بدھ، 7 اگست، 2024

तलाक की इद्दत पूरी नही करना

बाज़ (कुछ) बे-दीनी या मग़रिबी तहज़ीब (पश्चिमी सभ्यता) से मुतासिर (प्रभावित) औरतें तलाक की इद्दत पूरी नही करतीं। इस्लाम में ऐसी औरत की क्या सज़ा है?

जवाब: अगर किसी मुस्लिम औरत ने शौहर के तलाक़ देने के बाद इद्दत नहीं पूरी की, तो वह इस्लाम की अहम तालीम (शिक्षा) के ख़िलाफ़-वर्ज़ी करती है। ऐसी स्थिति में, उसे सच्चे दिल से अल्लाह तआला से तौबा करनी चाहिए, वरना आख़िरत में उसकी पूछ होगी। हाँ, अगर भूल से या जानबूझकर कुछ दिनों की इद्दत नहीं पूरी की तो अल्लाह अपनी रहमत से माफ़ कर देगा और उसकी कोई क़ज़ा भी नहीं है। इद्दत के दिनों के बीत जाने के बाद उसकी कोई क़ज़ा नहीं है।
यहां एक अहम मामला है कि अगर किसी औरत को तलाक़ की इद्दत (तीन हाइज़) पूरी करनी थी, और उसने इद्दत न पूरी करके उसी दौरान किसी दूसरे मर्द से शादी कर ली, तो यह शादी हराम और बातिल है। अल्लाह का फ़रमान है:
 وَلا تَعْزِمُوا عُقْدَةَ النِّكَاحِ حَتَّى يَبْلُغَ الْكِتَابُ أَجَلَهُ (البقرة: 235)
तर्जुमा: और शादी का इक़रार तब तक पक्का न करो जब तक इद्दत पूरी न हो जाए।
ऐसे जोड़े का एक साथ रहना हराम और ज़िना शुमार होगा। मुसलमान काज़ी/ज़िम्मेदार को चाहिए कि इन दोनों के बीच तफ़रीक़ (अलेहदगी) कर दे। फिर औरत पहले शौहर की बाक़ी इद्दत पूरी करे और फिर दूसरे बातिल शादी की भी इद्दत पूरी करे। हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु ऐसे लोगों को कोड़े लगाते थे। 
~शैख़ मक़बूल अहमद सलफ़ी हाफ़िज़ाहुल्लाह

सवाल: अल्लाह के अलावा दिल में किसी और का डर पैदा होने से क्या शिर्क हो जाता है?

 सवाल: अल्लाह के अलावा दिल में किसी और का डर पैदा होने से क्या शिर्क हो जाता है?

जवाब: अल्लाह का डर और उसका ख़ौफ़ इबादत है। बंदा जितना अल्लाह से डरने वाला होगा, अल्लाह का उतना ही क़रीबी और महबूब होगा। अल्लाह ने इंसान को सिर्फ़ उससे डरने का हुक्म दिया है। फ़रमाने इलाही है:
واياي فارهبون
तर्जुमा: और मुझ ही से डरो। (अल बक़रा: 40)
अल्लाह का फ़रमान है:
يا أيها الذين آمنوا اتقوا الله وقولوا قولا سديدا. (الاحزاب: 70)
तर्जुमा: ऐ ईमान वालों! अल्लाह से डरते रहो और बात साफ़-सुथरी किया करो।
एक दूसरी जगह इरशाद रब्बानी है:
فلا تخشوا الناس واخشون ولا تشتروا بآياتي ثمنا قليلا.
तर्जुमा: अब तुम्हें चाहिए कि लोगों से न डरो और सिर्फ़ मेरा डर रखो। मेरी आयतों को थोड़े से मोल न बेचो। (अल माइदा: 44)
यह डर और ख़ौफ़ अल्लाह से अपनी बिसात-भर होना चाहिए, जैसा कि अल्लाह का फ़रमान है:
يا أيها الذين آمنوا اتقوا الله حق تقاته ولا تموتن إلا وأنتم مسلمون. (آل عمران: 102)
तर्जुमा: ऐ ईमान वालों! अल्लाह से इतना डरो जितना उससे डरना चाहिए। देखो, मरते दम तक मुसलमान ही रहना।
गोया डरने का मुस्तहिक़ सिर्फ़ अल्लाह है। उसके मुक़ाबले में किसी से डरना इबादत में शिर्क कहलाएगा। उसकी दो सूरतें बन सकती हैं:
(1) बंदों से डर कर दीन पर अमल करना छोड़ दे।
(2) ग़ैरुल्लाह से इस तरह डरना या डरने का अक़ीदा रखना कि वह अल्लाह के बग़ैर ख़ुद से नुक़सान पहुंचा सकता है। मिसाल के तौर पर बुत, वली, जिन्न, मय्यत और ख़्याली भटकती रूहे वग़ैरह।
इस बात का ज़िक्र अल्लाह ने क़ुरआन में इस अंदाज में किया है:
انما ذلكم الشيطان يخوف أولياءه فلا تخافوهم وخافون إن كنتم مؤمنين. (آل عمران: 175)
तर्जुमा: यह ख़बर देने वाला शैतान ही है जो अपने दोस्तों से डराता है। तुम उन काफ़िरों से न डरो और मेरा ख़ौफ़ रखो अगर तुम मोमिन हो।
इसलिए किसी सूरत में अल्लाह के अलावा दिल में दूसरों का डर नहीं पैदा किया जाएगा। फ़ायदा और नुक़सान का मालिक सिर्फ़ अल्लाह है। अल्लाह के हुक्म के बग़ैर कोई हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता।
फ़रमान-ए-इलाही है:
وإن يمسسك الله بضر فلا كاشف إلا هو وإن يمسسك بخير فهو على كل شيء قدير. (الأنعام: 17)
तर्जुमा: अगर अल्लाह तुम्हें किसी क़िस्म का नुक़सान पहुंचाए तो उसके सिवा कोई नहीं जो तुम्हें इस नुक़सान से बचा सके और अगर वह तुम्हें किसी भलाई से बहरा-मंद करे तो वह हर चीज़ पर क़ादिर है।
ख़ौफ़ बेचैनी का नाम है जो बंदा के दिल में फ़राइज़ और वाजिबात में कोताही और गुनाह के इर्तिकाब पर पैदा होती है। इसी तरह बंदा ताअत करके अदम-ए-क़बूलियत के ख़दशे से भी डरता रहता है।
हां, तब्बा'ई ख़ौफ़ उस ख़ौफ़ से अलग है। वह फ़ितरी चीज़ है, जैसे सांप को देखकर, दरिंदों को देखकर इंसान डर जाता है। यह डर अल्लाह के मुक़ाबले में नहीं होता है। यह सिर्फ़ फ़ितरी एहसास होता है, जैसा कि मूसा अलैहिस्सलाम सांप से डर गए। अल्लाह का फ़रमान है:
وألق عصاك فلما رآها تهتز كأنها جان ولى مدبرا ولم يعقب يا موسى لا تخف إني لا يخاف لدي المرسلون. (النمل: 10)
तर्जुमा: तू अपनी लाठी डाल दे। मूसा ने जब उसे हिलता देखा, इस तरह कि गोया वह एक सांप है, तो मुंह मोड़े हुए पीठ फेरकर भागे और पलटकर भी न देखा। ऐ मूसा! ख़ौफ़ न खा, मेरे हुज़ूर में पैगंबर डरा नहीं करते।
अल्लाह से डरने का बदला जन्नत है। अल्लाह का फ़रमान है:
وأما من خاف مقام ربه ونهى النفس عن الهوى فإن الجنة هي المأوى. (النازعات: 40-41)
तर्जुमा: हां, जो शख़्स अपने रब के सामने खड़े होने से डरता रहा होगा और अपने नफ़्स को ख़्वाहिश से रोका होगा, तो उसका ठिकाना जन्नत ही है।
अल्लाह हमें ख़ौफ़ और ख़शियत की सिफ़त से मुत्तसिफ़ कर दे। आमीन।
~ शैख़ मक़बूल अहमद सलफ़ी हाफ़िज़ाहुल्लाह

मेले ठैले मे जाना कैसा है?

 मेले ठैले मे जाना कैसा है? 

सवाल: क्या ख़रीद और बिक्री की ग़रज़ (मक़सद) से या ऐसे ही घूमने की ग़र्ज़ से हिंदुओं के मेले-ठेले, जैसे दशहरा, पूर्णिमा, छठ वग़ैरह में जा सकते हैं? और दीगर मेलों का क्या हुक्म है?
जवाब: अगर कोई तिजारती मेला हो, जैसे किताबों का मेला, तिजारती सामान की नुमाइश, तो उनमें जाने में कोई हरज नहीं है, लेकिन जो हिंदुओं का धार्मिक मेला हो, उसमें किसी ग़रज़ से जाना जाइज़ नहीं, चाहे तिजारत की ग़रज़ से ही क्यों न हो, क्योंकि उस जगह ग़ैरुल्लाह की इबादत की जाती है, सैंकड़ों क़िस्म के शिर्की काम अंजाम दिए जाते हैं। किसी मुसलमान के लिए जाइज़ नहीं कि वह शिर्क वाली जगह पर जाए। अल्लाह का फ़रमान है:
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا إِنَّمَا الْخَمْرُ‌ وَالْمَيْسِرُ‌ وَالْأَنصَابُ وَالْأَزْلَامُ رِ‌جْسٌ مِّنْ عَمَلِ الشَّيْطَانِ فَاجْتَنِبُوهُ لَعَلَّكُمْ تُفْلِحُونَ ﴿المائدۃ:٩٠﴾
तर्जुमा: "ऐ ईमान वालो, बेशक शराब, जुआ, मूर्तियां और पासे शैतान के गंदे कामों में से हैं। इससे बचो ताकि तुम कामयाब हो जाओ।" 
यह ज़ालिम क़ौम है, ऐसी क़िस्म के साथ ऐसी जगह में जमा होना मना है। अल्लाह फ़रमाता है:
وَاِمَّا يُنْسِيَنَّكَ الشَّيْطَانُ فَلَا تَقْعُدْ بَعْدَ الذِّكْرٰى مَعَ الْقَوْمِ الظَّالِمِيْنَ ﴿الانعام :٦٨﴾
तर्जुमा: "और अगर तुम्हें शैतान भुला दे, तो याद आ जाने के बाद ज़ालिमों के पास न बैठो।"
हिंदू के मेले में शिर्कत, शिर्किया अमल और काम मे मदद शुमार होगी। अल्लाह का फ़रमान है:
وَتَعَاوَنُوْا عَلَى الْبِرِّ وَالتَّقْوٰى ۖ وَلَا تَعَاوَنُوْا عَلَى الْاِثْمِ وَالْعُدْوَانِ ۚ وَاتَّقُوا اللّٰهَ ۖ اِنَّ اللّٰهَ شَدِيْدُ الْعِقَابِ(المائدۃ : 2)
तर्जुमा: "और आपस में नेक काम और परहेज़गारी पर मदद करो, और गुनाह और ज़ुल्म पर मदद न करो, और अल्लाह से डरो, बेशक अल्लाह सख़्त अज़ाब देने वाला है।" 
कोई भी ऐसी जगह जहाँ मुंकिर हो, वहाँ नहीं जाना चाहिए। सही हदीस में है कि एक बार अली रज़ियल्लाहु अन्हु ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को दावत दी, आप आए और घर में तस्वीरें देखीं तो लौट गए। हदीस देखें:
صنعتُ طعامًا فدعوتُ رسولَ اللَّهِ صلَّى اللَّهُ عليْهِ وسلَّمَ فجاءَ فرأى في البيتِ تصاويرَ فرجَع( صحيح ابن ماجه:2724)
तर्जुमा: "मैंने खाना बनाया और रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को दावत दी, वह आए और घर में तस्वीरें देखीं तो लौट गए।" 
यह तस्वीरों का मामला था, तो फिर जहाँ सैंकड़ों शिर्किया काम होते हों, वहाँ जाना कैसे जाइज़ हो सकता है?
इसी तरह बरेलवियों के उर्स वाले मेलों में भी जाना जाइज़ नहीं, क्योंकि उन्होंने क़ब्रों को सजदा गाह बना लिया है। नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इससे मना फ़रमाया है:
لا تجعلوا بيوتَكُم قبورًا، ولا تجعلوا قَبري عيدًا، وصلُّوا عليَّ فإنَّ صلاتَكُم تبلغُني حَيثُ كنتُمْ( صحيح أبي داود:2042)
तर्जुमा: "अपने घरों को क़ब्रिस्तान न बनाओ, और न ही मेरी क़ब्र को ईद (मेले की जगह) बनाओ, और मुझ पर दरूद भेजो, तुम्हारा दरूद मुझ तक पहुँच जाता है जहाँ से भी भेजो।" 
हमें अगर कहीं मुंकिर का काम मिले, तो उसमें शिर्कत करने और उसका त'आवुन करने से परहेज़ करना चाहिए, बल्कि हमें उसे मिटाने की कोशिश करनी चाहिए। यही हमारा दावती फ़र्ज़ और ईमान का हिस्सा है।
~ शैख़ मक़बूल अहमद सलफ़ी हाफ़िज़ाहुल्लाह

औरत और मर्द की नमाज़ मे कोई फ़र्क़ नही

 औरत और मर्द की नमाज़ मे कोई फ़र्क़ नही 
तहरीर: शैख़ मक़बूल अहमद सलफ़ी हाफ़िज़ाहुल्लाह 
हिंदी मुतर्जिम: हसन फ़ुज़ैल 

अवाम (आम जनता) में यह मशहूर हो गया है कि औरतों की नमाज़ मर्दों से अलग है जबकि हक़ीक़त यह है कि औरतों की नमाज़ हूबहू वैसी ही है जैसी मर्दों की है यानी औरतें भी उसी कैफ़ियत में नमाज़ अदा करें जिस कैफ़ियत में मर्द अदा करता है। इस बात को नुसूस की रोशनी में वाज़ेह करूँगा ताकि आपको यक़ीन हो सके कि वाक़ई औरतों को भी मर्दों की तरह ही नमाज़ अदा करना है। 
इस बारे में सबसे पहले तजुर्बा और मुशाहिदा पेश करके अक़्ली तौर पर दलाईल को समझने के लिए तैयार करना चाहता हूँ। वह यह है कि हमारे समाज में औरतों की अलग नमाज़ का तसव्वुर और रिवाज बाद की पैदा-वार है, जब से लोगों ने मुहम्मद ﷺ को छोड़कर दूसरों को अपना इमाम बनाना और उनकी तक़लीद करना शुरू किया तब से तक़लीदी फ़िरक़ों की औरतें मर्दों से मुख़्तलिफ़ नमाज़ अदा करती हैं क्योंकि मुक़ल्लिद उलमा ने औरतों के लिए सिमट कर नमाज़ पढ़ने का मुकम्मल मुख़्तस मस्नूई तरीक़ा ईजाद कर रखा है। औरतों का हाथ उठाना, हाथ बांधना, रुकू करना, सजदा करना, क़ा'दा करना सब कुछ मर्दों से अलग बनाया है जबकि हम में से अक्सर लोगों ने हरमैन शरीफ़ैन की ज़ियारत की है, वहाँ पर अरब ख़वातीन को मर्दों की तरह नमाज़ पढ़ते हुए देखा है। 
 
