गुज़र बसर करने का कोई ज़रिया नहीं था तो वक़्त के हाकिम सय्यदना उमर रज़ियल्लाहू अन्हु ने उन्हें ज़रूरत की चीज़ें, कपड़े और रूपये दिए। इसी तरह दूसरे वाक़िया में आप ने पढ़ा कि ज़रूरतमंद औरत को हज़रत उमर ने पकाने की चीज़ें आटा और चरबी अता किया। क्या आज मुसलमानों में ऐसे लोग नहीं हैं जिन्हें ज़रूरत की चीज़ें चाहिए? देखा जाए तो ऐसे लोग बड़ी तादाद में मौजूद हैं मगर उनकी ज़रूरतों को पूरा करने वाला नहीं है, दो चंद हैं जो ऐसे ज़रूरतमन्दों को तलाश करते हैं और उनके लिए ज़रूरत की चीज़ें मुहय्या करते हैं।
अब आते हैं साइल के जवाब की तरफ़ और मज़कूरा बाला वाक़िआत से अंदाज़ा लगाते हैं कि क्या दीनी मराकिज़ या बैतुल माल ऐसे काम नहीं कर सक्ते हैं? तो इसका जवाब है कि बिल्कुल कर सक्ते हैं। यहां एक सवाल पैदा होता है कि इन इदारों के पास लोगों की ज़रूरियात पूरा करने के लिए ज़कात की नक़दी रक़ूम होती हैं। क्या ज़कात की नक़दी रक़ूम से ज़रूरतमन्दों के मुताबिक़ अश्या ख़ुर्द व नोश या कपड़े ख़रीद कर दिए जा सकते हैं?
इस सवाल के जवाब में मुताद्दिद उलमा के फ़तावा हैं जिन में कहा गया है कि माली ज़कात से कोई चीज़ ख़रीद कर हम नहीं दे सकते हैं, नक़दी माल ही मुस्तहिक़ को देना पड़ेगा, ख़ौफ़े तवालत की वजह से अद्म जवाज़ का फ़तवा नक़्ल नहीं कर हा हूं, जबकि बअ्ज़ उलमा यह भी कहते हैं कि मस्लिहत व ज़रूरत के तहत ज़रूरतमन्दों के दरमियान अश्या भी तक़्सीम की जा सक्ती हैं। शेख़ इब्न बाज़ रहिमहुल्लाह से सवाल किया गया कि हम लोग राशन और ज़रूरत की चीज़ें मसलन कम्बल और कपड़े वग़ैरा ज़कात के पैसों से ख़रीद कर बअ्ज़ ग़ुरबत ज़दा इस्लामी मुमालिक जैसे सूडान, अफ़्रीक़ा, अफ़ग़ानी मुजाहिदीन के लिए भेजते हैं ख़ुसूसन जब उन जगहों पर अश्या की क़ीमतें बढ़ जाती हैं या अश्या नहीं पाई जातीं। क्या यह सहीह हैं? तो शेख़ ने जवाब दिया:
ला मानेअ् मिन ज़ालिक बाद अत् ताकिद मिन सर्फ़िहा फ़िल् मुस्लिमीन (मज्मुअ् फ़तावा व मक़ालात इब्न बाज़ 14/246) यानी इसमें कोई हर्ज नहीं अगर इस बात पर यक़ीन कर लिया जाए कि यह मुसलमानों में ही तक़्सीम किया जाएगा। इस बारे में, मैं भी यही मौक़िफ़ रखता हूं कि ज़रूरत और मस्लिहत के तहत मुहताजों के दरमियान ज़कात के पैसों से ज़रूरत की चीज़ें ख़रीद कर देने में हर्ज नहीं है इस बात की ताकीद के साथ कि जहां पैसों की ज़रूरत हो वहां पैसे दिए जाएं।
पहली वजह: इस मौक़िफ़ की ताईद इसलिए करता हूं कि हमारे ज़कात की तक़्सीम में इस्लामी मुआशरा इफ़रात व तफ़रीत का शिकार है। अव्वलन: मुस्लिम समाज में इन्साफ़ के साथ ज़कात नहीं निकाली जाती। सानियन: ज़कात के जो अवाइले मुस्तहक़ीन हैं वह अक्सर ज़कात से महरूम रहते हैं क्योंकि ज़कात का अक्सर हिस्सा मसाजिद, मदारिस और मराकिज़ में जाता है जबकि यह नाम मसारिफ़े ज़कात में मज़्कूर ही नहीं। फिर ज़कात के इन पैसों का इस्तिमाल तामीर में, बिजली पानी में, खाने पीने में और ज़रूरत की तमाम चीज़ों में होता है।
इसलिए इस्लामी मुआशरे को ज़कात की तक़्सीम में ऐतदाल बरतना होगा ताकि जो अस्ल मुस्तहिक़ हैं उन तक ज़कात की रक़म पहुंचे और उनके इलावा जहां भी जवाज़ की सूरत निकलती है वहां भी तक़्सीम की जाए।