ये अरब ख़वातीन ने पैगंबर 'अहद रसूल और अहद सहाबा से ही मर्दों की तरह नमाज़ पढ़ते हुए आ रही हैं। यहीं इस्लाम पहले आया और यहीं से इस्लाम दुनिया में फैला है। इसलिए यहाँ का तरीक़ा-ए-नमाज़ हमें यह शु'ऊर देता है कि औरतों के नमाज़ पढ़ने का सही और असली तरीक़ा वही है जिस तरह अरब की ख़वातीन पढ़ रही हैं। ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ अरब की ख़वातीन ही मर्दों की तरह नमाज़ पढ़ रही हैं बल्कि दुनिया भर में जहाँ भी तक़लीद से हटकर क़ुरआन और हदीस पर अमल करने वाली बहनें रहती हैं, वो मर्दों की तरह नमाज़ अदा करती हैं क्योंकि शारे शरियत हज़रत मुहम्मद ﷺ ने नमाज़ का एक ही तरीक़ा बताया है। उन्होंने मर्दों के लिए अलग और औरतों के लिए अलग नमाज़ का तरीक़ा नहीं बताया है।
अब चलते हैं दलाइल की तरफ़, पहले क़ुरआन में ग़ौर करें कि अल्लाह तआला ने एक ही किताब क़ुरआन की शक्ल में नाज़िल फ़रमाई है। सारी आयात में मर्द और औरत दोनों शामिल हैं। ऐसा नहीं है कि औरतों का क़ुरआन अलग है और मर्दों का क़ुरआन अलग। अलबत्ता क़ुरआन की जो आयत औरत या मर्द के लिए ख़ास है, वह औरत या मर्द के साथ ख़ास मानी जाएगी। मगर जो आयात ख़ास नहीं हैं, उनमें मर्दों के साथ औरतें भी शामिल हैं। ठीक यही मामला हदीस का भी है। हदीस की छह मशहूर और मोअतबर किताबों (बुख़ारी, मुस्लिम, अबू दाऊद, नसाई, तिर्मिज़ी और इब्न माजा) में से हर एक किताब में किताब-उस-सलात का उनवान मौजूद है। इस किताब के तहत शुरू से लेकर आख़िर तक नमाज़ की मुकम्मल तफ़सीलात रकआत, कैफ़ियात और अज़कार व अद'इया से मुताल्लिक़ सारी हदीस मौजूद हैं। इन हदीस को जमा किया जाए तो सैकड़ों की तादाद में होंगी। मगर इन सैकड़ों हदीसों में एक भी हदीस ऐसी नहीं मिलती कि मर्द की नमाज़ अलग है और औरत की नमाज़ अलग है।
पाकिस्तान के मारूफ़ (मशहूर) हनफ़ी इदारे "अल-जामिया अल-बनूरिया अल-आलमिया" से एक ख़ातून ने सवाल किया कि मैं इस्लाम में औरत की नमाज़ के लिए हवाला जानना चाहती हूँ, जैसा कि मैं शुरू करने वाली हूँ। मैं हवाला सिर्फ़ सिहाह सित्ता (छह सहीह किताबें) से चाहती हूँ (सिर्फ़ सजदा और तशह्हुद के बारे में)। प्लीज़ सिर्फ़ इन्हीं किताबों से, दूसरी किताबों से नहीं। इस सवाल पर अहनाफ़ के आलमी इदारे ने जवाब दिया कि सिहाह सित्ता से हवाला तलब करना बड़ी जुर्रत है। आगे लिखते हैं कि साइला को चाहिए कि बहिश्ती ज़ेवर से नमाज़ का तरीक़ा पढ़कर उस तरीक़े से नमाज़ अदा करे। बाइख़्तिसार। आप यह फ़तवा इदारे की वेबसाइट (www.onlinefatawa.com) पर आईडी 32164 के तहत देख सकते हैं। इस फ़तवे से आप यह जान सकते हैं कि जो लोग औरतों का अलग तरीक़ा-ए-नमाज़ बताते हैं, उनके पास हदीस की उम्म्हात-उल-कुतुब से एक भी दलील नहीं मिलती। 
अब एक बुनियादी बात समझ लें कि औरतें भी शरई मसाइल में मर्दों की तरह ही हैं, यानी इस्लाम ने जिस चीज़ का भी हुक्म दिया है, उस हुक्म में औरतें भी शामिल हैं, सिवाय इस्तिस्नाई अहकाम के जो मर्द या औरत के साथ मुख़्तस हैं। नबी ﷺ का फ़रमान है: 
إنما النساء شقائق الرجال(السلسلة الصحيحة:2863) 
तर्जमा: औरते (शर'ई अहकाम मे) मर्दो की मानिन्द हैं। 
नबी ﷺ के इस फ़रमान को ज़हन मे रखते हुए औरत व मर्द की नमाज़ से मुताल्लिक़ आप ﷺ का अहम तरीन फ़रमान मुलाहिज़ा फ़रमाएँ अबू सुलैमान मालिक बिन अल-हुवैरिस ने ब्यान किया:
أَتَيْنَا النبيَّ صَلَّى اللهُ عليه وسلَّمَ، ونَحْنُ شَبَبَةٌ مُتَقَارِبُونَ، فأقَمْنَا عِنْدَهُ عِشْرِينَ لَيْلَةً، فَظَنَّ أنَّا اشْتَقْنَا أهْلَنَا، وسَأَلَنَا عَمَّنْ تَرَكْنَا في أهْلِنَا، فأخْبَرْنَاهُ، وكانَ رَفِيقًا رَحِيمًا، فَقَالَ: ارْجِعُوا إلى أهْلِيكُمْ، فَعَلِّمُوهُمْ ومُرُوهُمْ، وصَلُّوا كما رَأَيْتُمُونِي أُصَلِّي، وإذَا حَضَرَتِ الصَّلَاةُ، فَلْيُؤَذِّنْ لَكُمْ أحَدُكُمْ، ثُمَّ لِيَؤُمَّكُمْ أكْبَرُكُمْ(صحيح البخاري:6008، 7246، 631)
तर्जमा: हम नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ख़िदमत में मदीना हाज़िर हुए और हम सब नौजवान और हम उम्र थे। हम नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के साथ बीस दिनों तक रहे। फिर नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को ख़्याल हुआ कि हमें अपने घर के लोग याद आ रहे होंगे और नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हमसे उनके मुताल्लिक़ पूछा जिन्हें हम अपने घरों पर छोड़कर आए थे। हमने नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को सारा हाल सुना दिया। आप बड़े ही नरम-खू और बड़े रहम करने वाले थे। आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि तुम अपने घरों को वापस जाओ और अपने मुल्क वालों को दीन सिखाओ और बताओ और तुम इस तरह नमाज़ पढ़ो जिस तरह तुमने मुझे नमाज़ पढ़ते देखा है। और जब नमाज़ का वक्त आ जाए तो तुम में से एक शख़्स तुम्हारे लिए अज़ान दे फिर जो तुम में बड़ा हो वह इमामत कराए।
इस पूरी हदीस पर गहराई से नज़र डालिए तो पता चलता है कि कुछ सहाबा-ए-किराम नबी ﷺ से दीन और नमाज़ का तरीक़ा सीखकर घर लौटे। आपने ﷺ उन्हें हुक्म दिया कि तुम जाओ, ये बातें अपने घरवालों को भी सिखाओ और नमाज़ उसी तरह पढ़ना जैसा तुमने मुझे बीस दिन तक नमाज़ पढ़ते हुए देखा है। घरवालों में बीवी भी शामिल है। अगर औरतों की नमाज़ का तरीक़ा अलग होता तो आपने ﷺ उन्हें वाज़ेह रूप से बता दिया होता कि तुम मर्द मेरी तरह नमाज़ पढ़ना और अपने घर की औरतों को मर्दों से अलग नमाज़ की तालीम देना। आपने ऐसा नहीं फ़रमाया, जैसे कि औरत की नमाज़ का तरीक़ा वही है जो मर्दों का है। इस बारे में यह हदीस "तुम उसी तरह नमाज़ पढ़ो जैसा तुमने मुझे पढ़ते हुए देखा है" फ़ैसला कुन (निर्णायक) है। 
नीज़, यह हदीस आम है, आम हदीस के तहत औरतें भी शामिल होंगी क्योंकि औरतें शरई अहकाम में मर्दों की तरह हैं। इस बारे में आपने ऊपर दलील भी जान ली है। 
मज़कूरा बाला हदीस "वसल्लू कमा राय्तुमूनी उसल्ली" सही बुख़ारी में तीन जगहों पर वारिद है। अब सहीह मुस्लिम से एक सरीह हदीस जो बयान करती है कि औरत और मर्द की नमाज़ बिल्कुल एक जैसी है। चुनांचे सय्यदना सहल बिन साद रज़ियल्लाहु अन्हु बयान करते हैं:
ولقَدْ رَأَيْتُ رَسولَ اللهِ صَلَّى اللَّهُ عليه وسلَّمَ قَامَ عليه فَكَبَّرَ وكَبَّرَ النَّاسُ ورَاءَهُ، وهو علَى المِنْبَرِ، ثُمَّ رَفَعَ فَنَزَلَ القَهْقَرَى حتَّى سَجَدَ في أصْلِ المِنْبَرِ، ثُمَّ عَادَ، حتَّى فَرَغَ مِن آخِرِ صَلَاتِهِ، ثُمَّ أقْبَلَ علَى النَّاسِ فَقالَ: يا أيُّها النَّاسُ إنِّي صَنَعْتُ هذا لِتَأْتَمُّوا بي، ولِتَعَلَّمُوا صَلَاتِي(صحيح مسلم:1216)
तर्जमा: मैं ने रसूलुल्लाह ﷺ को देखा, आप  उस पर खड़े हुए और तकबीर कही, लोगों ने भी आप के पीछे तकबीर कही जबकि आप मेम्बर ही पर थे, फिर आप (ने रुकूअ से सिर उठाया) उठे और उलटे पाँव नीचे उतरे और मेम्बर की जड़  में (जहाँ वो रखा हुआ था) सजदा  किया, फिर  दोबारा वही  किया (मेम्बर पर खड़े हो गए) यहाँ तक कि नमाज़ पूरी कर के फ़ारिग़ हुए, फिर लोगों की तरफ़ मुतवज्जेह हुए और फ़रमाया : लोगो! मैंने ये काम इसलिये  किया है। ताकि आप (मुझे देखते हुए) मेरी पैरवी करो और मेरी नमाज़ सीख लो।
इस हदीस से पता चलता है कि नबी ﷺ ने सहाबा को नमाज़ की तालीम देने के लिए मिम्बर पर चढ़कर नमाज़ पढ़ाई ताकि वाज़ेह रूप से नमाज़ की कैफ़ियत और अदायगी देखी जा सके। हमें यह भी पता है कि मस्जिदे नबवी में आपके पीछे मुक्तदी में औरते भी नमाज़ पढ़ती थीं। जब आपने ﷺ मिम्बर पर नमाज़ अदा कर ली तो आपने सहाबा को मुख़ातिब होकर फ़रमाया: "ऐ लोगों! मैंने यह इसलिए किया ताकि तुम मेरी पैरवी करो और मेरी तरह नमाज़ पढ़ना सीखो।" आपका यह स्पष्ट फ़रमान औरतों के लिए नहीं था? और आपने जिस तरह नमाज़ पढ़ी वह औरतों के लिए नहीं थी? बिल्कुल थी। आपके मिम्बर पर अदा किया गया तरीक़ा-ए-नमाज़ और आपका स्पष्ट फ़रमान कि मुझसे नमाज़ का तरीक़ा सीखो, साफ़-साफ़ बताता है कि औरत और मर्द की नमाज़ का तरीक़ा बिल्कुल एक जैसा है। अगर औरतों के तरीक़े-ए-नमाज़ में फ़र्क़ होता तो जब आपने मस्जिदे नबवी में मिम्बर पर चढ़कर मर्दों को नमाज़ की तालीम दी, उसी वक्त औरतों को भी अलग से तालीम देते। मगर आपने ऐसा नहीं किया, जो इस बात की ठोस दलील है कि औरत भी मर्दों की तरह नमाज़ पढ़ेगी।
नमाज़ एक इबादती मामला है, जिब्रील अलैहिस्सलाम आसमान से नाज़िल होकर नबी ﷺ को नमाज़ पढ़ाते हैं और नमाज़ों के वक़्त से आगाह करते हैं। सही बुख़ारी में अबू मुसअद रज़ियल्लाहु अन्हु ने बयान किया कि मैंने रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से सुना, आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फ़रमा रहे थे:
سَمِعْتُ رَسولَ اللَّهِ صَلَّى اللهُ عليه وسلَّمَ يقولُ: نَزَلَ جِبْرِيلُ فأمَّنِي، فَصَلَّيْتُ معهُ، ثُمَّ صَلَّيْتُ معهُ، ثُمَّ صَلَّيْتُ معهُ، ثُمَّ صَلَّيْتُ معهُ، ثُمَّ صَلَّيْتُ معهُ يَحْسُبُ بأَصَابِعِهِ خَمْسَ صَلَوَاتٍ(صحيح البخاري:3221)
तर्जमा: जिब्राईल अलैहिस्सलाम नाज़िल हुए और उन्होंने मुझे नमाज़ पढ़ाई। मैंने उनके साथ नमाज़ पढ़ी  फिर (दूसरे वक़्त की) उन के साथ मैंने नमाज़ पढ़ी  फिर उन के साथ मैंने नमाज़ पढ़ी  फिर मैंने उन के साथ नमाज़ पढ़ी  फिर मैंने उन के साथ नमाज़ पढ़ी  अपनी उँगलियों पर आप ने पाँचों नमाज़ों को गिनकर बताया।
नमाज़ एक ऐसी इबादत है जिसमें अपनी मर्ज़ी से बाल बराबर भी कोई अमल अंजाम नहीं दिया जाएगा, यह अल्लाह की तरफ़ से नाज़िल की गई है। रसूलुल्लाह ﷺ की वफ़ात के सौ साल, दो सौ साल बाद किसी इमाम या आलिम को कैसे इख़्तियार मिलेगा कि वह औरतों की नमाज़ का अलग तरीक़ा बयान करे या किसी उम्मती को कैसे इजाज़त है कि वह हदीस रसूल को छोड़कर उलमा के अक़वाल के मुताबिक़ अल्लाह की इबादत करे? हम देखते हैं कि अहनाफ़ के यहाँ औरतों की नमाज़ मर्दों से बिल्कुल अलग बयान की जाती है। यह इबादत में मनमानी और अल्लाह के दीन को बदल देना है। अल-हिफ़्ज़ व अल-अमां।
मज़कूरा बाला सारी दलीलों से वाज़ेह है कि औरतों की नमाज़ मर्दों जैसी है, फिर भी एक ख़ास दलील जो औरतों से ही मुताल्लिक़ है, उसे भी ज़िक्र करना मुनासिब समझता हूँ। 
जलील अल-क़दर सहाबी अबू दर्दा अंसारी रज़ियल्लाहु अन्हु की बीवी उम्म-ए-दर्दा रज़ियल्लाहु अन्हा के बारे में फ़क़ीह उम्मत, अमीरुल मोमिनीन फ़ी हदीस इमाम बुख़ारी रहमतुल्लाह अलैह ने अपनी तीन किताबों में ज़िक्र किया है कि उम्म-ए-दर्दा मर्दों की तरह नमाज़ अदा करती थीं। तीनों किताबों की इबारत के साथ इस दलील का इल्म हासिल करते हैं।
पहली किताब: क़ुरआन के बाद धरती की सबसे मोतबर किताब सही बुख़ारी में "بابُ سُنَّةِ الْجُلُوسِ فِي التَّشَهُّدِ" (बाब: तशह्हुद में बैठने का मस्नून तरीक़ा) के तहत इमाम बुख़ारी ने मुअल्लक़ा ज़िक्र किया है।
"وكانت ام الدرداء تجلس في صلاتها جلسة الرجل وكانت فقيهة".
तर्जमा: उम्म-ए-दर्दा रज़ियल्लाहु ताआला अन्हा फ़क़ीह थीं और वह नमाज़ में (तकबीर के दौरान) मर्दों की तरह बैठती थीं, यानी उम्म-ए-दर्दा एक आलिमा और फ़क़ीह थीं और वे नमाज में मर्दों की तरह तशह्हुद करती थीं।
दूसरी किताब: अब्द रबा बिन सुलैमान बिन उमैर शामी रहिमहुल्लाह कहते हैं:
رَأَيْتُ أُمَّ الدَّرْدَاءِ "تَرْفَعُ يَدَيْهَا فِي الصَّلَاةِ حَذْوَ مَنْكِبَيْهَا حِينَ تَفْتَتِحُ الصَّلَاةَ , وَحِينَ تَرْكَعُ وَإِذَا قَالَ: «سَمِعَ اللَّهُ لِمَنْ حَمِدَهُ» رَفَعَتْ يَدَيْهَا , وَقَالَتْ:«رَبَّنَا وَلَكَ الْحَمْدُ»(جزء رفع الیدین للبخاري : 24)
तर्जमा: मैंने उम्म-ए-दर्दा रज़ियल्लाहु ताआला अन्हा को देखा, वह नमाज़ में कंधों तक रफ़-उल-यदैन करती थीं। जब नमाज़ शुरू करतीं और जब रुकू करतीं। और जब (इमाम) سمع اللَّهُ لِمَنْ حَمِدَهُ कहते तो रफ़'-उल-यदैन करतीं और फ़रमाती थीं "रब्बना वलाकल हम्द"।
तीसरी किताब: सही बुख़ारी की मुअल्लक़ हदीस को इमाम बुख़ारी ने इन्हीं अल्फाज़ के साथ अपनी किताब अल-तारीख़ अल-सग़ीर (906) में मक़हूल के वसीला से ज़िक्र किया है और शैख़ अल्बानी रहमतुल्लाह अलैह ने इसकी सनद को सफ़त सलात अल-नबी के सफ़ा 189 पर सही क़रार दिया है।
यह ख़ास हदीस औरतों के बाब में इस बात की ख़ास दलील है कि औरतें भी मर्दों की ही तरह नमाज़ अदा करेंगी। अगर इस हदीस के बारे में कोई यह कहता है कि सिर्फ़ एक औरत मर्दों जैसी नमाज़ पढ़ती थी और बाक़ी औरतें मर्दों जैसी नमाज़ नहीं पढ़ती थीं, तो यह बड़ी जाहिलिय्यत और कोताह-फ़हमी है। इस हदीस में क़तअन नहीं ज़िक्र किया गया कि सिर्फ़ एक औरत मर्दों जैसी नमाज़ पढ़ती थी बल्कि रावी की नज़र जिस ख़ातून पर पड़ी, उन्होंने उस ख़ातून के बैठने की कैफ़ियत बयान की है। यहाँ एक बड़ा इल्मी नुक्ता यह भी समझ में आता है कि अगर इस सहाबी की नमाज़ सुन्नत के ख़िलाफ़ होती तो रावी ज़रूर टोके या यह ज़िक्र करते कि वह ख़ातून नमाज़ में सुन्नत की मुख़ालिफ़त कर रही थी। रावी का महज़ कैफ़ियत बताना इस बात की दलील है कि औरत की नमाज़ मर्दों की तरह है और इस दौर की आम औरतों ने भी मर्दों की तरह नमाज़ पढ़ी।
इस पस-मंज़र में सजदा से मुताल्लिक़ सहीहैन की एक हदीस पर भी ग़ौर करें, अनस बिन मालिक रज़ियल्लाहु अन्हु ने बयान किया कि नबी करीम ﷺ ने फरमाया:
اعْتَدِلُوا في السُّجُودِ، ولَا يَبْسُطْ أحَدُكُمْ ذِرَاعَيْهِ انْبِسَاطَ الكَلْبِ(صحيح البخاري:822) 
तर्जमा : सजदा मे एतिदाल को मलहूज़ रखो और तुम मे से कोई अपने बाज़ को कुत्ते की तरह न फैलाए। 
इस हदीस में नबी ﷺ ने हर किसी को मुख़ातिब करके फ़रमाया है कि तुम में से कोई भी सजदा करते वक्त कुत्ते की तरह बाज़ू न फैलाए। क्या इस हुक्म में औरत शामिल नहीं है? बिलकुल शामिल है। इस हदीस की बुनियाद पर औरतें भी उसी तरह सजदा करेंगी जैसे मर्द सजदा करते हैं और सजदा करते हुए कुत्तों की कैफ़ियत से बचेंगी।
ग़ौर से, पूरी बहस का ख़ुलासा यह हुआ कि एक औरत अपनी नमाज़ बिल्कुल वैसे ही पढ़े जैसे मर्द पढ़ते हैं और मर्दों में भी वह मर्द जो रसूलुल्लाह ﷺ की तरह नमाज़ अदा करता है। नियत, इक़ामत, तक़बीरा, रफ़-उल-यदैन, क़ियाम, रुकू, क़ौमा, सजदा, जल्सा, क़दा और सलाम सब कुछ हदीस की रौशनी में होना चाहिए और ये सारे अमल मर्दों और औरतों के लिए एक जैसे हैं, ठीक वैसे ही जैसे औरतें भी नमाज़ की रकअत उतनी ही अदा करेंगी जितनी रकअत मर्द अदा करते हैं और दौरान नमाज़ वही कलाम पढ़ेंगी जो मर्द पढ़ते हैं। यानी औरत और मर्द की नमाज़ में न रकअत में फ़र्क़ है, न अज़कार और दुआ में फ़र्क़ है, और न कैफ़ियत और औसाफ़ में फ़र्क़ है क्योंकि इनमें तफ़रीक़ की कोई सही दलील नहीं है।
आख़िर में मैं उन लोगों के गुमराहियों को भी दूर करना चाहता हूँ जो औरतों की इज़्ज़त और हया का नाम लेकर उनके लिए हया के आधार से नमाज़ का मसनूई तरीक़ा ईजाद करते हैं। मुक़ल्लिद लोग तो अपनी औरतों को मस्जिद में जाने से मना करते हैं, फिर भी नमाज़ का तरीक़ा औरतों के लिए अलग से तैयार करके बताते हैं जबकि नबी ﷺ के ज़माने में औरते मस्जिदे नबवी में हाज़िर होकर रसूल के पीछे नमाज़ अदा करती थीं। होना तो यह चाहिए था कि औरतों की हया के लिहाज़ से मस्जिद में हाज़िर होने वाली औरतों की नमाज़ अलग होती क्योंकि वे मर्दों के साथ एक ही मस्जिद में नमाज़ अदा करती थीं, जबकि रसूलुल्लाह ﷺ ने औरतों की अलग नमाज़ नहीं बताई।
बेशक, औरत औरत है, हया और पर्दे की चीज़ है, इसलिए नमाज़ के मुताल्लिक़ से औरतों के लिए जो मुनासिब अहकाम थे, वह रसूलुल्लाह ﷺ ने बयान कर दिए। इस बारे में कुछ हदीसें मुलाहिज़ा फ़रमाएँ:
(1) औरत (महिला) की नमाज़ मस्जिद के बजाय घर में बेहतर है। नबी ﷺ का फ़रमान है:
صلاةُ المرأةِ في بيتِها أفضلُ من صلاتِها في حجرتِها وصلاتُها في مَخدعِها أفضلُ من صلاتِها في بيتِها(صحيح أبي داود:570)
तर्जमा: औरतों की नमाज़ उसके अपने घर में आंगन के बजाय कमरे के अंदर ज़्यादा बेहतर है, बल्कि कमरे के बजाय (अंदरूनी) कोठरी में ज़्यादा बेहतर है।
(2) औरत मस्जिद में भी नमाज़ पढ़ सकती है लेकिन ख़ुशबू लगाकर न आएं। ज़ैनब सक़फ़ीया रज़ियल्लाहु तआला अन्हा बयान करती हैं कि नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया:
إذا خرجتْ إحْداكنَّ إلى المسجدِ فلا تقْرَبنَّ طِيبًا(صحيح الجامع:501)
तर्जमा: जब तुम में से कोई औरत मस्जिद की तरफ़ जाए तो वह ख़ुशबू के क़रीब भी न जाए।
(3) बालिग़ा औरत बिना दुपट्टे के नमाज़ न पढ़े, उम्मुल मोमिनीन आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा से रिवायत है कि नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया:
لا يقبلُ اللَّهُ صلاةَ حائضٍ إلَّا بخِمارٍ(صحيح أبي داود:641)
तर्जमा: बालिग़ा औरत की नमाज़ बिना ओढ़नी के अल्लाह तआला क़बूल (स्वीकार) नहीं करता।
(4) मस्जिद में औरत और मर्द एक साथ नमाज़ पढ़ने पर औरतों की सफ़ मर्दो से पीछे होगी। सय्यदना अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु का बयान है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया:
خَيْرُ صُفُوفِ الرِّجالِ أوَّلُها، وشَرُّها آخِرُها، وخَيْرُ صُفُوفِ النِّساءِ آخِرُها، وشَرُّها أوَّلُها( صحيح مسلم:440)
तर्जमा: मर्दो की सफ़ो में सबसे बेहतर पहली सफ़ है और सबसे बुरी आख़िरी सफ़ है। और औरतों के लिए सबसे बुरी पहली सफ़ है (जबकि मर्दो की सफ़े उनके क़रीब हों) और अच्छी सफ़ पिछली सफ़ है। (जो कि मर्दो से दूर हो)।
(5) औरत मर्दो की इमामत नहीं कर सकती है, न मर्दो के साथ नमाज़ पढ़ते वक्त (समय) आवाज़ निकाल सकती है, अगर मर्द इमाम से ग़लती हो जाए तो भी उसे ज़बान से आवाज़ नहीं निकालनी चाहिए बल्कि एक हाथ को दूसरे हाथ पर मारकर इमाम को गलती पर तवज्जो देनी चाहिए। सुहैल बिन साद रज़ियल्लाहु अन्हु से मरवी है कि नबी ﷺ ने फ़रमाया:
التسبيحُ للرجالِ، والتصفيحُ للنساءِ (صحيح البخاري:1204)
तर्जमा: तस्फ़ीक़ (ख़ास तरीक़े से एक हाथ को दूसरे हाथ पर मारना) औरतों के लिए है और तस्बीह (सुब्हानल्लाह कहना) मर्दो के लिए है। 
ये सारे अहकाम औरतों को फ़ितने से बचाने, उनकी इज़्ज़त और पाकीज़गी की हिफ़ाज़त करने और उनकी शर्म और हया का ख़्याल रखने से मुताल्लिक़ हैं। इन अहकाम का ये मतलब नहीं है कि औरतों की नमाज़ मर्दो से अलग है, बल्कि मतलब ये है कि औरतों की नमाज़ तो मर्दो की तरह ही है लेकिन उनकी इज़्ज़त का ध्यान रखते हुए उनके लिए कुछ ख़ास अहकाम भी बयान किए गए हैं। 
कुछ लोग उम्मत को इस तरह धोखा देते हैं कि हज भी नबी ﷺ के तरीक़े पर करना है, लेकिन तवाफ़ और सई में औरतों को रमल नहीं करना है बल्कि धीरे चलना है, और औरतों के धीरे चलने की कोई अलग से दलील नहीं है। उलमा औरतों की हया का ख़्याल रखते हुए धीरे चलने का हुक्म देते हैं, इसी तरह नमाज़ का मसला भी है। औरतों की हया के कारण उन्हें सिमटकर नमाज़ पढ़ने को कहा जाता है।
इस बात का जवाब यह है कि अव्वलन (पहला) : नमाज़ को हज के तवाफ़ और सई पर क़ियास करना ही ग़लत है। तवाफ़ और सई में आदमी बातें कर सकता है, खा पी सकता है, हंस सकता है, अगर थक जाए तो बैठ सकता है वग़ैरह, लेकिन ये बातें नमाज़ में मना हैं और इनसे नमाज़ बातिल होती है। सानियन (दूसरा) : नमाज़ पढ़ने का पूरा तरीका हमें रसूलुल्लाह ﷺ ने बता दिया है, जिसमें औरत और मर्द दोनों शामिल हैं, इसलिए किसी बाहरी से नमाज़ का तरीक़ा लेने की बिल्कुल ज़रूरत नहीं है। और मैंने पहले भी बताया है कि इबादत में एक बाल बराबर भी कोई अपनी इच्छा से अमल नहीं करेगा, जबकि मुक़ल्लिदो के यहाँ औरतों की पूरी नमाज़ बनावटी है, वह कैसे सही हो सकती है? सालिसन (तीसरा): औरतों के रमल के मुताल्लिक़ में मरफ़ू हदीस भले ही नहीं है, लेकिन कई आसार से साबित है। बैहक़ी ने आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा, मुसनद इब्न अबी शैबा में इब्न उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा से, इब्न अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा और हसन व अता से मरवी है। इब्न मुंज़िर ने इज्मा नक़ल किया है कि औरतों पर रमल नहीं है और दीन में इज्मा भी हुज्जत है, जबकि नमाज़ का मामला रमल से अलग है। यहाँ पर सब कुछ मरफ़ू हदीसों से, यानी मुकम्मल नमाज़ का तरीक़ा रसूलुल्लाह ﷺ से साबित है, और जहां मोहम्मद रसूलुल्लाह ﷺ का तरीक़ा मौजूद हो, वहां किसी और का तरीक़ा और क़ौल अपनाने की कोई गुंजाइश नहीं है। मतलब यह है कि जहां शरीयत चुप है, वहां उम्मत अगर किसी बात पर इज्मा कर ले तो यह दलील है, लेकिन जहां शरीयत मौजूद है, वहां किसी क़ौल और इज्मा की कोई ज़रूरत नहीं है।
कुछ लोग यह कहकर धोखा देते हैं कि औरतों को सिमट कर नमाज़ पढ़ने का तरीक़ा अस्लाफ़ से मनक़ूल है, बल्कि मरफ़ू हदीसें भी मिलती हैं। इसलिए इससे मुताल्लिक़ कुछ मारूफ़ रिवायतें और कुछ आसार पेश किए जाते हैं। इन सब का ज़िक्र (उल्लेख) करने और तज्ज़िया (विश्लेषण) करने का यह मक़ाम नहीं है। एक शेर से इस बात को समझने की कोशिश करें: (होते हुए मुस्तफ़ा (ﷺ) की गुफ़्तार - मत देख किसी का क़ौल-ओ-किरदार)
अल्लाह ने क़ुरआन में कई जगहों पर अपनी और उसके रसूल की इत्तिबा करने का हुक्म दिया है, यानी दीन सिर्फ़ अल्लाह और उसके रसूल से लिया जाएगा। दूसरी बात यह है कि औरत और मर्द की नमाज़ के तरीक़े में फ़र्क़ से मुताल्लिक़ जो भी दलील दी जाती है, चाहे वह क़ौल हो या हदीस, कोई भी साबित और सही नहीं है।
जब कोई चीज़ साबित ही न हो तो उससे दलील पकड़ना बेकार है। बल्कि ऊपर जामिया बनुरिया का फ़तवा देखा जा चुका है, उनके हिसाब से सही सित्ता यानी सबसे मो'तबरीन (विश्वसनीय) हदीस की छ: किताबों में औरत और मर्द की नमाज़ में फ़र्क़ की एक भी दलील मौजूद नहीं है, जबकि इन सभी छ: किताबों में "किताब अल-सलात" क़ाइम करके सभी मुहद्दिसीन ने नमाज़ की सभी मरफ़ू रिवायतें (रसूल अल्लाह का नमाज़ का तरीक़ा) ज़िक्र कर दिया है जिनमें नमाज़ की शुरुआत से लेकर अंत तक सारी कैफ़ियात मनक़ूल हैं, यहां तक कि नमाज़ का सबसे छोटा पहलू भी ज़िक्र से खाली नहीं है। बाक़ी जिन दलीलों से हनफ़ी इस्तिदलाल करके औरतों की नमाज़ अलग बताते हैं, वे सब नाक़ाबिल-ए-एतिबार हैं। उनकी हक़ीक़त जानने के लिए हाफ़िज़ सलाहुद्दीन यूसुफ़ रहिमहुल्लाह की मुख़्तसर किताब "क्या औरतों का तरीक़ा नमाज़ मर्दो से अलग है?" का मुताल'अ (अध्ययन) फ़ायदेमंद होगा। इस किताब को दारुस्सलाम ने शाए (प्रकाशित) किया है और किताब व-सेंट डॉट-कॉम पर दस्तियाब है।  
अल्लाह तआला से दुआ है कि लोगों को हक़ पर चलने और मुसलमानों में से औरत और मर्द को रसूल अल्लाह ﷺ के तरीक़े के मुताबिक़ इबादत करने की तौफ़ीक़ बख़्शे। आमीन।
~ Maqubool Ahmad Salafi