दूसरी वजह: एक दूसरी अहम बात यह है कि ज़कात की रक़म कम और ज़रूरतमंद ज़्यादा हैं फिर उन ज़रूरतमन्दों में उमूमन कम ही सरपरस्त मर्द हुवा करते हैं, मर्द होते भी हैं तो माज़ूर, लाग़िर व बीमार, मजनून वग़ैरा, अक्सर छोटे बच्चे और बच्चियां होती हैं, औरतें होती हैं, इनके लिए सहीह सामान ख़रीदना भी दुशवार और फिर कम पैसों में ज़रूरत की चीज़ नहीं ख़रीद सकते जबकि एक ज़िम्मेदार क़िस्म का आदमी बड़ी तादाद में सामान ख़रीदे तो कम क़ीमत पर मिलेगा और कसीर तादाद को फ़ाएदा होगा गोया इन्फ़िरादी ख़रीद पर माल का ज़्यादा ज़ियाअ् मालूम होता है जबकि इज्तिमाई तौर पर ख़रीदने में मुहताजों का फ़ाएदा है।
अल्लामह इब्न तैमियह रहिमहुल्लाह कहते हैं कि गाय, बकरी और फ़स्ल वग़ैरा की ज़कात बग़ैर किसी ज़रूरत और मस्लिहत के नक़दी की सूरत में देना मम्नूअ् है फिर इसकी वजह बताते हैं क्यूं मम्नूअ् है, मज़ीद आगे बताते हैं कि किसी ज़रूरत या मुस्बत मस्लिहत की बिना पर क़ीमत की सूरत में ज़कात अदा करने में कोई हर्ज नहीं है (मज्मुअ् अल फ़तावा 25/82)
इसी तरह शेख़ इब्न बाज़ रहिमहुल्लाह लिखते हैं कि अगर ज़कात के मुस्तहिक़ लोगों की मस्लिहत को सामने रखा जाए तो नक़दी रक़म की बजाए सामान, कपड़े और राशन वग़ैरा ख़रीद कर दिया जा सकता है और इसके लिए अश्याए ज़रूरत की क़ीमत को मद्दे नज़र रखा जाएगा, मिसाल के तौर पर ज़कात का मुस्तहिक़ शख़्स: पागल हो या कम अक़ल हो या ज़हनी तवाज़ुन दुरुस्त ना हो और यह डर हो कि अगर रक़म दी जाएगी तो सहीह जगह सर्फ़ नहीं कर सकेगा तो ऐसी सूरत में मस्लिहत का तक़ाज़ा यही है कि उसे राशन ख़रीद कर दिया जाए या ज़कात की क़ीमत के बराबर कपड़े लेकर दिए जाएं, यह मौक़िफ़ अहले इल्म के सहीह तरीन अक़वाल के मुताबिक़ है (फ़तावा इब्न बाज़: 14/253)
और शेख़ मुहम्मद बिन सॉलेह उसैमीन रहिमहुल्लाह पहले कहते हैं कि ज़कात अदा करने वाला शख़्स अपनी रक़म के बदले में चीज़ें नहीं दे सकता फिर कुछ आगे कहते हैं अगर आप को ख़दशा हो कि ग़रीब घराने को रक़म की शक्ल में ज़कात देने पर वह ग़ैर ज़रूरी अश्या में सर्फ़ कर देंगे तो आप घर के सरबराह यानी बाप, माँ, भाई, या चचा से बात करें और उन्हें कहें कि मेरे पास ज़कात की कुछ रक़म है तो आप हमें अपनी ज़रूरत की अश्या बतला दें, मैं ख़रीद कर आप को दे देता हूं, इस तरीक़े पर अमल करें तो यह जाइज़ होगा, और ज़कात अपनी सहीह जगह सर्फ़ होगी (मज्मुअ् फ़तावा इब्न उसैमीन: 18/सवाल नंबर: 643)
तीसरी वजह: रमज़ान के आख़िर में सदक़तुल् फ़ित्र निकालना वाजिब है और सदक़तुल् फ़ित्र ज़कात में से है नीज़ ग़ल्ला से यह ज़कात देनी है ताहम इस ज़कात के बारे में भी अक्सर उलमा की राए यह है कि फ़ुक़रा व मसाकीन की ज़रूरत व मस्लिहत की बिना पर नक़दी रक़म भी दे सकते हैं, बल्कि बअ्ज़ तो कहते हैं नक़दी फ़ित्रा ही देना चाहिए। जब हम ग़ल्ले वाली ज़कात में फ़ुक़रा की मस्लिहत देख कर रुपया दे सकते हैं तो माली ज़कात में क्यूं नहीं मस्लिहत देखी जा सक्ती है?