अहल-ए-बैत और उनका मक़ाम-ओ-मर्तबा


 अहल-ए-बैत और उनका मक़ाम-ओ-मर्तबा 
तहरीर: शैख़ मक़बूल अहमद सलफ़ी हाफ़िज़ाहुल्लाह 
हिंदी मुतर्जिम: हसन फ़ुज़ैल 

काइनात (दुनिया-जहाँ) की सबसे अफ़ज़ल हस्ती, सय्यदुल बशर और इमामुल अंबिया के घराने वालों को अहले बैत कहा जाता है। इस नसब और ख़ानदान से होना दुनिया का सबसे बड़ा एज़ाज़ (सम्मान) और इकराम है, यही वजह है कि बहुत से अरबी और अजमी मुसलमान इस ए'ज़ाज़ और इकराम को पाने के लिए बिना सबूत के ख़ुद को सय्यदी, हाशमी और सादाती लिखते और बतलाते हैं। अहले बैत के नाम पर सिर्फ़ ए'ज़ाज़ और इकराम पाने की बात नहीं है बल्कि मुस्लिम समाज को बड़े अफ़सोसनाक मसाइल भी दरपेश हैं, आपस में ख़लफ़शार, तनाज़ो, सब-ओ-शत्म और तकफ़ीर-ओ-तज़लील के भयानक असरात पाए जाते हैं। मैंने इस मज़मून में इख़्तिसार के साथ अहले बैत के मक़ाम और मर्तबा को उजागर करने की कोशिश की है, दिल में एक छोटी सी निय्यत ये रखी है कि लोग अहले बैत को जानें और उनको सही मक़ाम दें और इस बाबत नासबिय्यत और राफज़िय्यत से परहेज़ करें। नासबिय्यत क्या है, अहले बैत को तकलीफ़ पहुंचाना, उनको सब-ओ-शत्म करना और उनके शान में गुस्ताख़ी करना और राफज़िय्यत नाम है अहले बैत के नाम पर चंद अफ़राद की मोहब्बत में हद से ज़्यादा ग़ुलू करना और दीगर अहले बैत और बहुत सारे सहाबा को लान-ओ-त'अन करना।
अहले बैत कौन हैं, पहले ये बात जान लेते हैं क्योंकि आम अवाम की अक्सरियत को अहले बैत का भी सही इल्म नहीं है। अहले बैत का मतलब घराने वाले, इससे मुराद नबी ﷺ के वो तमाम घर वाले जिन पर सदक़ा हराम है। इनमें आपकी औलाद (ज़ैनब, रुक़ैया, उम्मे कुलसूम और फ़ातिमा), नाती-नातिन, आपके चाचा (हमज़ा और अब्बास), आपकी फूफी (सफ़िया), आपकी तमाम बीवियाँ (ख़दीजा, आयशा, सऊदा, हफ़्सा, उम्मे सलमा, ज़ैनब बिन्त ख़ुज़ैमा, जुवैरिया, सफ़िया, उम्मे हबीबा, मैमूना और ज़ैनब बिन्त जहश) और बनू हाशिम के सारे मुसलमान मर्द और औरत शामिल हैं।
नबी ﷺ की बेटियाँ अहले बैत में हैं, इसकी दलील की ज़रूरत नहीं है। हालांकि चाचा भी अहले बैत में से हैं, इसकी ख़ास दलील ज़िक्र करता हूँ। नबी ﷺ के चाचा हारिस के बेटे रबीआ और रबीआ के बेटे अब्दुल मुत्तलिब जो कि सहाबी हैं और उनसे हदीस भी मरवी है। ये (अब्दुल मुत्तलिब बिन रबीआ) और नबी ﷺ के चाचा अब्बास रज़ी अल्लाहु अन्हु के बेटे फ़ज़्ल, दोनों आपकी ख़िदमत में हाज़िर हुए और कहा कि हमें माल सदक़ा पर आमिल/मज़दूर मुक़र्रर करलें ताकि इस कमाई से शादी की तैयारी कर सकें तो आप ﷺ ने फ़रमाया:
إنَّ الصَّدَقَةَ لا تَنْبَغِي لِآلِ مُحَمَّدٍ إنَّما هي أَوْسَاخُ النَّاسِ(صحيح مسلم:1072)
तर्जमा: आल-ए-मुहम्मद के लिए सदक़ा हलाल नही, यह तो लोगों (के माल) का मेल-कुचैल हैं। 
सहीह बुख़ारी में है कि ख़ैबर के ख़ुमुस में से नबी ﷺ ने बनू हाशिम और बनू मुत्तलिब को दिया और दूसरे क़ुरैश को न दिया। तो ज़ुबैर बिन मुत्तिम और उस्मान बिन अफ़्फ़ान रज़ियल्लाहु अन्हुमा नबी ﷺ के पास आए और अर्ज़ की कि आपने बनू मुत्तलिब को तो माल दिया मगर हमें नज़रअंदाज़ कर दिया जबकि हम और वो आपसे एक ही दर्जे की क़राबत रखते हैं। इस पर आप ﷺ ने फ़रमाया:
«إِنَّمَا بَنُو المُطَّلِبِ، وَبَنُو هَاشِمٍ شَيْءٌ وَاحِدٌ»(صحیح البخاری:3140)
तर्जमा: बनू मुत्तलिब और बनू हाशिम तो एक ही चीज़ है। 
एक रिवायत में यह इज़ाफ़ा है कि हज़रत ज़ुबैर बिन मुत्तिम रज़ियल्लाहु तआला अन्हु ने कहा कि नबी करीम ﷺ ने बनू शम्स और बनू नौफल को नहीं दिया था।
बनू हाशिम, बनू मुत्तलिब, बनू शम्स और बनू नौफल ये आपस में चार भाई थे मगर आपने सिर्फ़ दो को ख़ुमुस दिया और इन दोनों को एक क़रार दिया। इस वजह से कुछ अहले इल्म ने यह इस्तिदलाल किया है कि अहले बैत में जिन पर सदक़ा हराम है, उनमें बनू हाशिम के साथ बनू मुत्तलिब भी हैं, यानी बनू हाशिम की तरह बनू मुत्तलिब भी अहले बैत में शामिल हैं।
मुस्लिम शरीफ़ में एक रिवायत है जिससे शिया, अवाम को यह धोखा देते हैं कि अज़वाज मुतह्हरात आल-ए-बैत में से नहीं हैं। वह रिवायत इस तरह से आई है।
فَقُلْنَا: مَنْ أَهْلُ بَيْتِهِ؟ نِسَاؤُهُ؟ قَالَ: لَا(مسلم:2408)
इस टुकड़े का तर्जमा (अनुवाद) किया जाता है "हमने कहा आल-ए-बैत कौन लोग हैं, नबी ﷺ की बीवियाँ? तो उन्होंने कहा कि नहीं। 
इसका असल तर्जमा और मतलब इस तरह है कि हमने उनसे पूछा: आपके अहले बैत कौन हैं? (सिर्फ़) आपकी अज़्वाज? तो उन्होंने कहा कि (सिर्फ़ आपकी अज़्वाज) नहीं। यानी आपकी ﷺ की अज़्वाज के अलावा और दूसरे भी आल-ए-बैत में शामिल हैं। चुनांचे सहीह मुस्लिम में ही इससे पहले वाली हदीस के अल्फ़ाज़ हैं। 
"فَقَالَ لَهُ حُصَيْنٌ: وَمَنْ أَهْلُ بَيْتِهِ؟ يَا زَيْدُ أَلَيْسَ نِسَاؤُهُ مِنْ أَهْلِ بَيْتِهِ؟ قَالَ: نِسَاؤُهُ مِنْ أَهْلِ بَيْتِهِ "
यानि और हुसैन ने कहा कि ऐ ज़ैद! आप ﷺ के अहले बैत कौन हैं, क्या आप ﷺ की अज़्वाज-ए-मुतह्हरात अहले बैत नहीं हैं? सय्यदना ज़ैद रज़ियल्लाहु अन्हु ने कहा कि अज़्वाज-ए-मुतह्हरात भी अहले बैत में दाख़िल हैं।
सहीह मुस्लिम की एक और रिवायत से धोखा दिया जाता है कि क़ुरआन में मज़कूर अहले बैत की तफ़सीर में सिर्फ़ चार लोग ही शामिल हैं, वो अली, फ़ातिमा और हसन-हुसैन हैं। रिवायत इस तरह से है: उम्मुल मोमिनीन आयशा सिद्दीक़ा रज़ियल्लाहु अन्हा कहती हैं:
خَرَجَ النَّبِيُّ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ غَدَاةً وَعَلَيْهِ مِرْطٌ مُرَحَّلٌ، مِنْ شَعْرٍ أَسْوَدَ، فَجَاءَ الْحَسَنُ بْنُ عَلِيٍّ فَأَدْخَلَهُ، ثُمَّ جَاءَ الْحُسَيْنُ فَدَخَلَ مَعَهُ، ثُمَّ جَاءَتْ فَاطِمَةُ فَأَدْخَلَهَا، ثُمَّ جَاءَ عَلِيٌّ فَأَدْخَلَهُ، ثُمَّ قَالَ: " {إِنَّمَا يُرِيدُ اللهُ لِيُذْهِبَ عَنْكُمُ الرِّجْسَ أَهْلَ الْبَيْتِ وَيُطَهِّرَكُمْ تَطْهِيرًا} [الأحزاب: 33] "(صحیح مسلم:2424)
तर्जमा: रसूलुल्लाह ﷺ सुबह को निकले और आप ﷺ एक चादर ओढ़े हुए थे जिस पर कजावों की सूरतें या हांडियों की सूरतें बनी हुई थीं। इतने में सय्यदना हसन रज़ियल्लाहु अन्हु आए तो आप ﷺ ने उनको इस चादर के अंदर कर लिया। फिर सय्यदना हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु आए तो उनको भी इसमें शामिल कर लिया। फिर सय्यदा फातिमातुज़्ज़हरा रज़ियल्लाहु अन्हा आईं तो उनको भी इन्हीं के साथ शामिल कर लिया। फिर सय्यदना अली रज़ियल्लाहु अन्हु आए तो उनको भी शामिल करके फ़रमाया कि "अल्लाह तआला चाहता है कि तुमसे नापाकी को दूर करे और तुम्हें पाक करे, ऐ घर वालो।"
इस हदीस में चार अफ़राद के ज़िक्र का हरगिज़ मतलब नहीं कि अहले बैत में इन चार के अलावा दूसरे अफ़राद शामिल नहीं हैं। आयत में असल ख़िताब अज़वाज मुतह्हरात को है, इस वजह से वो क़तई तौर पर अहले बैत में शामिल हैं जैसा कि ऊपर सहीह मुस्लिम की सरीह हदीस भी गुज़री है और भी दीगर दलाइल-ओ-शवाहिद हैं कि आप ﷺ की बीवियां और चाचा सब भी अहले बैत में हैं। सय्यदा आयशा के पास ख़ालिद बिन सईद ने सदक़े के तौर पर गाय भेजी तो उन्होंने कहा कि बेशक हम आल-ए-मुहम्मद के लिए सदक़ा हलाल नहीं है। (मुसन्निफ़ इब्न अबी शैबा: 10708) और अब्बास और रबीआ के बेटों को नबी ﷺ ने सदक़ा की कमाई से निकाह न करके माल ख़ुमुस से निकाह कराया था जिसका ज़िक्र भी ऊपर हो चुका है।
अहले बैत के मक़ाम-ओ-मर्तबा को उजागर करते हुए अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने इर्शाद फ़रमाया:
 إِنَّمَا يُرِيدُ اللَّهُ لِيُذْهِبَ عَنكُمُ الرِّجْسَ أَهْلَ الْبَيْتِ وَيُطَهِّرَكُمْ تَطْهِيرًا (الأحزاب:33)
तर्जमा: अल्लाह तआला यही चाहता है कि ऐ नबी के घरवालियो! तुमसे हर क़िस्म की गंदगी को दूर कर दे और तुम्हें ख़ूब पाक कर दे।
इस आयत की रोशनी में अहले बैत, ख़ासकर अज़वाज मुतह्हरात की पाकीज़गी, आला फ़ज़ीलत और बुलंद मक़ाम-ओ-मर्तबा का पता चलता है। हज़रत वासिला बिन अस्क़ा रज़ियल्लाहु तआला अन्हु बयान करते हैं कि मैंने रसूलुल्लाह ﷺ को यह फ़रमाते हुए सुना:
إنَّ اللَّهَ اصْطَفَى كِنانَةَ مِن ولَدِ إسْماعِيلَ، واصْطَفَى قُرَيْشًا مِن كِنانَةَ، واصْطَفَى مِن قُرَيْشٍ بَنِي هاشِمٍ، واصْطَفانِي مِن بَنِي هاشِمٍ.(صحيح مسلم:2276)
तर्जमा: अल्लाह तआला ने हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम की औलाद में से क़िनानाह को चुन लिया और क़िनानाह में से क़ुरैश को चुना और क़ुरैश में से बनू हाशिम को चुना और बनू हाशिम में से मुझे चुना।
ग़दीर ख़ुम के मक़ाम पर अपने ख़िताब में किताबुल्लाह की तर्ग़ीब और तमस्सुक के बाद आप ﷺ का तीन बार यह कहना बड़ी अहमियत का हामिल है।
أُذَكِّرُكُمُ اللَّهَ في أَهْلِ بَيْتِي، أُذَكِّرُكُمُ اللَّهَ في أَهْلِ بَيْتِي، أُذَكِّرُكُمُ اللَّهَ في أَهْلِ بَيْتي(صحيح مسلم:2408)
तर्जमा: मैं अल्लाह की याद दिलाता हूँ तुमको अपने अहले बैत के बाब में, मैं अल्लाह की याद दिलाता हूँ तुमको अपने अहले बैत के बाब में, मैं अल्लाह की याद दिलाता हूँ तुमको अपने अहले बैत के बाब में।
सहीह मुस्लिम में सआद बिन वक़ास से मरवी है:
وَلَمَّا نَزَلَتْ هذِه الآيَةُ: {فَقُلْ تَعَالَوْا نَدْعُ أَبْنَاءَنَا وَأَبْنَاءَكُمْ} دَعَا رَسولُ اللهِ صَلَّى اللَّهُ عليه وَسَلَّمَ عَلِيًّا وَفَاطِمَةَ وَحَسَنًا وَحُسَيْنًا فَقالَ: اللَّهُمَّ هَؤُلَاءِ أَهْلِي.(صحيح مسلم:2404)
तर्जमा: और जब यह आयत उतरी «نَدْعُ أَبْنَاءَنَا وَأَبْنَاءَكُمْ» "हम अपने बेटों को और तुम अपने बेटों को बुलाओ।" (यानि आयत मुबाहिला) तो आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने सय्यदना अली रज़ियल्लाहु अन्हु और सय्यदा फ़ातिमा रज़ियल्लाहु अन्हा और हसन और हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हुमा को बुलाया, फिर फ़रमाया: या अल्लाह! ये मेरे अहल हैं।
नबी ﷺ का फ़रमान है:
 كلُّ سَبَبٍ و نَسَبٍ مُنْقَطِعٌ يومَ القيامةِ ، إلَّا سَبَبي و نَسَبي(السلسلة الصحيحة:2036)
तर्जमा: क़यामत के दिन हर वास्ता और नसबी ताल्लुक़ ख़त्म हो जायेगा अलबत्ता मेरा वास्ता और नसबी ताल्लुक़ क़ाइम रहेगा। 
क़ुरआन की आयत से भी यह मफ़हूम वाज़ेह होता है, अल्लाह का फ़रमान है:
 فَإِذَا نُفِخَ فِي الصُّورِ فَلَا أَنسَابَ بَيْنَهُمْ يَوْمَئِذٍ وَلَا يَتَسَاءَلُونَ (المومنون:101)
तर्जमा: पस जब सूर फूंक दिया जाएगा उस दिन न तो आपसी रिश्ते ही रहेंगे, न आपसी पूछताछ।
अहले बैत के बड़े फ़ज़ाइल मिलते हैं, ये अहले बैत से मुताल्लिक़ कुछ फ़ज़ाइल थे। अगर फ़र्दा-फ़र्दा रसूल के अहले बैत के फ़ज़ाइल बयान किए जाएं तो कई किताबें तैयार हो जाएंगी। अहले इल्म ने अलग-अलग तरीक़ों से फ़ज़ाइल बयान किए हैं। मुहद्दिसीन ने किताबुल हदीस में नामों से बाब क़ाइम किया है जबकि सीरत निगारों ने अलग-अलग मुस्तक़िल किताबें भी तर्तीब दी हैं।
बहर-कैफ़ (बहरहाल)! अहले बैत ज़मीन पर पाक हस्तियों का नाम है, उनकी इज़्ज़त-ओ-तौक़ीर, उनका इज़्ज़त-ओ-तक़द्दुस और उनसे मोहब्बत-ओ-अक़ीदत मुसलमानों का हिस्सा-ईमान है और जो अहले बैत में से किसी भी फ़र्द से भी अदावत रखता है, वो मुनाफ़िक़ और नासबी है।
قالَ عَلِيٌّ: والذي فَلَقَ الحَبَّةَ، وبَرَأَ النَّسَمَةَ، إنَّه لَعَهْدُ النبيِّ الأُمِّيِّ صَلَّى اللَّهُ عليه وسلَّمَ إلَيَّ: أنْ لا يُحِبَّنِي إلَّا مُؤْمِنٌ، ولا يُبْغِضَنِي إلَّا مُنافِقٌ.(صحيح مسلم:78)
तर्जमा: सय्यदना अली रज़ियल्लाहु अन्हु ने फ़रमाया: क़स्म है उस पर जिसने दाना चीर दिया (फिर उसने घास उगाई) और जान बनाई। रसूलुल्लाह सलल्लाहु अल्लैही व ने मुझसे अहद किया था कि मुझसे मोहब्बत नहीं रखेगा मगर मोमिन और मुझसे दुश्मनी नहीं रखेगा मगर मुनाफ़िक़
यह मज़मून जिस मक़सद के तहत लिखा हूँ वो यह है कि लोग अहले बैत को जानें कि कौन-कौन लोग इसमें शामिल हैं फिर उन नुफ़ूस क़ुद्सिया की तौक़ीर उसी तरह अदा करें जैसे कि क़ुरआन और हदीस में हमारी रहनुमाई की गई है। न तो उनकी शान में गुस्ताख़ी करें जैसे नवासिब और ख़्वारिज करते हैं और न ही ग़ुलू करें जैसे शिआ और राफ़िज़ करते हैं। उम्मत मोहम्मदीया में रसूलुल्लाह ﷺ के बाद सबसे अफ़ज़ल हस्ती अबू बक्र फिर उमर फिर उस्मान हैं जैसा कि सय्यदना अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है:
كنا نقولُ ورسولُ اللهِ صلَّى اللهُ عليهِ وسلَّم حَيٌّ : أفضلُ أمةِ النبيِّ صلَّى اللهُ عليهِ وسلَّم بعدَه أبو بكرٍ، ثم عمرُ، ثم عثمانُ(صحيح أبي داود:4628)
तर्जमा: हम कहा करते थे जबकि रसूलुल्लाह ﷺ ज़िन्दा थे: नबी करीम ﷺ की उम्मत में आप ﷺ के बाद सबसे अफ़ज़ल अबू बक्र हैं, फिर उमर और फिर उस्मान रज़ी अल्लाहु अन्हु।
यह अक़ीदा न सिर्फ़ आम सहाबा का था बल्कि हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु भी यही मानते और अक़ीदा रखते थे। चुनांचे सय्यदना अली रज़ियल्लाहु अन्हु के बेटे मोहम्मद बिन हनफ़िय्या से मरवी है कि वह कहते हैं कि मैंने अपने वालिद से पूछा:
أَيُّ الناسِ خيرٌ بعد رسولِ اللهِ صلَّى اللهُ عليهِ وسلَّم ؟ قال : أبو بكرٍ، قال : قلتُ : ثُمَّ مَن ؟ قال : ثم عمرُ، قال : ثم خَشِيتُ أن أقولَ : ثُمَّ مَن فيقولُ : عثمانُ . فقلتُ : ثم أَنْتَ يا أَبَةِ ؟ قال : ما أنَا إلا رجلٌ من المسلمينَ(صحيح أبي داود:4629)
तर्जमा: रसूलुल्लाह ﷺ के बाद सबसे अफ़ज़ल कौन है? उन्होंने कहा हज़रत अबू बकर रज़ियल्लाहु अन्हु। मैंने कहा: फिर कौन? कहा हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु। फिर मुझे डर हुआ कि अगर मैंने पूछा कि उनके बाद कौन है तो वे कहेंगे हज़रत उस्मान रज़ियल्लाहु अन्हु। तो मैंने ख़ुद ही कह दिया: फिर तो आप ही हो अब्बा जान! वे कहने लगे कि मैं तो मुसलमानों में से एक आम आदमी हूँ।
शिआ के यहाँ यह तर्तीब नहीं है। वे अली रज़ियल्लाहु अन्हु को ही पहला नंबर देते हैं और ख़ुलफ़ा-ए-सोलासा अबू बक्र, उमर, और उस्मान के ख़िलाफ़ बदज़बानी करते हैं, गालियाँ देते हैं, इस क़दर अदावत है कि इन नामों पर अपने बच्चों का नाम भी नहीं रखते, और चार लोग (अली, फ़ातिमा, हसन, हुसैन) के अलावा अहले बैत में किसी को तस्लीम नहीं करते।
अमीरुल मोमिनीन सय्यदना अबू बक्र सिद्दीक़ की अहले बैत से मोहब्बत देखें:
والذي نَفْسِي بيَدِهِ لَقَرابَةُ رَسولِ اللَّهِ صَلَّى اللهُ عليه وسلَّمَ أحَبُّ إلَيَّ أنْ أصِلَ مِن قَرابَتِي(صحيح البخاري:4240)
तर्जमा: उस ज़ात की क़स्म! जिसकी हाथ में मेरी जान है, रसूलुल्लाह सलल्लाहु अल्लैही व सल्लम की क़राबत के साथ सिला-ए-रहिमी मुझे अपनी क़राबत से सिला-ए-रहिमी से ज़्यादा अज़ीज़ है।
उमर फ़ारूक़ रज़ियल्लाहु अन्हु, अल्लाह से दुआ करते हुए कहते हैं:
 اللَّهُمَّ إنَّا كُنَّا نَتَوَسَّلُ إلَيْكَ بنَبِيِّنَا صَلَّى اللهُ عليه وسلَّمَ فَتَسْقِينَا، وإنَّا نَتَوَسَّلُ إلَيْكَ بعَمِّ نَبِيِّنَا فَاسْقِنَا۔(صحيح البخاري:3710)
तर्जमा: ऐ अल्लाह, पहले हम अपने नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से बारिश की दुआ कराते थे तू हमें सैराबी अता करता था और अब हम अपने नबी के चाचा (अब्दुल्लाह बिन अब्दुल मुत्तलिब) के ज़रिए बारिश की दुआ करते हैं।
और सय्यदना उस्मान रज़ियल्लाहु अन्हु का हाल देखें, जब वे अपने घर में घेर लिए गए थे तो उस वक्त वहां हसन आपकी हिफ़ाज़त (रक्षा) के लिए तलवार के साथ मौजूद थे और लड़ना चाहते थे, मगर हज़रत उस्मान ने अल्लाह का वास्ता देकर उन्हें अपने घर भेज दिया ताकि उन्हें कोई तकलीफ़ न पहुंचे और हज़रत अली को भी कोई तकलीफ़ न पहुंचे। (अल-बिदाया वल-निहाया 11/193)
बिलकुल सही, ये लोग अहले बैत से मोहब्बत करते थे और अहले बैत भी इनसे मोहब्बत करते थे। हज़रत अली के बेटों में हसन और हुसैन के अलावा अबू बक्र, उमर और उस्मान भी हैं। हसन और हुसैन की औलाद में भी अबू बक्र और उमर मौजूद हैं, बल्कि कर्बला में हुसैन के साथ अली के बेटे अबू बक्र और उस्मान, हसन के बेटे अबू बक्र और उमर और हुसैन के बेटे उमर भी शहीद हुए।
शिया की तो बात छोड़ें, मुसलमानों का एक मख़सूस तबक़ा (विशेष वर्ग) भी शिआ की तरह अली और हुसैन की मोहब्बत में ग़ुलू करता है और दूसरे मुसलमानों को, ख़ुसूसन अहले हदीस को अहले बैत का गुस्ताख़ कहता है और अहले हदीस उलेमा को नासबी कहकर पुकारता है। अहले हदीस जमात मन्हज सलफ़ पर गामज़न है, वे न ग़ुलू करती है और न ही अहले बैत, औलिया, सालिहीन और इमामों की शान में ग़ुस्ताख़ी करती है। यह जमात उन लोगों को वही मक़ाम देती है जो अल्लाह और उसके रसूल ने दिया है।
हज़रत अली का मक़ाम अबू बक्र, उमर और उस्मान के बाद है, अहले हदीस वही मक़ाम देते हैं। ये एक इंसान थे, इंसान ही मानते हैं, जबकि ग़ुलू करने वाले अली को मुश्किल कुशा कहते हैं और उलूहियत के मक़ाम पर फ़ाइज़ कर देते हैं, यह सरासर शिर्क है, ऐसा अक़ीदा रखने वाला मुशरिक हो जाता है।
सहीह हदीसों में हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु के बेनज़ीर फ़ज़ाइल हैं, मगर ग़ुलू करने वालों ने, विशेषकर रवाफ़िज़ ने आपकी शान में इस क़दर झूठी हदीसें गढ़ी हैं कि इस क़दर झूठी हदीसें किसी और सहाबी के बारे में नहीं गढ़ी गईं। इस वजह से फ़ज़ाइल अली में हमें जब भी कोई हदीस मिले तो पहले उसकी सेहत जानें कि क्या यह हदीस सही है या ज़ईफ़ है?
हज़रत हुज़ैफा रज़ियल्लाहु अन्हु को मुख़ातिब करते हुए हज़रत फ़ातिमा और हसन और हुसैन के बारे में नबी ﷺ फ़रमाते हैं:
إنَّ هذا ملَكٌ لم ينزلِ الأرضَ قطُّ قبلَ اللَّيلةِ استأذنَ ربَّهُ أن يسلِّمَ عليَّ ويبشِّرَني بأنَّ فاطمةَ سيِّدةُ نساءِ أَهْلِ الجنَّةِ وأنَّ الحسَنَ والحُسَيْنَ سيِّدا شبابِ أَهْلِ الجنَّةِ(صحيح الترمذي:3781)
तर्जमा: यह एक फ़रिश्ता था जो इस रात से पहले ज़मीन पर कभी नहीं उतरा था। उसने अपने रब से मुझे सलाम करने और यह ख़ुशख़बरी देने की इजाज़त मांगी कि फ़ातिमा जन्नती औरतो की सरदार हैं और हसन और हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हुमा जन्नत के नौजवानों (यानि जो दुनिया में जवान थे) के सरदार हैं।
माँ की तरह उनके दोनों बेटे भी जन्नतियों के सरदार हैं। यह बहुत बड़ी फ़ज़ीलत है। इसके अलावा, हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि पैगंबर ﷺ ने मुसलमानों को हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु, हज़रत फ़ातिमा रज़ियल्लाहु अन्हा, और हसन और हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हुमा से मोहब्बत की तरग़ीब दी है। अली से मुताल्लिक़ मोहब्बत वाली हदीस ऊपर गुज़र चुकी है, फ़ातिमा से मुताल्लिक़ आपका फ़रमान है:
إنَّما فَاطِمةُ بَضعَةٌ منِّي يؤذيني ما آذَاها وينصِبني ما أنصبَها(صحيح الترمذي:3869)
तर्जमा: फ़ातिमा मेरे जिस्म (शरीर) का टुकड़ा है, मुझे तकलीफ़ देती है वह चीज़ जो उसे तकलीफ़ देती है, और "तअब" में डालती है मुझे वह चीज़ जो उसे "तअब" में डालती है।
औसामा बिन ज़ैद रज़ियल्लाहु अन्हुमा कहते हैं कि मैं एक रात किसी ज़रूरत से नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास आया, आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम निकले तो आप एक ऐसी चीज़ लपेटे हुए थे जिसे मैं नहीं पहचान पा रहा था कि क्या है। फिर जब मैं अपनी ज़रूरत से फ़ारिग़ हुआ तो मैंने पूछा: यह क्या है जिसे आप लपेटे हुए हैं? तो आपने उसे खोला, तो वह हसन और हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हुमा थे, आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के कुल्हे से चिपके हुए थे, फिर आपने फ़रमाया:
هذانِ ابنايَ وابنا ابنتيَ ، اللَّهمَّ إنِّي أحبُّهما فأحبَّهما وأحبَّ مَن يحبُّهما(صحيح الترمذي:3769)
तर्जमा: ये दोनों मेरे बेटे और मेरे नवासे हैं। ऐ अल्लाह! मैं इन दोनों से मोहब्बत करता हूँ, तू भी इनसे मोहब्बत कर और उससे भी मोहब्बत कर जो इनसे मोहब्बत करे।
इन चारों (अली, फ़ातिमा, हसन, हुसैन) से जिस तरह हम मोहब्बत करेंगे, उसी तरह अहले बैत के दीगर अफ़राद (अन्य व्यक्तियों) से भी मोहब्बत करना ईमान कहलाएगा। ऐसा नहीं है कि इनसे मोहब्बत के इज़हार में ज़मीन और आसमान को मिला दें और फ़ातिमा के अलावा दीगर बेटियाँ, उम्मुल मोमिनीन और बनु हाशिम और बनु मुत्तलिब के दीगर मुसलमानों के लिए दिल में तंगी महसूस करें।
और आज ऐसा ही हो रहा है, रवाफ़िज़ उम्मुल मोमिनीन सय्यदा आयशा को गंदी गालियाँ देते हैं, फ़ातिमा के अलावा दूसरी बेटियों की तौहीन करते हैं, अबू बक्र, उमर, उस्मान और अमीर मुआविया रज़ियल्लाहु ताअला अन्हुम अजमईन पर लानत और गालियाँ देते हैं। इनसे मुतास्सिर (प्रभावित) होकर बहुत से मुसलमान भी अहले बैत की आड़ में सहाबा-ए-किराम को निशाना बनाते हैं। उनके बारे में नाजायज़ और गुस्ताख़ाना अल्फ़ाज़ इस्तेमाल करते हैं। अल्लाह ताआला सभी सहाबा से राज़ी हो गया तो हमें भी सभी सहाबा से मोहब्बत करनी चाहिए चाहे वे अहले बैत में से हों या नहीं।
सहाबा से मोहब्बत करना ईमान की निशानी और पहचान है और उन्हें गाली देने वाला अल्लाह की लानत का हक़दार है।
~ Shaikh Maqubool Ahmad Salafi hafizahullah

बिदअत को पहचानिए

 📮बिदअत को पहचानिए
✍️तहरीर: शैख़ मक़बूल अहमद सलफ़ी हाफ़िज़ाहुल्लाह 
✍🏻हिंदी मुतर्जिम: हसन फ़ुज़ैल 