इन बातों के इलावा मज़ीद बातें इस मुआमले में क़ाबिले इअ़्तना हैं।
* ज़रूरत व मस्लिहत के नाम पर लोगों में ग़ैर ज़रूरी अश्या ना तक़्सीम की जाएं यानी वही अश्या तक़्सीम की जाएं, मुहताजों को जिनकी अस्लन ज़रूरत हो।
* बसा औक़ात सस्ते दामों पर डेट एक्सपायर और ख़राब सामान ख़रीद लिए जाते हैं, यह बहरहाल ग़लत है।
* कुछ मुहताज ऐसे भी हो सक्ते हैं जिन्हें सामान की नहीं पैसों की सख़्त ज़रूरत हो ऐसे लोगों की जानकारी हासिल करके पैसों से ही मदद की जाए।
* राशन के साथ कुछ पैसे भी दिए जाएं ताकि अगर मज़ीद कुछ ज़रूरत हो तो पूरी की जा सके जैसा कि आप ने ऊपर पहले वाक़िया में पढ़ा है कि हज़रत उमर ने सामान के साथ कुछ पैसे भी दिए।
इस मौज़ू का ख़ुलासा यह है कि जब एक मालदार आदमी ख़ुद से किसी मुस्तहिक़ को नक़दी रक़म की ज़कात देगा तो नक़द की सूरत में ही देगा, इसी तरह किसी बैतुल माल को नक़दी माल की ज़कात देगा तो भी नक़द में ही देगा और इस मालदार की तरफ़ से ज़कात अदा हो जाएगी। आगे बैतुल माल की ज़िम्मेदारी है कि लोगों के माल को मुस्तहिक़ों में जहां माल की ज़रूरत हो वहां माल और जहां मस्लिहत व ज़रूरते सामान का मुतक़ाज़ी हो वहां सामान तक़्सीम करे।
मालेगांव से फ़रीद अहमद साहिब मुझे लिखते हैं "आज कल ज़कात के माल से राशन किट तक़्सीम को लेकर मस्अला बताया जा रहा है कि ज़कात अदा नहीं होगी। यहां सवाल यह है कि अहले ख़ैर हज़रात जमाअत के बैतुल माल में अपनी ज़कात रक़म की शक्ल में अदा करते हैं और बैतुल माल के ज़िम्मेदारान हस्बे ज़रूरत व मौक़ा के मुस्तहिक़ अफ़राद को राशन किट, सर्दी के मौसम में कम्बल, बे-रोज़गार अफ़राद को ठेला गाड़ी या दीगर ज़राए से ज़रिया मआश का नज़्म करते हैं, बअ्ज़ हज़रात ईदैन के मौक़े पर नए कपड़े तक़्सीम करते हैं वग़ैरा। ऐसी सूरत में जमाअत के बैतुल माल के ज़िम्मेदारान को क्या रक़म के ज़रिए से ही इमदाद करना होगी या मुरव्वजा तरीक़े से भी इमदाद की जा सक्ती है जिसका ऊपर ज़िक्र किया गया है। बराहे करम इस सिलसिले में क़ुरआन व हदीस की रौशनी में दलाइल के साथ रहनुमाई फ़रमाएं। नवाज़िश होगी"।
इस सवाल का जवाब लिखने से पहले इससे मुताल्लिक़ मुख़्तलिफ़ उलमा के फ़तावा व आरा का गहराई से मुतालआ किया हूं और इस नतीजे पर पहुंचा कि इस मुआमले में कोई इख़्तिलाफ़ नहीं है कि साहिबे निसाब अपने नक़दी रक़म की ज़कात हर हाल में नक़दी सूरत में ही निकालेगा ख़्वाह वह बज़ाते ख़ुद मुस्तहिक़ को दे या नियाबत के लिए दीनी मराकिज़ और बैतुल माल को दे ताहम दीनी मराकिज़ और बैतुल माल नक़दी ज़कात में तसर्रुफ़ कर सक्ते हैं या लोगों की मस्लिहत व ज़रूरत का ख़याल करके उनके मुनासिब हाल अश्या माली ज़कात से ख़रीद कर दे सकते हैं? इस मुआमले में उलमा के दरमियान इख़्तिलाफ़ नज़र आता है।