🕌अल्हम्दुलिल्लाह इस्लाम एक वाज़ेह और साफ़ सुथरा दीन है जिसकी तालीमात (शिक्षाएँ) और अहकाम रोशन दिन की तरह अयाँ-ओ-बयाँ (स्पष्ट और ज़ाहिर) हैं, मगर इस्लाम के नाम लिए जाने से सूफ़ियों और बिद'अतीयों ने इस साफ़ सुथरे दीन को जहां ग़ैर मुसलमानों की नज़र में बदनाम किया है, वहीं आम मुसलमानों पर भी इसे मुश्किल बना दिया है। जो असली दीन है उसे छोड़कर, इन बिदअतियों ने दीन में नई नई बिद'आत और ख़ुराफ़ात घड़ ली हैं और उन पर सख़्ती से अमल किया और अवाम को यक़ीन दिलाया कि यही असली दीन है, जो इस पर अमल करता है वह असल सुन्नी है और जो अमल नहीं करता है वह बिद'अती, मुर्तद और नबी का गुस्ताख़ है। العیاذ باللہ
🔈किस क़दर हैरानी और ताज्जुब की बात है कि असल दीन को पीछे पुश्त किया गया बल्कि असल दीन पर अमल करने वालों को बाग़ी, मुर्तद, गुस्ताख़ और बिद'अती कहा जाता है और दीन के नाम पर नई नई बिद'आत को असल दीन समझा जाता और बिद'अती ख़ुद को असल सुन्नी कहता है।
🗣️ख़ुर्द का नाम जुनूँ रख दिया, जुनूँ का ख़ुर्द-जो चाहे आपका हुस्न करिशमा साज़ करे
🏜️इस्लाम के लिए ख़तरात, ख़द्शात और नुक़सानात की बात जाए तो जो यहूद और नसारा नहीं कर सके, वो इन बिद'अतियों ने इस्लाम के लिए ख़तरात पैदा किये और दीन में नयी नयी बिद'अतें रिवाज कर दीं, इस्लाम के असल चेहरे को मस्ख़ किया। कुफ़्फ़ार और मुश्रिकीन मुसलमानों को नुक़सान पहुँचाने की कोशिश करते हैं जबकि बिद'अती असल इस्लाम को नुक़सान पहुँचा रहे हैं, इस लिहाज़ से बिद'अती इस्लाम के लिए सब से बड़ा ख़तरा है। इसी ख़तरे का एहसास करके आज सादा मुसलमानों को सलीस (आसान) अंदाज़ में बिद'अत समझाने की कोशिश कर रहा हूँ ताकि उन पर बिद'अत की हक़ीक़त मुनकशिफ़ (वाज़ेह) रहे और शायद किसी बिद'अती को भी समझ आ जाए और इस्लाम को नुक़सान पहुँचाने से बाज़ आ जाए या कम अज़ कम ख़ुद को नुक़सान से बचाए।
🖼️बिद'आत की एक लम्बी फ़ेहरिस्त (सूची) है, उन सब का नाम गिनना मुश्किल है। कुछ बिद'आत बहुत मशहूर और मारूफ़ हैं जिनसे बिद'अतियों की असली पहचान होती है, उन्हें बताकर उनकी हक़ीक़त बताने की कोशिश करूँगा। आप देखते हैं कि कुछ मुसलमान नबी का नाम आने पर अंगूठा चूमते हैं, अज़ान से पहले ख़ुद-साख़्ता दरूद पढ़ते हैं, फ़ातिहा ख़्वानी करते हैं, मीलाद मनाते हैं, मज़ारात पर उर्स और मेले लगाते हैं, जुलूस निकालते हैं, झंडियां लगाते हैं, क़ब्रों पर फूल और चादर चढ़ाते हैं, वहां अज़ान देते हैं, उनका तवाफ़ करते हैं, सजदा करते हैं और वहां नमाज़ और क़ुरआन पढ़ते हैं। इसी तरह ताज़िया मनाना, मुर्दों को पुकारना, ग़ैरुल्लाह का वसीला लगाना, ग़ैरुल्लाह की नज़र मानी करना, कुल, तीज्जा, सातवां, दसवां, इक्कीसवां, चहल्लुम, ग्यारहवीं मनाना, लिक्खी रोज़े, हज़ारी रोज़े, उम दाऊद की नमाज़, सलात अल-रग़ाइब, नमाज़ ग़ौसीया, ख़त्मे क़ादरीया, ज़फ़र सादिक़ के कुंडे, शब-ए-मेराज का जश्न, पीरों की बैअत, इमाम ज़ामिन और तावीज़ात अत्तारिया, नौहा ख़्वानी और सोग, बदशगूनी और नहूस्त और ख़ुद-साख़्ता औराद और वज़ाइफ (दरूद ग़ौसिया, दरूद ताज, दरूद तंजीना, दरूद लिक्खी वग़ैरह) उन बिदातियों के इमत्तियाज़ी अफ़'आल और अमल हैं। ये सब अमल और उन जैसे सैकड़ों अमल दीन के नाम पर बिद'अतियों की तरफ़ से ईजाद कर लिए गए हैं, इन्हीं को दीन समझा जाता है, इसी के गर्दान की ज़िंदगी घूमती है और यही सब कुछ करते करते बिद'अतियों की मौत आ जाती है।
🏜️मज़कूरा चंद बिद'आत के बाद अब आते हैं असल मुद्दे की तरफ़, वह यह है कि हमें कैसे पता चलेगा कि मज़कूरा सारे काम बिदअती हैं और एक बिदअती को कैसे समझाएंगे कि इन कामों से दूर रहो, यह जहन्नम में ले जाने वाले हैं? इसलिए पहले हम बिदअत की सही तारीफ़ (परिभाषा) देखेंगे और तारीफ़ भी शर'ई शरिया यानी मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ज़ुबानी मालूम करेंगे। सय्यदा आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा से रिवायत है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया:
مَن أَحْدَثَ في أَمْرِنَا هذا ما ليسَ فِيهِ، فَهو رَدٌّ (صحيح البخاري:2697،صحيح مسلم:1718،سنن أبي داود4606, سنن ابن ماجه:14,مشكوة المصابيح:140)
✨तर्जमा: जिसने हमारे दीन में अपनी तरफ़ से कोई ऐसा काम ईजाद किया जो दीन में नहीं है, तो वह रद्द है।
🗣️यही हदीस सहीह मुस्लिम में इस तरह मरवी है, सय्यदा आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा से रिवायत है, रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया:
مَن عَمِلَ عَمَلًا ليسَ عليه أمْرُنا فَهو رَدٌّ(صحيح مسلم:1718)
✨तर्जमा:"जो शख़्स ऐसा काम करे जिसके लिए हमारा हुक्म न हो (यानि दीन में ऐसा अमल निकाले) तो वह मर्दूद है।
इस हदीस के बारे में इमाम नववी रहिमहुल्लाह लिखते हैं: यह हदीस इस्लाम के क़वाइद (क़ायदों) में से एक अज़ीम क़वाइद है और यह नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के जामे अल-कलम में से है और यह बिदअत और नई ईजाद की तर्दीद में सरीह हदीस है। (शरह मुस्लिम लिल नववी (2/15 हदीस 1718))
🔥बिदअतीयो की बिदअत हदीस-ए-रसूल की कसौटी पर:
हदीस-ए-रसूल के पूरे अल्फ़ाज़ पर नज़र रखते हुए इमाम नववी रहिमहुल्लाह के कलाम के एतिबार से ग़ौर करते हैं कि यह हदीस किस तरह बिदअत की सरीह तर्दीद करती है।
🔹मन अहदसा (مَن أَحْدَثَ): जो अपनी ख़्वाहिश और मर्ज़ी से कोई काम ईजाद करे।
🔹फ़ी अमरिना हज़ा (في أَمْرِنَا هذا): यहाँ अम्र से मुराद दीन है, यानी दीन में कोई नया काम अपनी तरफ़ से ईजाद करे।
🔹मा लय्सा फ़ीहि (ما ليسَ فِيهِ): जो दीन में से नहीं हो। ब्रेलवी आलिम मुफ़्ती अहमद यारख़ान न'ईमी "ما ليسَ فِيهِ" की शरह में लिखते हैं जो क़ुरआन और हदीस के ख़िलाफ़ हो। (दावत इस्लामी की वेबसाइट: बिदअत की इक़्साम)
🔹फ़हूवा रद्द (فَهو رَدّ): तो वह काम बिदअती के लिए मर्दूद और बातिल है।"
🔈हदीस की शरह के साथ अब इन बिदअतो में से एक नमूना लेकर दीन की कसौटी पर परखते हैं। मिसाल के लिए, जब नबी का नाम आता है तो अंगूठों को आंखों से लगाकर चूमा जाता है और यह एतिबार रखा जाता है कि यह दीन का अमल है, ऐसा करना चाहिए, इससे सवाब मिलता है। जब दीन की किताब क़ुरआन और हदीस में इस अमल को खोजते हैं तो पता चलता है कि यह अमल न क़ुरआन में ज़िक्र है और न ही किसी हदीस में ज़िक्र है। इसका मतलब है कि किसी आदमी ने अपनी तरफ़ से इस अमल को दीन समझकर ईजाद कर लिया है। इसी को बिदअत कहते हैं जो अल्लाह और उसके रसूल की नज़र में मर्दूद है।
📌अब आइए बिदअतीयो के कुछ शक़ों का भी जायज़ा लेते हैं ताकि और बेहतर तरीक़े से बिदअत की हक़ीक़त को समझ सकें। मैं बिदअतीयो के तीन बड़े शुब्हात (शक़ों) और एक अहम मुग़ालते (महत्वपूर्ण भ्रम) का ज़िक्र करूंगा।
1️⃣पहला शुब्हा (शक): जब हम बिदअतीयो को बताते हैं कि अंगूठा चूमना बिदअत है, मीलाद मनाना बिदअत है क्योंकि क़ुरआन और हदीस में इन बातों का कहीं पर हुक्म नहीं दिया गया है, तो आगे से बिदअती जवाब देता है कि रसूल के ज़माने में गाड़ी नहीं थी, बस नहीं थी, ट्रेन नहीं थी, जहाज़ नहीं था, तुम उन पर क्यों सवारी करते हो? क्या यह बिदअत नहीं है? तुम ख़ुद भी रसूल के ज़माने में नहीं थे, इसलिए तुम भी बिदअत हो।
🎙️जवाब: इस शुब्हा को जानने के लिए मुंदरिजा-बाला (उपरोक्त) हदीस-ए-रसूल पर फिर से नज़र डालें। इस हदीस की शरह में मैंने चार बातों का ख़ुलासा किया है। पहली बात तो यह है कि हर वह काम जो अपनी तरफ़ से ईजाद कर लिया जाए जैसा कि लफ़्ज़ "من عمل عملا" से बिलकुल वाज़ेह है। दूसरी बात यह है कि नए काम दीन में ईजाद किए जाएं यानी दुनियावी मामले में नहीं। तीसरी बात यह है कि वह नई ईजाद क़ुरआन या हदीस में से नहीं हो।
 तो वह नया अमल (काम) बिदअत है जो कि मर्दूद है और यह चौथी बात है। बिदअती जब यह कहे कि रसूल के ज़माने में ट्रेन नहीं थी, तुम उस पर सवारी क्यों करते हो, क्या यह बिदअत नहीं है, तो हम उससे कहेंगे कि हमने कब कहा कि जो चीज़ रसूल के ज़माने में नहीं थी, उसका इस्तेमाल बिदअत है, यह तो हमने कभी कहा ही नहीं, यह तो तुम कहते हो। हम तो बिदअत की वही तारीफ़ करते हैं जो रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने सिखाई है, वह यह है कि जो कोई अपनी तरफ़ से दीन में कोई नया काम ईजाद कर ले जो क़ुरआन और हदीस में से नहीं है, तो वह काम मर्दूद है। अब ज़रा तुम ही बताओ कि क्या ट्रेन कोई काम या अमल है? यह तो एक सामान है। बिदअत का ताल्लुक़ सामान से नहीं है बल्कि अमल से है। दूसरी बात यह है कि क्या ट्रेन की ईजाद दीन के मामले में है या दुनियावी मामला है? ज़ाहिर सी बात है, एक कम अक़्ल भी कहेगा यह दुनियावी मामला है जबकि रसूल ने बिदअत की तारीफ़ में फ़रमाया है जो दीन के मामले में कोई नया काम ईजाद करे, वह अमल बिदअत है।
2️⃣दूसरा शुब्हा: लोगों में एक शुब्हा (शक) यह भी आम है कि आप कहते हैं फुला़ँ काम बिदअत है जबकि फुलाँ मौलवी कहता है यह काम दीन है, इसके करने से सवाब मिलेगा। तो हम किसकी बात सही मानें? आप भी मौलवी, वह भी मौलवी। हम किस मौलवी को दुरूस्त (सही) मानें?
🎙️जवाब: इस शुब्हा (शक) को दीन के अमल की रोशनी में मिसाल देकर समझाता हूँ। आप ज़रा ग़ौर करें, जब आप नमाज़ पढ़ते हैं तो सबसे पहले नमाज़ की नीयत करते हैं, फिर तकबीर कहकर हाथ बांधते हैं, क़ियाम करते हैं, फिर रुकू करते हैं, फिर सजदा करते हैं, इस तरह एक रकात होती है, फिर इसी तरह दूसरी रकात पढ़ते हैं। दो रकात वाली नमाज़ में क़ायदा करके सलाम फैरते हैं, मग़रिब की नमाज़ में दो रकात पर क़ायदा करके फिर तीसरी रकात के लिए उठते हैं, फिर तीसरी रकात पूरी करके दूसरा क़ायदा करके सलाम फैरते हैं। ज़ोहर, अस्र और इशा में चार-चार रकात पढ़ते हैं। नमाज़ को इस शक्ल में क्यों पढ़ते हैं? क्या इस लिए नहीं पढ़ते कि हमें रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इसी तरह नमाज़ की तालीम दी है। और बुख़ारी में आपका यह फ़रमान है: तुम लोग इसी तरह नमाज़ पढ़ो जैसे मुझे नमाज़ पढ़ते हुए देखते हो।
इसी तरह जब आप बैतुल्लाह का हज करते हैं तो यौम अल-तर्वियह (आठ ज़िलहिज्जा) से हज का काम शुरू करते हैं, इस दिन मिना जाते हैं, यौम-ए-अरफ़ा को अराफ़ात जाते हैं, इसी दिन सूरज ढलने के बाद मुज़दल्फ़ा आते हैं, यहाँ रात बिताते हैं। यौम अन-नहर को फ़ज़्र के बाद जमरात पर जाते हैं और वहाँ तीन जमरात हैं लेकिन आज के दिन केवल एक जमरा जो मक्का से जुड़ा है, सात कंकड़ मारते हैं। फिर क़ुर्बानी करते हैं, हल्क़ करवाते हैं और हरम शरीफ़ पहुँचकर तवाफ़ इफ़ाज़ा और सई करते हैं। इसके बाद वापस मिना आ जाते हैं, यहाँ अय्याम-ए-तशरीक़ बिताते हैं और तीनों दिन तीनों जमरात को सात-सात कंकड़ मारते हैं। आख़िर में तवाफ़-ए-विदा करके वतन वापस लौट आते हैं। आपसे सवाल है कि आप क्यों ऐसा करते हैं, क्या किसी पीर ने कहा ऐसा करो, किसी वली के कहने से ऐसा करते हैं? या आप ऐसा इस लिए करते हैं कि यह अल्लाह और उसके रसूल का हुक्म है? बेशक यह अल्लाह और उसके रसूल का हुक्म है और हम हज इस तरह इसलिए करते हैं कि रसूल अल्लाह ने इस तरह हज किया है और करने का हुक्म दिया है जैसे कि जाबिर बिन अब्दुल्लाह रज़ियल्लाहु अन्हुमा कहते हैं कि आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया:
يا أَيُّها الناسُ خُذُوا عَنِّي مناسكَكم (صحيح الجامع:7882)
तर्जमा: ऐ लोगों! तुम मुझसे हज का तरीक़ा सीख लो।
मैंने सिर्फ़ दो चीज़ें नमाज़ और हज की मिसाल दी है जबकि पूरे दीन का यही हुक्म है जिसका ख़ुलासा यह है कि दीन के सभी मामलों में हम वही करेंगे जो अल्लाह और उसके रसूल ने हमें करने का हुक्म दिया है। अल्लाह तआला का फ़रमान है:
لَقَدْ كَانَ لَكُمْ فِي رَسُولِ اللَّهِ أُسْوَةٌ حَسَنَةٌ (الأحزاب:21)
✨तर्जमा: यक़ीनन तुम्हारे लिए रसूल अल्लाह में उम्दा नमूना (मौजूद) है।
एक दूसरी जगह इर्शाद-ए-रब्बानी है:"
أطيعوا الله وأطيعوا الرسول (النساء:59)
✨तर्जमा: अल्लाह की इताअत करो और रसूल अल्लाह ﷺ की इताअत करो।
इसलिए अगर कोई मौलवी आपको बिदअत की तालीम (शिक्षा) दे या वह बात बताए जिसकी दलील नहीं है, तो उस मौलवी की बात नहीं माननी चाहिए क्योंकि रसूल अल्लाह ने बिदअत से मना किया है और केवल उसी आलिम की बात माननी चाहिए जो क़ुरआन और हदीस के मुताबिक़ (अनुसार) बताए क्योंकि दीन क़ुरआन और हदीस का नाम है।
3️⃣तीसरा शुब्हा (शक): अवाम की ओर (तरफ़) से एक तीसरा शुब्हा पैदा किया जाता है कि अज्र सवाब की नीयत से अगर कोई काम करता है तो इसमें हर्ज क्या है, नीयत तो अच्छी है।
🎙️जवाब: इसके जवाब में हम यह कहेंगे कि सिर्फ़ अच्छी नीयत होना काफ़ी नहीं है, बल्कि अमल भी सुन्नत के मुताबिक़ होना ज़रूरी है, वरना वही अमल बिदअत कहलाएगा जो अल्लाह और उसके रसूल के नज़दीक मर्दूद और बातिल है। इस शुब्हा को एक हदीस की रोशनी में देखते हैं कि बिदअत का इर्तिकाब करने में क्या हर्ज है?" 
🏜️सहीह बुख़ारी (5063) मे अनस बिन मालिक से रिवायत है, उन्होंने ब्यान किया कि तीन हज़रात (अली-बिन-अबी-तालिब  अब्दुल्लाह-बिन-अम्र -बिन-अल-आस और उस्मान-बिन-मज़ऊन (रज़ि०)) नबी करीम (सल्ल०) की पाक बीवियों के घरों की तरफ़ आपकी इबादत के मुताल्लिक़ पूछने आए  जब उन्हें नबी करीम (सल्ल०) का अमल बताया गया तो जैसे उन्होंने उसे कम समझा और कहा कि हमारा नबी करीम (सल्ल०) से क्या मुक़ाबला! आपकी तो तमाम अगली पिछली ख़ताएँ माफ़ कर दी गई हैं। उन में से एक ने कहा कि आज से मैं हमेशा रात भर नमाज़ पढ़ा करूँगा। दूसरे ने कहा कि मैं हमेशा रोज़े से रहूँगा और कभी नाग़ा नहीं होने दूँगा। तीसरे ने कहा कि मैं औरतों से जुदाई इख़्तियार कर लूँ गा और कभी निकाह नहीं करूँगा। फिर नबी करीम (सल्ल०) तशरीफ़ लाए और उन से पूछा : क्या तुमने ही ये बातें कही हैं? सुन लो! अल्लाह तआला की क़सम! अल्लाह से मैं तुम सबसे ज़्यादा डरने वाला हूँ। मैं तुममें सबसे ज़्यादा परहेज़गार हूँ लेकिन मैं अगर रोज़े रखता हूँ तो इफ़्तार भी करता हूँ। नमाज़ पढ़ता हूँ (रात में) और सोता भी हूँ और मैं औरतों से निकाह करता हूँ। فمن رغب عن سنتي فليس مني मेरे तरीक़े से जिसने बे तवज्जोही की वो मुझ में से नहीं है। 
🏜️इस हदीस पर अच्छी तरह ग़ौर करें। एक तरफ़ तीन जलीलुल क़द्र सहाबी, दूसरी तरफ़ उनकी नीयत भी अच्छी है, फिर क्यों रसूल अल्लाह ने उन्हें अच्छी नीयत से मना किया? इन सब के अमल में हर्ज क्या है? हर्ज यही है कि इन सब का अमल सुन्नत के ख़िलाफ़ था, इसलिए आपने उनसे कहा कि जो सुन्नत के ख़िलाफ़ अमल करे वह हम में से नहीं है। आपने देख लिया कि अच्छी नीयत के बावजूद सुन्नत की ख़िलाफ़-वर्ज़ी की वजह से अमल मर्दूद (अस्वीकृत) हो रहा है, यही हाल हर क़िस्म (प्रकार) की बिदअत का है, यानी हर बिदअत मर्दूद (अस्वीकृत) है।
🔴बिदअत-ए-हसना और बिदअत-ए-सय्यिआ की तक़सीम का मुग़ालता:
बिदअती लोग अवाम में एक मुग़ालता (भ्रांति) फैलाते हैं। वह भ्रांति यह है कि हर क़िस्म (प्रकार) की बिदअत से इस्लाम ने मना नहीं किया, बल्कि कुछ बिदअतें अच्छी होती हैं जिन पर अमल किया जा सकता है, और कुछ बिदअतें बुरी होती हैं जिनसे बचना चाहिए। यानी इन बिदअतीयो ने अपनी बिदअतो की समर्थन में बिदअत की दो क़िस्में की हैं: एक बिदअत-ए-हसना (अच्छी) और दूसरी बिदअत-ए-सय्यिआ (बुरी)। इस तक़सीम (विभाजन) का उद्देश्य यह है कि उन्होंने दीन में जो भी बिदअतें और बेतुके बातें ईजाद की हैं, उन्हें जायज ठहराना ताकि आम लोगों को यह बताया जा सके कि हम जो बिदअत करते हैं वह बिदअत-ए-हसना है, इससे कोई गुनाह नहीं होता, बल्कि इसके करने से अज्र मिलता है और जिस बदअत पर गुनाह मिलता है, वह दूसरी बिदअत है, बिदअत-ए-सय्यिआ।
🔥हक़ीक़त में बिदअत की यह तक़सीम उसी तरह से फ़र्ज़ी (काल्पनिक) और बनावटी है जैसे उनकी सारी बिदअतें फ़र्ज़ी (काल्पनिक) और बनावटी हैं। अगर कहीं बिदअत-ए-हसना का ज़िक्र मिलता है, तो वहां लुग़वी माना का एतिबार रखा गया है, जबकि शरई तौर पर रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हर क़िस्म की बिदअत को गुमराही और ज़लालत क़रार दिया है। चूंकि जाबिर बिन अब्दुल्लाह रज़ियल्लाहु अनहु कहते हैं कि रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम अपने ख़ुत्बे में अल्लाह की हम्द और सना बयान करने के बाद फ़रमाते:"
إن اصدق الحديث كتاب الله , واحسن الهدي هدي محمد , وشر الامور محدثاتها , وكل محدثة بدعة وكل بدعة ضلالة وكل ضلالة في النار(صحيح سنن النسائي:1579)
✨तर्जमा: सबसे सच्ची बात अल्लाह की किताब है, और सबसे बेहतर तरीक़ा मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का तरीक़ा है, और सबसे बुरा काम नए काम हैं, और हर नया काम बिदअत है और हर बिदअत गुमराही है, और हर गुमराही जहन्नम में ले जाने वाली है।
📌इस हदीस से साफ़ तौर पर मालूम होता है कि दीन में कोई भी नया काम बिदअत में गिना जाएगा, इसलिए यह कहना कि बिदअत अच्छी भी हो सकती है और बुरी भी, ग़लत है और हदीस-ए-रसूल के ख़िलाफ़ है।
🔥आख़िर में बिदअतीयो का हुक्म भी जान लें।
ये लोग दावा करते हैं कि हम ही सबसे ज़्यादा रसूल से मोहब्बत करते हैं, हम ही ज़्यादा आप पर दरूद पढ़ते हैं, इसलिए हम लोग ही आख़िरत में रसूल के साथ होंगे, हम लोगों को आपकी शफ़ाअत मिलेगी और जन्नत में दाख़िल होंगे। इसी प्रकार की बातों की तर्जुमानी करते हुए एक बरेलवी शायर जमीलुर्रहमान  रिज़वी क़ादरी अपने नातिया कलाम के मुक़त्ता' में कहता है:
✒️मैं वह सुन्नी हूँ जमील क़ादरी मरने के बाद - मेरा लाशा भी कहेगा अस्सलातु वस्सलाम।
🏜️इन बिदअतीयो के दावे की हक़ीक़त मज़कूरा बाला हदीस से देखिए कि एक तरफ़ रसूल अल्लाह की तालीम यह है कि सबसे सच्ची किताब क़ुरआन है और सबसे बेहतर तरीक़ा मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का है, लेकिन ये लोग नाम तो नबी का लेते हैं, मगर काम सब बिदअत वाला करते हैं। जो लोग क़ुरआन और तरीक़े मुहम्मद से हटकर दीन में बिदअते ईजाद करते हैं और उन पर अमल करते हैं, क्या वे लोग मुहिब्ब-ए-रसूल हो सकते हैं? हरगिज़ हरगिज़ बिदअती मुहिब्ब-ए-रसूल नहीं हो सकता, बल्कि बिदअती जो ख़ुद को सच्चा मुहिब्ब-ए-रसूल कहता है, उसका दावा खोखला और झूठा है। यही वजह है कि रसूल अल्लाह ने इन बिदअतीयो के बारे में आगाह कर दिया कि हर बिदअत गुमराही है और हर गुमराही जहन्नम में ले जाने वाली है। भला जो काम जहन्नम में ले जाने वाला हो, उस काम की बुनियाद पर रसूल अल्लाह की शफ़ात कैसे मिलेगी? इतना ही नहीं, अल्लाह तआला आख़िरत में नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को इन बिदअतीयो की बिदअतों के बारे में भी आगाह करेगा, और जब बिदअती लोग हौज़-ए-कौसर के पास आएंगे तो भगा दिए जाएंगे। सही बुख़ारी में अनस रज़ियल्लाहु अनहु से मरवी है कि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया:
لَيَرِدَنَّ عَلَيَّ ناسٌ مِن أصْحابِي الحَوْضَ، حتَّى عَرَفْتُهُمُ، اخْتُلِجُوا دُونِي، فأقُولُ: أصْحابِي! فيَقولُ: لا تَدْرِي ما أحْدَثُوا بَعْدَكَ(صحيح البخاري:6582)
✨तर्जमा: मेरे कुछ साथी हौज़ पर मेरे सामने लाए जाएंगे और मैं उन्हें पहचान लूंगा, लेकिन फिर वे मेरे सामने से हटा दिए जाएंगे। मैं कहूंगा कि ये तो मेरे साथी हैं, लेकिन मुझसे कहा जाएगा कि आप नहीं जानते कि उन्होंने आपके बाद क्या नई चीज़ें ईजाद कर ली थीं।
📌बिदअतीयो का हाल कितना अजीब है? 
जिंदगी भर या रसूल अल्लाह का नारा लगाते रहे, मीलाद मनाते रहे, जुलूस निकालते रहे, झंडे लगाते रहे, रसूल की इज़्ज़त में खड़े रहते रहे, खड़े होकर सामूहिक दरूद पढ़ते रहे और अंगूठा चूमते रहे, परिणाम यह हुआ कि आख़िरत में रसूल और हौज़-ए-कौसर से दूर कर दिए गए।
✒️न तो ख़ुदा मिला, न विसाल-ए-सनम, न इधर के हुए, न उधर के हुए।
🔥जो लोग जाने-अनजाने किसी तरह से भटक गए हैं, उन सभी से दरख़्वास्त (अनुरोध) है कि अभी भी वक्त है, साबिक़ा गुनाहों से तौबा कर लें और सच्चे मुहिब्ब-ए-रसूल बनने और आख़िरत में आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के हाथों से हौज़-ए-कौसर पीने के लिए अल्लाह की किताब क़ुरआन करीम और रसूल अल्लाह की प्यारी सुन्नत अहादीस तैबा के मुताबिक़ अमल करें। अल्लाह से दुआ है कि इस मज़मून को भटके हुए लोगों के लिए राह-ए-रास्त पर आने का ज़रिया बनाए।"
✍️नोट-जो लोग इस मज़मून का वीडियो ब्यान सुनना चाहते हैं वह मुहर्रिर (तहरीर लिखने वाले) के यूट्यूब चैनल पर पांच फ़रवरी 2022 को अपलोड किया गया ब्यान ब-'उन्वान "बिदअत को पहचानिए" सुन सकते हैं। 
https://www.youtube.com/watch?v=g3MYh6a6iJg&t=1676s
~ Maqubool Ahmad Salafi