इस मुख़्तलफ़ फ़ीही मस्अले का जवाब जानने से पहले यह बताना ज़रूरी है कि जहां मुसलमान रहते हैं वहां मुसलमानों का इस्लामी ख़ज़ाना या बैतुल माल का वजूद होना चाहिए जिस से मुसलमानों में मौजूद ज़रूरतमन्दों की हाजात पूरी की जा सके जैसा कि हम अहेदे रिसालत व ख़िलाफ़त में देखते हैं मगर इस जानिब मुसलमानों में अद्म इत्तिहाद की वजह से बड़ी कोताही नज़र आती है ताहम कुछ लोग जमाअती सतह पर बैतुल माल या दीनी मराकिज़ के ज़रिए समाजी ख़िदमात अंजाम देते हैं जो कि क़ाबिले क़द्र है, मज़ीद इसमें बहतरी की ज़रूरत दरकार है और जो इन्फ़िरादी या इज्तिमाई तौर पर सदक़ात व अतिय्यात जमा करके ख़ियानत करते हैं उनकी इस्लाह भी होनी चाहिए।
अल्लामह सुयूती रहिमहुल्लाह ने तारीख़ अल-ख़ुलफ़ा में लिखा है कि इस्लामी हुकूमत के शुरू दौर में बैतुल माल का क़ियाम इस तरह नहीं था जिस तरह हज़रत उमर रज़ियल्लाहू अन्हु ने मुतआरिफ़ करवाया। मैं उनके दौर से यानी अहेदे फ़ारूक़ी से बैतुल माल की दो मुस्तनद मिसालें बयान करना चाहता हूं ताकि इन मिसालों से अपनी बात वाज़ेह कर सकूं।
(1) पहला वाक़िया सहीह बुख़ारी का है, ज़ैद बिन अस्लम रिवायत करते हैं, उन से उनके वालिद ने बयान किया कि मैं उमर बिन ख़त्ताब रज़ियल्लाहू अन्हु के साथ बाज़ार गया। उमर रज़ियल्लाहू अन्हु से एक नौजवान औरत ने मुलाक़ात की और अर्ज़ किया कि अमीरुल मुअ्मिनीन! मेरे शौहर की वफ़ात हो गई है और चंद छोटी छोटी बच्चियां छोड़ गए हैं। अल्लाह की क़सम कि अब ना उनके पास बकरी के पाए हैं कि उनको पका लें, ना खेती है, ना दूध के जानवर हैं। मुझे डर है कि वह फ़ुक़्र व फ़ाक़ा से हलाक ना हो जाएं। मैं ख़फ़ाफ़ बिन ईमा ग़िफ़्फ़ारी रज़ियल्लाहू अन्हु की बेटी हूं। मेरे वालिद नबी करीम ﷺ के साथ गज़वए हुदैबियह में शरीक थे। यह सुन कर उमर रज़ियल्लाहू अन्हु उनके पास थोड़ी देर के लिए खड़े हो गए, आगे नहीं बढ़े। फिर फ़रमाया, मरहबा, तुम्हारा ख़ानदानी ताल्लुक़ तो बहुत क़रीबी है। फिर आप एक बहुत क़वी ऊँट की तरफ़ मुड़े जो घर में बंधा हुवा था और उस पर दो बोरे ग़ल्ले से भरे हुए रख दिए। उन दोनों बोरों