औरतों के लिए राह (रास्ते में) चलने के आदाब

 औरतों के लिए राह (रास्ते में) चलने के आदाब
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लेखक: शैख़. मक़बूल अहमद सलफ़ी 
हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद 
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एक बहन ने सवाल भेजा था कि एक औरत रास्ता चलते हुए किन बातों का ख़याल (ध्यान) करे और चलने का अंदाज़ (तरीक़ा) क्या हो या'नी (मतलब यह कि) वो आहिस्ता (धीरे) चले या तेज़ भी चल सकती है और चलते हुए अपने आप को सीधी रखे या कुछ झुका हुआ मज़ीद और किन बातों को ध्यान में रखना है ?
  मुझे यह सवाल काफ़ी (बहुत) अहम (ख़ास) मा'लूम हुआ इसलिए सोचा कि इस से मुत'अल्लिक़ (बारे में) अहम (ज़रूरी) मा'लूमात (जानकारी) जमा (इकट्ठा) की जाए ताकि (इसलिए कि) साइला (सवाल करने वाली) के 'अलावा (सिवा) दूसरी मुस्लिम बहनों को भी इस से फ़ाइदा हो चुनांचे (इसलिए) मज़कूरा सवाल के तनाज़ुर में शरी'अत-ए-मुतहहरा से जो रहनुमाई मिलती हैं इस को इख़्तिसार (ख़ुलासे) के साथ मुंदरिजा-ज़ेल (नीचे लिखे हुए) सुतूर (lines) में बयान करता हूं एक औरत जब घर से बाहर निकलने का इरादा करती है तो उसे बुनियादी तौर पर पहले तीन बातों का ख़याल (ध्यान) रखना चाहिए।
(1) अल्लाह-त'आला ने एक औरत को अपने घर में सुकूनत इख़्तियार करने का हुक्म दिया है इसलिए औरत अपने घर को लाज़िम पकड़े और घर से बिला-ज़रूरत बाहर क़दम न निकाले जब औरत को घर से बाहर जाने की ज़रूरत पेश आए तब ही घर से बाहर निकले अल्लाह-त'आला का फ़रमान है:
(وَقَرْنَ فِي بُيُوتِكُنَّ وَلَا تَبَرَّجْنَ تَبَرُّجَ الْجَاهِلِيَّةِ الْأُولَىٰ)
(الاحزاب:33)
तर्जमा: और अपने घरों में सुकूनत इख़्तियार करो और अगले ज़माना-ए-जाहिलियत की तरह बनाव-सिंगार के साथ न निकला करो।
(सूरा अल्-अह़ज़ाब:33)
  इस आयत में अल्लाह ने एक तरफ़ औरत को घर में टिक कर रहने का हुक्म दिया है तो दूसरी तरफ़ यह भी मा'लूम होता है कि औरत ज़रूरत के तहत घर से बाहर जा सकती है जाहिली दौर (समय) की तरह ज़ेब-ओ-ज़ीनत (बनाव-सिंगार) का इज़हार कर के नहीं बल्कि बा-पर्दा हो कर।
  हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु को औरत के घर से निकलने पर बड़ा नागवार लगता था एक मर्तबा का वाक़ि'आ है कि उम्म-उल-मोमिनीन हज़रत सौदा रज़ियल्लाहु अन्हा (पर्दा का हुक्म नाज़िल होने के बाद) क़ज़ा-ए-हाजत (पाख़ाना) के इरादे से बाहर निकली हज़रत उमर आप को भारी-भरकम बदन से पहचान गए और कहा कि किस तरह बाहर रही हैं ? वो वापस घर पलट गई आप के ही घर रसूलुल्लाह ﷺ थे उन्होंने माजरा (क़िस्सा) बयान किया उतने में वह्य (वही) नाज़िल हुई और आप ﷺ ने फ़रमाया:
(إِنَّهُ قَدْ أُذِنَ لَكُنَّ أَنْ تَخْرُجْنَ لِحَاجَتِكُنَّ)
(صحیح البخاری:4795)
तर्जमा: तुम्हें (अल्लाह की तरफ़ से) क़ज़ा-ए-हाजत (पाख़ाना) के लिए बाहर जाने की इजाज़त दे दी गई है।
(सहीह बुख़ारी:4795)
  इस हदीष से भी मा'लूम हुआ कि औरत ज़रूरत के पेश-ए-नज़र घर से बाहर जा सकती है और वो ज़रूरत क्या हो सकती है 'इलाज के लिए, ज़रूरी मुलाक़ात के लिए, नमाज़ के लिए 'उज़्र (मजबूरी) के तहत ख़रीद-ओ-फ़रोख़्त (ख़रीदारी) के लिए, शर'ई हद में रहते हुए जाएज़ 'अमल (काम) की अंजाम-दिही (पूरा करने) के लिए और इस क़िस्म (प्रकार) की दूसरी ज़रूरत के लिए जिस के बग़ैर चारा न हो औरत को घर से बिला-ज़रूरत निकलने से क्यूं मना किया जाता है इस की एक बड़ी वजह (कारण) बयान करते हुए नबी ﷺ इरशाद फ़रमाते हैं:
(المرأةُ عورةٌ فإذا خرجتِ استشرفَها الشَّيطانُ)
(صحيح الترمذي:1173)
तर्जमा: औरत (संपूर्ण) पर्दा है जब वो बाहर निकलती है तो शैतान उस को ताकता है।
(सहीह तिर्मिज़ी:1173)
  एक दूसरी हदीष में इस तरह आता है नबी ﷺ फ़रमाते हैं:
(إنَّ المرأةَ عورةٌ ، فإذا خَرَجَتْ استَشْرَفَها الشيطانُ ، وأَقْرَبُ ما تكونُ من وجهِ ربِّها وهي في قَعْرِ بيتِها)
(صحيح ابن خزيمة:1685 وقال الألباني إسناده صحيح)
तर्जमा: औरत तो पर्दा की चीज़ है जब वो घर से निकलती है तो शैतान उस की तरफ़ झाँकता है और औरत अल्लाह के सबसे ज़ियादा क़रीब उस वक़्त होती है जब वो अपने घर के किसी कोने और पोशीदा जगह में हो।
(सहीह इब्ने खुज़ैमा:1685 व क़ाला अल्बानी सनद सहीह)
  या'नी (मतलब यह कि) औरत शैतान के लिए एक ऐसा वसीला (माध्यम) है जिस के ज़री'आ (द्वारा) औरत और मर्द को गुनाह के रास्ता (मार्ग) पर लगा सकता है इसलिए इस्लाम ने गुनाह के सद्द-ए-बाब (रोक) के तौर पर औरत को बिला-ज़रूरत घर से निकलने पर पाबंदी लगाई है घर में रहने वाली औरत महफ़ूज़-ओ-मामून (सुरक्षित) और रब से क़रीब होती है और घर से निकलने वाली औरत फ़ित्ना (बुराई) का बा'इस (कारण) बन सकती है।
(2) दूसरी बात यह है कि जब औरत अपने घर से ज़रूरत के तहत बाहर निकले तो मुकम्मल (पूरे तौर पर) हिजाब (नक़ाब) और पर्दा में निकले इस बात की दलील साबिक़ा (पहली) आयत अहज़ाब भी है इस आयत में अल्लाह ने ज़रूरत के तहत बाहर निकलते वक़्त "तबर्रुज" या'नी बनाव-सिंगार का इज़हार (ज़ाहिर) करने से मना
फ़रमाया है मौलाना अब्दुल रहमान किलानी रहिमहुल्लाह इस आयत के तहत "तबर्रुज" की शरह (व्याख्या) करते हुए लिखते हैं: "तबर्रुज" में क्या कुछ शामिल है ? तबर्रुज ब-मा'नी अपनी ज़ीनत (सुंदरता) जिस्मानी (शारीरिक) महासिन (गुण) और मेक-अप दूसरों को और बिल-ख़ुसूस (ख़ास तौर पर) मर्दों को दिखाने की कोशिश करना और इस में पांच चीज़ें शामिल हैं।
(1) अपने जिस्म (शरीर) के महासिन (गुण) की नुमाइश (दिखाना)
(2) ज़ेवरात की नुमाइश (दिखाना) और झंकार
(3) पहने हुए कपड़ों की नुमाइश
(4) रफ़्तार (चाल) में बाँकपन (टेढ़ापन) और नाज़-ओ-अदा (नख़रे)
(5) ख़ुशबू का इस्ते'माल जो ग़ैरों को अपनी तरफ़ मुतवज्जह (आकर्षित) करे।
(तफ़्सीर तैसीर उल-क़ुरआन)
  यहां पर इस हदीष को भी मद्द-ए-नज़र (सामने) रखें जब नबी ﷺ ने औरतों को 'ईद-गाह निकलने का हुक्म दिया तो इस पर उम्मे अतिय्या रज़ियल्लाहु अन्हा आप ﷺ से पूछती हैं कि अगर किसी औरत के पास जिल्बाब (बड़ी चादर) न हो तो वो कैसे 'ईद-गाह निकले इस पर आप ने फ़रमाया कि उस की बहन उस को चादर उढ़ाए।
(सहीह बुख़ारी:324)
  गोया (जैसा) कि हर हाल में औरत मुकम्मल पर्दा के साथ ही बाहर निकले और अगर किसी औरत के पास हिजाब (बुर्क़ा') न हो वो भी किसी दूसरे के हिजाब में ही घर से बाहर निकले 'अहद-ए-रसूल की ख़वातीन (औरतें) चेहरा, हाथ और पैर (पांव) समेत मुकम्मल (पूरे) जिस्म (शरीर) ढाँक कर बाहर निकलती थी कपड़े का दामन (पल्लू) ज़मीन से घसीटता था अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा कहते हैं:
(رَخَّصَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ لِأُمَّهَاتِ الْمُؤْمِنِينَ فِي الذَّيْلِ شِبْرًا ثُمَّ اسْتَزَدْنَهُ فَزَادَهُنَّ شِبْرًا فَكُنَّ يُرْسِلْنَ إِلَيْنَا فَنَذْرَعُ لَهُنَّ ذِرَاعًا)
(ابوداؤد:4119، صححہ البانی)
तर्जमा: रसूलुल्लाह ﷺ ने उम्महात-उल-मोमिनीन रज़ियल्लाहु अन्हुमा को एक बालिश्त दामन (पल्लू) लटकाने की रुख़्सत (इजाज़त) दी तो उन्होंने इस से ज़ियादा की ख़्वाहिश ज़ाहिर की तो आप ﷺ ने उन्हें मज़ीद (और भी) एक बालिश्त की रुख़्सत (इजाज़त) दे दी चुनांचे (इसलिए) उम्महात-उल-मोमिनीन हमारे पास कपड़े भेजती तो हम उन्हें एक हाथ नाप दिया करते थे।
(अबू दाऊद:4119 सहीह अल्बानी)
  यहां एक बालिश्त से मुराद निस्फ़ (आधी) पिंडली से एक बालिश्त है जिस की इजाज़त रसूल ﷺ ने दी सहाबियात में पर्दा का शौक़ देखे वो मज़ीद पर्दा का मुतालबा (अनुरोध) करती हैं फिर आप ﷺ ने मज़ीद (और भी) एक बालिश्त की इजाज़त दे दी इस तरह मर्दों के मुक़ाबला में औरत को अपना लिबास (कपड़े) निस्फ़ (आधी) पिंडली से दो बालिश्त नीचे तक रखना है दो बालिश्त बराबर एक हाथ होता है इसलिए इब्ने उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा निस्फ़ साक़ (आधी पिंडली) से एक हाथ कपड़ा नापते थे यहां एक और हदीष मुलाहज़ा (अध्यन) करे एक ख़ातून (औरत) आप ﷺ से यह सवाल करती हैं कि मैंने 'अर्ज़ (अनुरोध) किया: अल्लाह के रसूल हमारा मस्जिद तक जाने का रास्ता ग़लीज़ (गंदा) और गंदगियों वाला है तो जब बारिश हो जाए तो हम क्या करे ?
आप ﷺ ने फ़रमाया: क्या इस के आगे फिर कोई इस से बेहतर और पाक रास्ता नहीं है ? मैंने कहा: हां है आप ﷺ ने फ़रमाया: तो यह इस का जवाब है।
(अबू दाऊद:384 सहीह अल्बानी)
  इस हदीष से भी औरत का लिबास ज़मीन से घिसट कर चलने की दलील मिलती है और यहां पर्दा की इस तफ़्सील का मक़्सद है कि आज की ख़वातीन (औरतें) इन बातों से नसीहत हासिल करे और अपनी इस्लाह करे।
(3) तीसरी चीज़ यह है कि औरत ख़ुशबू लगा कर बाहर न निकले अबू मूसा अश'अरी रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि नबी-ए-करीम ﷺ ने फ़रमाया:
( كلُّ عينٍ زانيةٌ ، والمرأةُ إذا استعطَرَت فمرَّت بالمَجلسِ ، فَهيَ كذا وَكذا. يعني زانيةً)
 (صحيح الترمذي:2786)
तर्जमा: हर आंख ज़िना-कार है और औरत जब ख़ुशबू लगा कर मजलिस के पास से गुज़रे तो वो भी ऐसी-ऐसी है या'नी (मतलब यह कि) वो भी ज़ानिया है।
(सहीह तिर्मिज़ी:2786)
  इस हदीष में ख़ुशबू लगा कर घर से बाहर निकलने वाली औरत के लिए किस-क़दर व'ईद (धमकी) है 
ऐसी औरत को ज़ानिया कहा गया है क्यूंकि (इसलिए कि) इस ख़ुशबू से लोग उस की तरफ़ माएल (आकर्षित) होगे या'नी वो लोगों को अपनी तरफ़ माएल (आकर्षित) करने का सबब (कारण) बन रही है इसलिए उसके वास्ते सख़्त व'ईद (धमकी) है यही वजह (कारण) है कि औरत को घर से मस्जिद के लिए आने की इजाज़त है लेकिन औरत ने ख़ुशबू लगाई हो तो इस सूरत (स्थिति) में उसे मस्जिद आने की इजाज़त नहीं है अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं कि रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया:
(أيُّما امرأةٍ أصابت بخورًا فلا تشهدنَّ معنا العشاءَ)
(صحيح أبي داود:4175)
तर्जमा: जिस औरत ने ख़ुशबू की धूनी (धुआँ) ले रखी हो तो वो हमारे साथ 'इशा के लिए (मस्जिद में) न आए।
(सहीह अबू दाऊद:4175)
  इस जगह यह भी ध्यान रहे कि चूड़ी या पाज़ेब (पायल) या कोई ऐसी चीज़ न लगा कर निकले जिससे चलते वक़्त झंकार और आवाज
पैदा हो क्यूंकि लोग इस आवाज की तरफ़ माएल (आकर्षित) होगे हत्ता कि माएल (आकर्षित) करने वाले पुर-कशिश (खींचने वाले) लिबास (कपड़े) और माएल (आकर्षित) करने वाली कोई सिफ़त (गुण) भी न अपनाए नबी ﷺ ने माएल (आकर्षित) करने वाली औरत और माएल (आकर्षित) वाली औरत (सीधी राह से) के बारे में फ़रमाया:
(لَا يَدْخُلْنَ الْجَنَّةَ وَلَا يَجِدْنَ رِيحَهَا، وَإِنَّ رِيحَهَا لَيُوجَدُ مِنْ مَسِيرَةِ كَذَا وَكَذَا)
(مسلم:2128)
तर्जमा: वो जन्नत में न जाएगी बल्कि (किंतु) उस की ख़ुशबू भी उन को न मिलेगी हालांकि जन्नत की ख़ुशबू इतनी दूर से आ रही होगी।
(सहीह मुस्लिम:2128)
  इन बुनियादी बातों को ज़ेहन (मन) में रखते हुए राह (रास्ते में) चलते वक़्त एक औरत को मुंदरिजा-ज़ेल (नीचे लिखी हुई) बातें ध्यान में रखनी चाहिए।
🔹इस त'अल्लुक़ (संबंध) से सबसे पहली बात यह है कि औरत सड़क के किनारे से चले क्यूंकि (इसलिए कि) नबी ﷺ ने औरतों को दरमियान सड़क (रास्ते के बीच में) चलने से मना' फ़रमाया है:
सय्यदना अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु बयान करते हैं कि रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया:
(ليس لِلنِّساءِ وسَطُ الطَّرِيقِ)( السلسلة الصحيحة:856)
तर्जमा: औरतों के लिए रास्ते के दरमियान में (बीच में) चलना दुरुस्त (सही) नहीं।
(अल-सिलसिला अल-सहीहा:856)
  वैसे आजकल गाड़ियों की वजह (कारण) से 'उमूमन (आम तौर पर) दरमियान सड़क चलना सब के लिए मुश्किल है फिर भी मुख़्तलिफ़ रास्ते अभी भी ऐसे हैं जहां पूरे सड़क पर लोग चलते हैं ऐसे में औरतों को किनारे से चलना चाहिए।
  अबू उसैद अंसारी रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है:
(أنَّه سَمِعَ رسولَ اللهِ صلَّى اللهُ عليه وسلَّمَ يقولُ وهو خارِجٌ من المسجِدِ، فاختَلَطَ الرِّجالُ مع النِّساءِ في الطَّريقِ، فقال رسولُ اللهِ صلَّى اللهُ عليه وسلَّمَ للنِّساءِ: استَأخِرْنَ؛ فإنَّه ليس لَكُنَّ أنْ تَحقُقْنَ الطَّريقَ، عليكُنَّ بحافَاتِ الطَّريقِ. قال: فكانتِ المرأةُ تَلصَقُ بالجِدارِ حتى إنَّ ثَوبَها ليتعلَّقُ بالجِدارِ من لُصوقِها به)
(سنن ابی داؤد:5272، حسنہ البانی)
तर्जमा: उन्होंने रसूलुल्लाह ﷺ को उस वक़्त फ़रमाते हुए सुना जब आप ﷺ मस्जिद से बाहर निकल रहे थे और लोग रास्ते में औरतों में मिल जुल गए थे तो रसूलुल्लाह ﷺ ने औरतों से फ़रमाया: "तुम पीछे हट जाओ तुम्हारे लिए रास्ते के दरमियान (बीच में) से चलना ठीक नहीं तुम्हारे लिए रास्ते के किनारे किनारे चलना मुनासिब (ठीक) है"
फिर तो ऐसा हो गया कि औरतें दीवार से चिपक कर चलने लगी यहां तक कि उनके कपड़े (दुपट्टे वग़ैरा) दीवार में फंस जाते थे।
(सुनन अबू दाऊद:5272 हसन अल्बानी)
  ज़रा ग़ौर फ़रमाए कि जब नबी ﷺ की तरफ़ से कोई फ़रमान (हुक्म) आ जाता तो इस पर 'अमल करने में सहाबियात किस-क़दर (कितना) शौक़ दिखाती थी- सुब्हान-अल्लाह।
🔹राह (रास्ते में) चलते हुए औरतों के लिए एक अहम (बहुत ज़रूरी) शर'ई हुक्म (शरी'अत हुक्म) निगाह (नजर) नीची कर के चलना है निगाह (नजर) नीची करने का हुक्म मर्दों को भी दिया गया है और ख़ुसूसियत (पाबंदी) के साथ औरतों को भी इस का हुक्म दिया गया अल्लाह-त'आला फ़रमान है:
(وَقُل لِّلْمُؤْمِنَاتِ يَغْضُضْنَ مِنْ أَبْصَارِهِنَّ وَيَحْفَظْنَ فُرُوجَهُنَّ وَلَا يُبْدِينَ زِينَتَهُنَّ إِلَّا مَا ظَهَرَ مِنْهَا ۖ وَلْيَضْرِبْنَ بِخُمُرِهِنَّ عَلَىٰ جُيُوبِهِنَّ)
(النور:31)
तर्जमा: और मुसलमान औरतों से कहो कि वो भी अपनी निगाहें (नज़रें) नीची रखे और अपनी 'इस्मत (आबरू) में फ़र्क़ न आने दें और अपनी ज़ीनत को ज़ाहिर न करे सिवाए इस के जो ज़ाहिर है और अपने गिरेबानों पर अपनी ओढ़नियां डाले रहे।
(सूरा अन्-नूर:31)
  यह आयत 'आम हालात में भी जहां अजनबी मर्द हज़रात (लोग) हो या राह (रास्ता) चलते हुए या सफ़र करते हुए एक औरत को अपनी निगाहें (नज़रें) नीची कर के ज़ीनत (सुंदरता) को छुपाते हुए और अपने सीनों (छाती) पर ओढ़नी डाले हुए रखे गोया (जैसे) राह (रास्ता) चलते वक़्त एक औरत को बुनियादी तौर पर इन बातों को 'अमल (काम) में लाना है।
🔹मज़कूरा आयत की रौशनी-में यह भी मा'लूम होता है कि औरत इधर-उधर नज़रें घुमाते हुए हर चीज़ को घूरते और देखते हुए और चारों तरफ़ इल्तिफ़ात (ध्यान) करते हुए न चले बल्कि (किंतु) सर झुका कर निगाहें (नज़रें) नीची कर के और सामने देखते हुए चले और ज़रूरत के वक़्त ही नज़र उठाए और इल्तिफ़ात (तवज्जोह) करे 
अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु नबी ﷺ के चलने की कैफ़ियत (दशा) बताते हुए कहते हैं:
(اتَّبَعْتُ النبيَّ صَلَّى اللهُ عليه وسلَّمَ، وخَرَجَ لِحَاجَتِهِ، فَكانَ لا يَلْتَفِتُ، فَدَنَوْتُ منه)
(صحيح البخاري:155)
तर्जमा: रसूलुल्लाह ﷺ (एक मर्तबा) रफ़ा'-ए-हाजत (पाख़ाना) के लिए तशरीफ़ ले गए आप ﷺ की 'आदत मुबारक थी कि आप ﷺ (चलते वक़्त) इधर-उधर नहीं देखा करते थे तो मैं भी आप ﷺ के पीछे-पीछे आप ﷺ के क़रीब पहुंच गया।
(सहीह बुख़ारी:155)
  और भी अहादीस में है कि आप ﷺ चलते हुए इधर-उधर इल्तिफ़ात (तवज्जोह) नहीं करते जैसे ज़ाबिर बिन अब्दुल्लाह रज़ियल्लाहु अन्हु रिवायत करते हैं:
(كان لا يَلْتَفِتُ ورَاءَهُ إذا مَشَى)(صحيح الجامع:4870)
तर्जमा: या'नी नबी ﷺ चलते वक़्त पीछे मुड़ कर नहीं देखा करते थे।
(सहीह अल-जामे':4870)
  और एक रिवायत में इस तरह है:
(كان إذا مَشَى لَم يلتَفِت)
(صحيح الجامع :4786)
तर्जमा: या'नी आप ﷺ जब चलते तो इधर-उधर इल्तिफ़ात (तवज्जोह) नहीं फ़रमाते।
(सहीह अल-जामे':4786)
  जब मर्द की हैसियत से नबी ﷺ का यह हाल है तो एक औरत जो सरापा (सर से लेकर पांव तक) पर्दा है इस को और भी इस मु'आमला में हस्सास रहना चाहिए।
🔹औरत के लिए पैर (पांव) मार कर या'नी पटख़ पटख़ कर चलने की मुमान'अत (मनाही) है अल्लाह-त'आला फ़रमाता है:
(وَلَا يَضْرِبْنَ بِأَرْجُلِهِنَّ لِيُعْلَمَ مَا يُخْفِينَ مِن زِينَتِهِنَّ)
(النور:31)
तर्जमा: और इस तरह ज़ोर-ज़ोर से पांव मार कर न चले कि उन की पोशीदा ज़ीनत मा'लूम हो जाए।
(सूरा अन्-नूर :31)
  इस आयत में औरत की चाल पर पाबंदी लगाई जा रही है कि वो अपने पैरों को ज़मीन पर मार कर न चले जिस से उसके पैरों की ज़ीनत ज़ाहिर हो जाए या पाज़ेब (पायल) वग़ैरा की झंकार (आवाज़) सुनाई देने लगे औरत 'आम चाल जिस में संजीदगी (गंभीरता) और वक़ार (एहतिराम) हो इस तरह चले।
🔹औरत का ज़ेवर उस की शर्म-ओ-हया है और यह ज़ेवर औरत के साथ हमेशा होना चाहिए जब घर से निकले तो राह (रास्ते में) चलते हुए हया (शर्म) के साथ चले और फ़ाहिशा (बद-कार) औरत की तरह मटक-मटक कर नाज़-ओ-अदा (नख़रे) के साथ न चले आप ने मूसा अलैहिस्सलाम के मदयन सफ़र से मुत'अल्लिक़ (बारे में) दो बहनों का क़िस्सा पढ़ा होगा इस क़िस्सा में एक बहन के आने का ज़िक्र कुछ इस अंदाज़ में है:
(فَجَاءَتْهُ إِحْدَاهُمَا تَمْشِي عَلَى اسْتِحْيَاءٍ)
(القصص:25)
तर्जमा: इतने-में उन दोनों औरतों में से एक उनकी तरफ़ शर्म-ओ-हया से चलती हुई आई।
(सूरा अल्-क़सस:25)
  मूसा अलैहिस्सलाम ने अल्लाह से ख़ैर-ओ-भलाई नाज़िल करने की दु'आ की थी अल्लाह ने दु'आ क़ुबूल फ़रमाईं और दो बहनों में एक हया के साथ मूसा अलैहिस्सलाम के पास आई और कहने लगी कि मेरे बाप आप को बुला रहे हैं ताकि आप ने हमारे (जानवरों) को जो पानी पिलाया है उसकी उजरत (मज़दूरी) दे।
🔹अल्लाह ज़मीन में किसी के लिए ग़ुरूर-व-तकब्बुर (घमंड) से चलना रवा (जाएज़) नहीं है ख़्वाह (चाहे) औरत हो या मर्द और औरत तो सिंफ़-ए-नाज़ुक है उसे मर्द के मुक़ाबला और भी तवाज़ो' ('इज़्ज़त) के साथ चलना चाहिए और अल्लाह को अकड़ू वाली अदा हरगिज़ पसंद नहीं है इसलिए इस ने अपने बंदों को ज़मीन में अकड़ कर चलने से मना फ़रमाया है और ब-तौर-ए-'इबरत बनी-इस्राईल का यह वाक़ि'आ भी मुलाहज़ा फ़रमाए अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से मर्वी (रिवायत) है उन्होंने बयान किया कि नबी ﷺ ने फ़रमाया:
(بيْنَما رَجُلٌ يَمْشِي في حُلَّةٍ، تُعْجِبُهُ نَفْسُهُ، مُرَجِّلٌ جُمَّتَهُ، إِذْ خَسَفَ اللَّهُ بِهِ، فَهو يَتَجَلْجَلُ إلى يَومِ القِيَامَةِ)
(صحيح البخاري:5789)
तर्जमा: (बनी-इस्राईल में) एक शख़्स एक जोड़ा पहन कर किब्र-ओ-ग़ुरूर (घमंड) में सर-मस्त (मदहोश) सर के बालों में कंघी किए हुए अकड़ कर इतराता जा रहा था कि अल्लाह-त'आला ने उसे ज़मीन में धँसा दिया अब वो क़ियामत तक इस में तड़पता रहेगा या धँसता रहेगा।
(सहीह बुख़ारी:5789)
🔹राह (रास्ते में) चलते हुए बहुत सारे लोगों के पास से औरत का गुज़र हो सकता है ऐसे में किसी अजनबी मर्द को सलाम करना या किसी मर्द का औसत को सलाम करना कैसा है ?
  सह्ल रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है:
(كُنَّا نَفْرَحُ يَومَ الجُمُعَةِ قُلتُ: ولِمَ؟ قالَ: كَانَتْ لَنَا عَجُوزٌ، تُرْسِلُ إلى بُضَاعَةَ - قالَ ابنُ مَسْلَمَةَ: نَخْلٍ بالمَدِينَةِ - فَتَأْخُذُ مِن أُصُولِ السِّلْقِ، فَتَطْرَحُهُ في قِدْرٍ، وتُكَرْكِرُ حَبَّاتٍ مِن شَعِيرٍ، فَإِذَا صَلَّيْنَا الجُمُعَةَ انْصَرَفْنَا، ونُسَلِّمُ عَلَيْهَا فَتُقَدِّمُهُ إلَيْنَا، فَنَفْرَحُ مِن أجْلِهِ، وما كُنَّا نَقِيلُ ولَا نَتَغَدَّى إلَّا بَعْدَ الجُمُعَةِ)
(صحيح البخاري:6248)
तर्जमा: हम जुम'आ के दिन ख़ुश हुआ करते थे मैंने 'अर्ज़ (गुज़ारिश) की किस लिए ? फ़रमाया कि हमारी एक बुढ़िया थी जो मक़ाम-ए-बूज़ाआ जाया करती थी इब्ने सलमा ने कहा कि बूज़ाआ मदीना-मुनव्वरा का खजूर का एक बाग़ था फिर वो वहां से चुक़ंदर (beet) लाया करती थी और उसे हाँडी में डालती थी और जौ के कुछ दाने पीस कर (उसमें मिलाती थी) जब हम जुम'आ की नमाज़ पढ़ कर वापस होते तो उन्हें सलाम करने आते और वो यह चुक़ंदर की जड़ में आटा मिली हुई दा'वत हमारे सामने रखती थी हम इस वजह (कारण) से जुम'आ के दिन ख़ुश हुआ करते थे और क़ैलूला या दोपहर का खाना हम जुम'आ के बाद करते थे।
(सहीह बुख़ारी:6248)
  इस हदीष से मा'लूम होता है कि मर्द हज़रात औरत को सलाम कर सकते है इसलिए इमाम बुख़ारी रहिमहुल्लाह ने बाब बाँधा है 
(بَابُ تَسْلِيمِ الرِّجَالِ عَلَى النِّسَاءِ، وَالنِّسَاءِ عَلَى الرِّجَالِ)
(बाब: मर्दों का औरतों को सलाम करना और औरतों का मर्दों को)
  नबी ﷺ भी औरतों को सलाम करते थे शहर बिन हौशब कहते हैं कि उन्हें असमा बिंत यज़ीद रज़ियल्लाहु अन्हा ने ख़बर दी है:
(مرَّ علينا النبيُّ صلَّى اللهُ عليهِ وسلَّمَ في نسوةٍ، فسلَّم علينا)
( صحيح أبي داود:5204)
तर्जमा: हम औरतों के पास से नबी-ए-करीम ﷺ गुज़रे तो आप ﷺ ने हमें सलाम किया।
(सहीह अबू दाऊद:5204)
  उम्मा हानी बिंत अबू-तालिब जो नबी ﷺ की चचा-ज़ाद बहन थी रिश्ते में आप उनके लिए ग़ैर-महरम हुए इस के बावुजूद उन्होंने (फ़त्ह मक्का के मौक़ा' से) आप ﷺ को सलाम किया।
(देखें: सहीह बुख़ारी:6158)
  इन तमाम बातों का ख़ुलासा (निचोड़) यह है कि औरत मर्द को और मर्द औरत को सलाम कर सकते है जब फ़ित्ना का ख़ौफ़ (डर) न हो मसलन (जैसे) 'उम्र-ए-दराज़ से या औरतों और मर्दों की जमा'अत में या महरम की मौजूदगी में (सामने) लेकिन फ़ित्ना का अंदेशा हो तो सलाम तर्क कर देना बेहतर है और यह हुक्म मा'लूम रहे कि सलाम करना वाजिब नहीं सुन्नत है।
  आख़िरी कलाम (बात)
अल्लाह ने औरत को मर्दों से बिल्कुल अलग साख़्त (बनावट) और ख़ुसूसिय्यात दे कर पैदा फ़रमाया है इसलिए औरत सरापा (संपूर्ण) पर्दा कही जाती है और उस की ज़िंदगी में हमेशा पर्दा नुमायाँ रहना चाहिए यह पर्दा लिबास-व-पोशाक के साथ, चाल-चलन, मु'आमलात और गुफ़्तुगू (बात-चीत) में भी झलकना चाहिए मुंदरिजा-ए-बाला (ऊपर लिखी हुई) सुतूर (लकीरें) में औरत के राह (रास्ते में) चलने से मुत'अल्लिक़ (बारे में) चंद अहम-उमूर (महत्वपूर्ण बातें) बयान कर दिए गए हैं इन के 'अलावा (सिवा) भी मज़ीद (और भी) मसाइल हो सकते हैं ताहम (फिर भी) बुनियादी चीज़ों का ज़िक्र हो चुका है इस के साथ सरसरी तौर पर यह बातें भी औरतों के 'इल्म में रहे कि वो फ़ैशन वाले लिबास, 'उर्यां लिबास (बे-पर्दा) शोहरत और फ़ुहश (बद-कार) औरतों के लिबास लगा कर बाहर न निकले इस से फ़ित्ना भी फैलेगा और औरत गुनाहगार भी होगी इसी तरह हील वाली सैंडल लगा कर बाहर न निकले, राह (रास्ते में) चलते हुए हँसी-मज़ाक़, बिला-ज़रूरत ज़ोर-ज़ोर से बातें करना, मोबाइल पर गुफ़्तुगू (बात-चीत) करते हुए चलना, लोगों की भीड़ में रुक कर बिला ज़रूरत सलाम-ओ-कलाम करना और मर्दों की तरफ़ बिला ज़रूरत नज़रें उठाना वग़ैरा औरतों के हक़ में मुनासिब (ठीक) नहीं है औरत मर्द की मुशाबहत इख़्तियार न करे यह ला'नत का सबब (कारण) है।
(عَنِ ابْنِ عَبَّاسٍ رَضِيَ اللَّهُ عَنْهُمَا، قَالَ:" لَعَنَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ الْمُتَشَبِّهِينَ مِنَ الرِّجَالِ بِالنِّسَاءِ، وَالْمُتَشَبِّهَاتِ مِنَ النِّسَاءِ بِالرِّجَالِ)
(صحيح البخاري:5885)
तर्जमा: इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा ने बयान किया कि रसूलुल्लाह ﷺ ने उन मर्दों पर ला'नत भेजी जो औरतों जैसा चाल-चलन इख़्तियार करे और उन औरतों पर ला'नत भेजी जो मर्दों जैसा चाल-चलन इख़्तियार करे।
(सहीह बुख़ारी:5885) 
  हत्ता कि मुसलमान औरत काफ़िरा और फ़ाहिशा औरत की कोई मज़्मूम (ख़राब) और फ़ुहश (अश्लील) चीज़ और बुरी सिफ़त (गुण) की नक़्क़ाली (अनुकरण) न करे और यह मा'लूम रहे कि औरत मा'मूली दूरी तक तो अकेले जा सकती है लेकिन कहीं दूसरी जगह का सफ़र करना हो तो बग़ैर महरम सफ़र करना जाएज़ नहीं है बल्कि ज़रूरत के वक़्त ग़ैर-मामून जगहों पर भी औरत अकेली न जाए ख़्वाह (चाहे) वो जगह नज़दीक ही क्यूं न हो आजकल (इस समय) मा'मूली दूरी भी लोग सवारी से तय करते हैं ऐसे में औरत को सवारी में मर्दों से हटकर बैठना चाहिए और बहुत अफ़सोस (दुःख) के साथ कहना पड़ता है कि बा'ज़ (कुछ) औरतें ग़ैर-महरम के साथ मोटर-साइकिल पर सट कर बैठती हैं यह 'अमल (काम) जाएज़ नहीं है।
अल्लाह-त'आला से दु'आ करता हूं कि मुस्लिम मां बहनों को दीन पर चलने की तौफ़ीक़ दे उन्हें शर'ई हिजाब अपनाने और शर'ई हुदूद में रहते हुए आमद-ओ-रफ़्त करने (आने-जाने) की तौफ़ीक़ दे।
आमीन
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क्या बौसीदा क़ब्र को ठीक कर सकते हैं?