के दरमियान रुपया और दूसरी ज़रूरत की चीज़ें और कपड़े रख दिए और उसकी नकील उनके हाथ में थमा कर फ़रमाया कि इसे ले जा, यह ख़त्म ना होगा इससे पहले ही अल्लाह तआला तुझे इससे बेहतर देगा। एक साहिब ने इस पर कहा, ऐ अमीरुल मुअ्मिनीन! आप ने उसे बहुत दे दिया। उमर रज़ियल्लाहू अन्हु ने कहा, तेरी माँ तुझे रोए, अल्लाह की क़सम! इस औरत के वालिद और इसके भाई जैसे अब भी मेरी नज़रों के सामने हैं कि एक मुद्दत तक एक क़िला के मुहासरे में वह शरीक रहे, आख़िर उसे फ़त्ह कर लिया। फिर हम सुब्ह को उन दोनों का हिस्सा माले ग़नीमत से वसूल कर रहे थे। (सहीह अल-बुख़ारी: 4160)
(2) दूसरा वाक़िया मुख़्तलिफ़ कुतुबे तारीख़ व सिअर में दर्ज है जैसे तारीख़े तबरी, तारीख़े दिमश्क़ और फ़ज़ाइलुस्-सहाबा वग़ैरा और इसकी सनद हसन दर्जे की है। यह वाक़िया भी हज़रत उमर के ग़ुलाम अस्लम बयान करते हैं कि वह सय्यदना उमर के साथ हर्रा वाक़िम की तरफ़ निकले, ज़िरार के मक़ाम पर आग जल रही थी, हज़रत उमर ने कहा हो सकता हो यहां सवार डेरा डाला हो और सर्दी की वजह से आग जला रखी हो। क़रीब हुए तो देखा कि एक औरत के पास छोटे छोटे बच्चे रो रहे हैं और आग पर हंडिया चढाई हुई है। अलैक सलैक के बाद कुछ इस तरह गुफ़्तगू हुई।
उमर रज़ियल्लाहू अन्हु ने कहा: क्या हम क़रीब आ जाएं?
फिर जब हम क़रीब हुए तो उमर ने पूछा: तुम्हें क्या हुवा है?
उन्होंने पूछा: यह बच्चे क्यूं रो रहे हैं?
उन्होंने पूछा: हांडी में क्या चीज़ (पक रही) है?
उमर रज़ियल्लाहू अन्हु ने फ़रमाया: अल्लाह तुझ पर रहम करे, उमर को तुम्हारे बारे में क्या पता है?
उन्होंने कहा: तेरी माँ ना रहे, क्या तू क़ियामत के दिन मेरा वज़न उठाएगा?
मैं इसे हवा में अच्छाल कर साफ़ करता हूं, तुम इसमें मेरे साथ तआवुन करो।
वह हांडी के नीचे फूंकें (भी) मार रहे थे फिर हांडी को उतार दिया और कहा: कोई चीज़ ले आओ। वह एक बरतन ले आई तो उन्होंने इसे उस बरतन में उंडेल दिया और फिर उन से फ़रमाने लगे: तुम इन्हें खिलाओ और मैं इसे बिछाता हूं।
उन्होंने सैर होकर खा लिया और कुछ खाना बाक़ी भी रह गया।
उमर (रज़ियल्लाहू अन्हु) खड़े हो गए और मैं भी खड़ा हो गया फिर वह औरत कह रही थी:
अल्लाह तुझे जज़ाए ख़ैर दे: अमीरुल मोमिनीन (उमर रज़ियल्लाहू अन्हु) के बजाए तुझे साहिबे इक़्तिदार (ख़लीफ़ा) होना चाहिए था।
उन्होंने फ़रमाया: जब तुम अमीरुल मोमिनीन के पास जाओ तो अच्छी बात कहना और वहां मुझ से बात करना। इन शा अल्लाह
फिर आप पीछे हट गए और ज़ानों के बल बैठ गए। हमने कहा: हमारी तो दूसरी शान है।
आप मुझ से कोई कलाम नहीं कर रहे थे फिर मैंने बच्चों को उछलते कूदते और खेलते हुए देखा और बाद में वह सो गए तो उमर (रज़ियल्लाहू अन्हु) ने फ़रमाया: ऐ अस्लम! भूक ने इनकी नींद ख़त्म कर रखी थी और इन्हें रुला दिया था, लिहाज़ा मैंने यह देखना पसन्द किया जो मैंने देख लिया है। [ फ़ज़ाइलुस्-सहाबा ज.1, स.290-291, ह.382 व सनदुहु हसन। मन्क़ूल अज़ मक़ालात, जिल्द 6, स. 250-253 ब-तस्रिफ़े क़लील]
बैतुल माल के ज़रिए ज़रूरतमंद मुसलमानों की ज़रूरियात पूरी करने के बारे में इन दो वाक़िआत से बहुत सारे अस्बाक़ मिलते हैं। इन अस्बाक़ में मिनजुमला एक सबक़ यह मिलता है कि मुस्लिम मुल्क व मुआशरा में ज़रूरतमन्दों को उनकी ज़रूरत की चीज़ें फ़राहम करने के लिए बैतुल माल का इंतिज़ाम होना चाहिए ताकि इसके ज़रिए हाजतमन्दों की हाजत पूरी की जा सके। मिस्कीन से पूछने की ज़रूरत नहीं है कि आप को क्या चाहिए बल्कि ज़िम्मादार ख़ुद ही उनकी मुकम्मल मालूमात हासिल करे और हाजत व ज़रूरत के मुताबिक़ उनकी इमदाद करे, फ़ुक़रा व मसाकीन उमूमन शर्म व हया की वजह से अपनी ज़रूरत बयान नहीं कर सक्ते हैं, यह ज़िम्मेदारों का ही काम है। ऊपर आप ने पहले वाक़िया में पढ़ा कि एक बेवा औरत के पास चंद छोटी छोटी बच्चियां थीं, उनके पास खाने पीने और गुज़र बसर करने का कोई ज़रिया नहीं था तो वक़्त के हाकिम सय्यदना उमर रज़ियल्लाहू अन्हु ने उन्हें ज़रूरत की चीज़ें, कपड़े और रूपये दिए। इसी तरह दूसरे वाक़िया में आप ने पढ़ा कि ज़रूरतमंद औरत को हज़रत उमर ने पकाने की चीज़ें आटा और चरबी अता किया। क्या आज मुसलमानों में ऐसे लोग नहीं हैं जिन्हें ज़रूरत की चीज़ें चाहिए? देखा जाए तो ऐसे लोग बड़ी तादाद में मौजूद हैं मगर उनकी ज़रूरतों को पूरा करने वाला नहीं है, दो चंद हैं जो ऐसे ज़रूरतमन्दों को तलाश करते हैं और उनके लिए ज़रूरत की चीज़ें मुहय्या करते हैं।
अब आते हैं साइल के जवाब की तरफ़ और मज़कूरा बाला वाक़िआत से अंदाज़ा लगाते हैं कि क्या दीनी मराकिज़ या बैतुल माल ऐसे काम नहीं कर सक्ते हैं? तो इसका जवाब है कि बिल्कुल कर सक्ते हैं। यहां एक सवाल पैदा होता है कि इन इदारों के पास लोगों की ज़रूरियात पूरा करने के लिए ज़कात की नक़दी रक़ूम होती हैं। क्या ज़कात की नक़दी रक़ूम से ज़रूरतमन्दों के मुताबिक़ अश्या ख़ुर्द व नोश या कपड़े ख़रीद कर दिए जा सकते हैं?
इस सवाल के जवाब में मुताद्दिद उलमा के फ़तावा हैं जिन में कहा गया है कि माली ज़कात से कोई चीज़ ख़रीद कर हम नहीं दे सकते हैं, नक़दी माल ही मुस्तहिक़ को देना पड़ेगा, ख़ौफ़े तवालत की वजह से अद्म जवाज़ का फ़तवा नक़्ल नहीं कर हा हूं, जबकि बअ्ज़ उलमा यह भी कहते हैं कि मस्लिहत व ज़रूरत के तहत ज़रूरतमन्दों के दरमियान अश्या भी तक़्सीम की जा सक्ती हैं। शेख़ इब्न बाज़ रहिमहुल्लाह से सवाल किया गया कि हम लोग राशन और ज़रूरत की चीज़ें मसलन कम्बल और कपड़े वग़ैरा ज़कात के पैसों से ख़रीद कर बअ्ज़ ग़ुरबत ज़दा इस्लामी मुमालिक जैसे सूडान, अफ़्रीक़ा, अफ़ग़ानी मुजाहिदीन के लिए भेजते हैं ख़ुसूसन जब उन जगहों पर अश्या की क़ीमतें बढ़ जाती हैं या अश्या नहीं पाई जातीं। क्या यह सहीह हैं? तो शेख़ ने जवाब दिया:
ला मानेअ् मिन ज़ालिक बाद अत् ताकिद मिन सर्फ़िहा फ़िल् मुस्लिमीन (मज्मुअ् फ़तावा व मक़ालात इब्न बाज़ 14/246) यानी इसमें कोई हर्ज नहीं अगर इस बात पर यक़ीन कर लिया जाए कि यह मुसलमानों में ही तक़्सीम किया जाएगा। इस बारे में, मैं भी यही मौक़िफ़ रखता हूं कि ज़रूरत और मस्लिहत के तहत मुहताजों के दरमियान ज़कात के पैसों से ज़रूरत की चीज़ें ख़रीद कर देने में हर्ज नहीं है इस बात की ताकीद के साथ कि जहां पैसों की ज़रूरत हो वहां पैसे दिए जाएं।
पहली वजह: इस मौक़िफ़ की ताईद इसलिए करता हूं कि हमारे ज़कात की तक़्सीम में इस्लामी मुआशरा इफ़रात व तफ़रीत का शिकार है। अव्वलन: मुस्लिम समाज में इन्साफ़ के साथ ज़कात नहीं निकाली जाती। सानियन: ज़कात के जो अवाइले मुस्तहक़ीन हैं वह अक्सर ज़कात से महरूम रहते हैं क्योंकि ज़कात का अक्सर हिस्सा मसाजिद, मदारिस और मराकिज़ में जाता है जबकि यह नाम मसारिफ़े ज़कात में मज़्कूर ही नहीं। फिर ज़कात के इन पैसों का इस्तिमाल तामीर में, बिजली पानी में, खाने पीने में और ज़रूरत की तमाम चीज़ों में होता है।
इसलिए इस्लामी मुआशरे को ज़कात की तक़्सीम में ऐतदाल बरतना होगा ताकि जो अस्ल मुस्तहिक़ हैं उन तक ज़कात की रक़म पहुंचे और उनके इलावा जहां भी जवाज़ की सूरत निकलती है वहां भी तक़्सीम की जाए।
दूसरी वजह: एक दूसरी अहम बात यह है कि ज़कात की रक़म कम और ज़रूरतमंद ज़्यादा हैं फिर उन ज़रूरतमन्दों में उमूमन कम ही सरपरस्त मर्द हुवा करते हैं, मर्द होते भी हैं तो माज़ूर, लाग़िर व बीमार, मजनून वग़ैरा, अक्सर छोटे बच्चे और बच्चियां होती हैं, औरतें होती हैं, इनके लिए सहीह सामान ख़रीदना भी दुशवार और फिर कम पैसों में ज़रूरत की चीज़ नहीं ख़रीद सकते जबकि एक ज़िम्मेदार क़िस्म का आदमी बड़ी तादाद में सामान ख़रीदे तो कम क़ीमत पर मिलेगा और कसीर तादाद को फ़ाएदा होगा गोया इन्फ़िरादी ख़रीद पर माल का ज़्यादा ज़ियाअ् मालूम होता है जबकि इज्तिमाई तौर पर ख़रीदने में मुहताजों का फ़ाएदा है।
अल्लामह इब्न तैमियह रहिमहुल्लाह कहते हैं कि गाय, बकरी और फ़स्ल वग़ैरा की ज़कात बग़ैर किसी ज़रूरत और मस्लिहत के नक़दी की सूरत में देना मम्नूअ् है फिर इसकी वजह बताते हैं क्यूं मम्नूअ् है, मज़ीद आगे बताते हैं कि किसी ज़रूरत या मुस्बत मस्लिहत की बिना पर क़ीमत की सूरत में ज़कात अदा करने में कोई हर्ज नहीं है (मज्मुअ् अल फ़तावा 25/82)
इसी तरह शेख़ इब्न बाज़ रहिमहुल्लाह लिखते हैं कि अगर ज़कात के मुस्तहिक़ लोगों की मस्लिहत को सामने रखा जाए तो नक़दी रक़म की बजाए सामान, कपड़े और राशन वग़ैरा ख़रीद कर दिया जा सकता है और इसके लिए अश्याए ज़रूरत की क़ीमत को मद्दे नज़र रखा जाएगा, मिसाल के तौर पर ज़कात का मुस्तहिक़ शख़्स: पागल हो या कम अक़ल हो या ज़हनी तवाज़ुन दुरुस्त ना हो और यह डर हो कि अगर रक़म दी जाएगी तो सहीह जगह सर्फ़ नहीं कर सकेगा तो ऐसी सूरत में मस्लिहत का तक़ाज़ा यही है कि उसे राशन ख़रीद कर दिया जाए या ज़कात की क़ीमत के बराबर कपड़े लेकर दिए जाएं, यह मौक़िफ़ अहले इल्म के सहीह तरीन अक़वाल के मुताबिक़ है (फ़तावा इब्न बाज़: 14/253)
और शेख़ मुहम्मद बिन सॉलेह उसैमीन रहिमहुल्लाह पहले कहते हैं कि ज़कात अदा करने वाला शख़्स अपनी रक़म के बदले में चीज़ें नहीं दे सकता फिर कुछ आगे कहते हैं अगर आप को ख़दशा हो कि ग़रीब घराने को रक़म की शक्ल में ज़कात देने पर वह ग़ैर ज़रूरी अश्या में सर्फ़ कर देंगे तो आप घर के सरबराह यानी बाप, माँ, भाई, या चचा से बात करें और उन्हें कहें कि मेरे पास ज़कात की कुछ रक़म है तो आप हमें अपनी ज़रूरत की अश्या बतला दें, मैं ख़रीद कर आप को दे देता हूं, इस तरीक़े पर अमल करें तो यह जाइज़ होगा, और ज़कात अपनी सहीह जगह सर्फ़ होगी (मज्मुअ् फ़तावा इब्न उसैमीन: 18/सवाल नंबर: 643)
तीसरी वजह: रमज़ान के आख़िर में सदक़तुल् फ़ित्र निकालना वाजिब है और सदक़तुल् फ़ित्र ज़कात में से है नीज़ ग़ल्ला से यह ज़कात देनी है ताहम इस ज़कात के बारे में भी अक्सर उलमा की राए यह है कि फ़ुक़रा व मसाकीन की ज़रूरत व मस्लिहत की बिना पर नक़दी रक़म भी दे सकते हैं, बल्कि बअ्ज़ तो कहते हैं नक़दी फ़ित्रा ही देना चाहिए। जब हम ग़ल्ले वाली ज़कात में फ़ुक़रा की मस्लिहत देख कर रुपया दे सकते हैं तो माली ज़कात में क्यूं नहीं मस्लिहत देखी जा सक्ती है?
इन बातों के इलावा मज़ीद बातें इस मुआमले में क़ाबिले इअ़्तना हैं।
* ज़रूरत व मस्लिहत के नाम पर लोगों में ग़ैर ज़रूरी अश्या ना तक़्सीम की जाएं यानी वही अश्या तक़्सीम की जाएं, मुहताजों को जिनकी अस्लन ज़रूरत हो।
* बसा औक़ात सस्ते दामों पर डेट एक्सपायर और ख़राब सामान ख़रीद लिए जाते हैं, यह बहरहाल ग़लत है।
* कुछ मुहताज ऐसे भी हो सक्ते हैं जिन्हें सामान की नहीं पैसों की सख़्त ज़रूरत हो ऐसे लोगों की जानकारी हासिल करके पैसों से ही मदद की जाए।
* राशन के साथ कुछ पैसे भी दिए जाएं ताकि अगर मज़ीद कुछ ज़रूरत हो तो पूरी की जा सके जैसा कि आप ने ऊपर पहले वाक़िया में पढ़ा है कि हज़रत उमर ने सामान के साथ कुछ पैसे भी दिए।
इस मौज़ू का ख़ुलासा यह है कि जब एक मालदार आदमी ख़ुद से किसी मुस्तहिक़ को नक़दी रक़म की ज़कात देगा तो नक़द की सूरत में ही देगा, इसी तरह किसी बैतुल माल को नक़दी माल की ज़कात देगा तो भी नक़द में ही देगा और इस मालदार की तरफ़ से ज़कात अदा हो जाएगी। आगे बैतुल माल की ज़िम्मेदारी है कि लोगों के माल को मुस्तहिक़ों में जहां माल की ज़रूरत हो वहां माल और जहां मस्लिहत व ज़रूरते सामान का मुतक़ाज़ी हो वहां सामान तक़्सीम करे।