 क्या बौसीदा क़ब्र को ठीक कर सकते हैं? 

जवाब: नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने हमे मय्यत को ज़मीन खोद कर और ज़मीन मे यानी मिट्टी वाली क़ब्र मे दफ़्न करने का हुक्म फ़रमाया है और क़ब्र को पक्की करने से सीमिंट-चूना और गाढ़ा करने से मना किया है।
हज़रत जाबिर रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है की रसूलुल्लाह (ﷺ) ने पुख़्ता क़ब्रे बनाने और और उनपर बैठने और इमारत तामीर करने से मना फ़र्माया है। 
[सहीह मुस्लिम 2245 (970)] 
उसकी हिकमत यह है कि क़ब्र की इबादत नही की जाएगी, क़ब्र की हिफ़ाज़त नही की जाएगी, क़ब्र मे मुर्दे को दफ़्न करने के बाद कुछ महीनों मे मय्यत की बॉडी ख़त्म हो जाती है, मिट्टी मे सढ़ गल जाती है और उस क़ब्र की हिफ़ाज़त करने का इस्लाम ने हमे हुक्म नही दिया है इसलिए अगर कोई क़ब्र कुछ महीनों बाद, कुछ सालो बाद टूट जाए, ढह जाए, धस जाए या ख़त्म हो जाए तो उसमे कुछ नही करना है और उसको (क़ब्र को) ठीक ठाक करना - दुरुस्त करना, सजाना-संवारना इन सब की कोई ज़रूरत नही है क्योंकि ना कभी ऐसा किया गया है हमारे असलाफ़ से साबित है, नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से ऐसा साबित है और ना ही क़ब्र के लिए ऐसा करना साबित है, इंसान जैसे पैदा हुआ ख़त्म हो गया, मिट्टी मे मिल गया, अब उसको मज़ीद दोबारा सजाने-संवारने की ज़रूरत नही, जो क़ब्र धस जाए, ख़त्म हो जाए, कुछ महीनो-सालों के बाद तो इसमे कुछ नही होता है फिर उसको ठीक ठाक करने की वैसे भी ज़रूरत नही है।
~ shaikh Maqubool Ahmad Salafi Hafizahullaah

अहले तक़लीद को सलफ़ियत से ख़ौफ़ क्यों?


 अहले तक़लीद को सलफ़ियत से ख़ौफ़ क्यों?
तहरीर: शैख़ मक़बूल अहमद सलफ़ी हाफ़िज़ाहुल्लाह
हिंदी मुतर्जिम: हसन फ़ुज़ैल 

सलफ़ियत रसूलुल्लाह ﷺ और आप के असहाब का तरीक़ा और मनहज है। सलफ़ी हज़रात इसी मनहज और तरीक़े के ऐन मुताबिक़ अपनी ज़िन्दगी गुज़ारते हैं। उम्मत-ए-मुस्लिमा में सलफ़ी के अलावा तमाम फ़िरक़े, जमाअतें और मसालिक अहकाम और मसाइल में मनहज-ए-नबवी और मनहज-ए-सहाबा से मुन्हरिफ़ हैं बल्कि बहुत सारे फ़िरकों में अक़ाइद की गुमराहियाँ भी पाई जाती हैं और शिर्क और बिदअत से तो सिर्फ़ सलफ़ी ही पाक और साफ़ हैं। कोई माने या न माने मगर मेरा यह मानना है कि अगर कोई जमाअत दीन इस्लाम के लिए मुख़्लिस है, वह क़ुरआन और हदीस पर चलने का दावा करती है और वह अपने दावे में सच्ची और पक्की है तो इस जमाअत को भी सलफ़ी, अहले हदीस और मुहम्मदी कह सकते हैं। मगर क्या आपको मालूम है कि अहले तक़लीद और ख़ास मस्लक की तक़लीद करने वाले ख़ुद को मुहम्मद ﷺ की तरफ़, सहाबा की तरफ़ और मुहद्दिसीन की तरफ़ निस्बत करके मुहम्मदी, सलफ़ी और अहले हदीस क्यों नहीं कहलवाते? क्यों कि वह क़ुरआन और हदीस की तालीमात से दूर हैं। अगर वह दावा भी करें कि हम क़ुरआन और हदीस के मानने वाले हैं तो वह अपने दावा में झूठे हैं। सभी जानते हैं कि दावा बग़ैर दलील के बातिल है।
इस्लाम का एक अहम उसूल है कि कोई दावा हम बग़ैर दलील के तस्लीम नहीं करेंगे क्योंकि हमारा दीन दलील और सबूत पर क़ाइम है। अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु बयान करते हैं कि नबी ﷺ ने फ़रमाया:
لو يعطي الناس بدعواهم لادعى ناس دماء رجال وأموالهم ولكن اليمين على المدعى عليه.(صحيح مسلم:1711)
तर्जुमा: अगर सिर्फ़ दावा की वजह से लोगों के मुतालबे मान लिए जाने लगे तो बहुतों का ख़ून और माल बर्बाद हो जाएगा, लेकिन क़सम मुद्दआ अलैह पर है।
यह हदीस हमें बतलाती है कि दावा करने वाले पर लाज़िमन दलील देनी है, बग़ैर दलील के कोई दावा तस्लीम नहीं किया जाएगा और जो किसी मामले में इंकार करे तो उसे क़सम खानी है। मुदआ के ज़िम्मा दलील और बुरहान देना है। इसकी एक वाज़ेह हदीस यह है।
البينة على المدعي واليمين على من أنكر.(ارواه الغليل:2685)
तर्जुमा: दलील देना उसके ऊपर है जो दावा करे और क़सम खाना उसके ऊपर है जो इंकार करे।
अल-मुहिम, यह बात साफ़ हो गई कि अहले तक़लीद ख़ुद को सलफ़ी, अहले हदीस और मुहम्मदी नहीं कह सकते। वजह साफ़ ज़ाहिर है। एक अदना और मामूली जगह की तरफ़ निस्बत करके देवबंदी और बरेलवी कहलाने पर फ़ख़्र करते हैं मगर सलफ़ी और मुहम्मदी कहलाने में ख़ौफ़ क्यों है? दरअसल सलफ़ियत से उन्हें दुश्मनी है। सलफ़ की तालीमात से कोसों दूर हैं और क़ुरआन और हदीस के नाम पर ख़ुद साख़्ता मलफ़ूज़ात पर कारबंद हैं।
सलफ़ियत एक साफ़ और शफ़्फ़ाफ़ मनहज है जो हमें रसूलुल्लाह ﷺ ने अता फ़रमाया है और जिस पर ख़ैरुल क़ुरून के मुसलमान चलकर दिखाए हैं। रही नसीब जो ख़ैरुल क़ुरून का मनहज इख़्तियार करते हैं और वाए बदनसीबी जो बाद के ज़माने वालों की तक़लीद करते हैं। नबी ﷺ का फ़रमान सादिक़ आ रहा है:
اتخذ الناس رؤوسا جهالا فسئلوا فافتوا بغير علم فضلوا واضلوا.(صحيح مسلم:2673)
तर्जुमा: लोग जाहिलों को सरदार बना लेंगे। उनसे सवालात किए जाएंगे और ये बग़ैर इल्म के जवाब देंगे, इसलिए ख़ुद भी गुमराह होंगे और लोगों को भी गुमराह करेंगे।
आज के ज़माने में अहले तक़लीद के सलफ़ियों के साथ मुत'अस्सबाना (तास्सुब से भरा हुआ) सुलूक, जाहिलाना रवैया, पुर तशद्दुद मामला और मुजरिमाना किरदार से एक बात तो रोज़-ए-रोशन की तरह ज़ाहिर होकर हर कस-ओ-ना-कस (हर आदमी) पर वाशिगाफ़ (साफ़) हो गई है कि उनके दिल में मनहज-ए-सलफ़ पर चलने वालों के लिए वही नफ़रत और दुश्मनी है जो काफ़िरों को इस्लाम के लिए होती है। 
अहले हदीस मसाजिद का इंहिदाम (ढाना), अल्लाह के पाकीज़ा घरों पर कब्ज़ा, मसाजिद और मदरिस में मुवह्हिद के ख़िलाफ़ नापाक मंसूबे हैं। बस्ती के सलफ़ी मुसलमानों के साथ ज़ुल्म और ज़्यादती, दिन और रात 'वहाबी' का ताना, उनका सोशल बहिष्कार, हुकूमत के नापाक अजाइम में इमदाद, मासूमों पर फ़र्ज़ी मुकद्दमात, अहले हदीस के ख़िलाफ़ अवाम को मुश्त'इल करना, काफ़िरों से जिहाद की तरह अपने तलबा को मुनाज़रा बाज़ी का फ़न सिखाना, सलफ़ियों से लेन-देन, शादी-ब्याह, यहाँ तक कि उनके मसाजिद और मदारिस और उनकी किताबों से कुल्ली तौर पर अवाम और ख़वास को दूर रहने की तालीम देना, सलफ़ी मुसलमानों और सलफ़ी तंज़ीम की तरफ़ दहशतगर्दी का इन्तिसाब करना, ख़ास किताब और सुन्नत की तालीम, उनकी नश्र-ओ-इशाअत और दावत और तबलीग़ में रुकावट डालना - यह सारे घिनौने काम अगर काफ़िर करते तो इस क़दर हैरानी नहीं होती, जितनी हैरानी उन लोगों पर है जो इकराम मुस्लिम का दर्स देने वाले, नबवी मिशन तबलीग़ के नाम पर दिन-रात गली-कूचे घूमने वाले हैं।
डॉक्टर ज़ाकिर नाइक को दावत और तबलीग़ से रोकने, हिंदुस्तान में उन पर अर्सा-ए-हयात तंग करने, उन्हें दहशतगर्द क़रार देने, उनकी मिशन की दहशतगर्दी से जोड़ने और ख़ालिस किताब और सुन्नत की तालीम आम होने से रोकने वाले अहले तक़लीद ही हैं। उन्होंने न किसी पर डाका डाला, न किसी की दुकान बंद की, न किसी पर ज़ुल्म और सितम किए, न किसी का घर उजाड़ा, न किसी का क़त्ल किया। तौहीद की दावत देना अगर जुर्म है तो बस एक यही जुर्म किया जो अंबिया ने भी किया। ख़ालिस तौहीद की दावत दी, लोगों को एक अल्लाह का सजदा करने की तरफ़ बुलाया। उस काम की सज़ा जिस तरह अंबिया को काफ़िरों ने दी, उसी तरह डॉक्टर ज़ाकिर नाइक को हिंदुस्तान के सलफ़ियों से ख़ाइफ़ मुसलमानों ने दी। किस क़दर काफ़िरों के अतवार (तौर तरीक़े) और आज के झूठे मुसलमानों के किरदार में मुसावात पाया जाता है?
ख़ैर, अल्लाह का दीन किसी का मोहताज नहीं है। किसी एक को दावत से रोक देने पर यह दीन मिटेगा भी नहीं। अल्लाह जिस से चाहता है, अपने दीन का काम लेता है और यह दीन ग़ालिब हो कर रहेगा, हालांकि लोग दीन-ए-हक़ और मनहज-ए-सलफ़ से दुश्मनी करते रहें।
अंग्रेज़ों ने वतन का सच्चा पासबान और सही माने में असली मुसलमान सलफ़ियों को ही समझा। इसी लिए उन्हें ही अपना सबसे बड़ा दुश्मन समझकर ख़ास निशाना बनाया और 'वहाबी' कहकर पुकारा। इस वक़्त न सिर्फ़ हिंदुस्तान में बल्कि चारों ओर आलम में सलफ़ियों से काफ़िरों की और तमाम मसालिक के मुसलमानों की खुली और सख़्त दुश्मनी ज़ाहिर करती है कि हम सलफ़ी ही सच्चे पाक मुसलमान हैं जो हक़ीक़ी तौर पर सिरात-ए-मुस्तक़ीम पर ग़ामज़न हैं। हमारी ख़ालिस तौहीद की दावत से जहाँ काफ़िर ख़ाइफ़ (ख़ौफ़ज़दा) हैं, वहीं ख़ुद सख़्ता मसलक पर भी ख़ौफ़ का घेरा असर है। 
एक तरफ़ कलमा तौहीद पढ़कर नए-नए मुसलमान इस्लाम में जौक़-दर-जौक़ (गिरोह के गिरोह) दाख़िल हो रहे हैं, तो दूसरी तरफ़ तक़लीद और शिर्क और बिदअत से तौबा करके बहुत सारे लोग सच्चे पाक सलफ़ी बन रहे हैं। क्यों न काफ़िरों को सलफ़ी से ख़ौफ़ हो और क्यों न हम अहले तक़लीद की नज़र में दहशतगर्द क़रार पाए?
अपने साथ इस क़दर ज़ुल्म और ज़्यादती होने के बावजूद हमने अहले तक़लीद को दुश्मन कहकर नहीं पुकारा, न कोई इल्ज़ाम लगाया और न कभी ताना कशी की। किसी मस्जिद या मदरसा पर क़ब्ज़ा नहीं किया, कोर्ट-कचहरी में फ़र्ज़ी केस दर्ज नहीं किया, हुकूमत के लिए किसी मासूम को आला कार नहीं बनाया। हमने हमेशा अपने सब्र का दामन वसी रखा, ताना कशी के बावजूद ज़बान पर हरूफ़-ए-शिकायत नहीं आने दिए।
तथापि आज जब हिंदुस्तानी पार्लियामेंट में मदरसा से फ़ारिग़ तहसील सलफ़ी ममालिक के रियालो से बदन का गोश्त और पोस्ट बढ़ाने वाला अपने चेहरे पर दाढ़ी की सुन्नत को सजाने वाला बदरुद्दीन अजमल ने सर बुरहान-ए-मुल्क के सामने सलफ़ियों को दहशतगर्द क़रार दे कर अपने मसलकी बुग़ज़ और अना की दो टोक अंदाज़ में ज़ाहिर कर दिया। हम तो जानते ही हैं कि उन्हें सलफ़ियत से ख़ुदा के वास्ते का बेर है। काफ़िरों ने भी इसका नज़ारा देखा। मुसलमानों के ऐसे ही ख़ूबसूरत नज़ारों से काफ़िरों को समझने में आसानी होती है और ज़मीर-फ़रोश मुल्लाओं के ज़मीर का सौदा करके फिर सच्चे मुसलमानों का क़त्ल-ए-आम करते हैं।
मैं आख़िर में सलफ़ियत से बुग़्ज़ रखने वालों को यह पैग़ाम देना चाहता हूँ कि एक दिन तुम्हारा सामना अल्लाह से होगा। इस्लाम का दावेदार हो कर मुसलमानों की ज़िल्लत और रुस्वाई का सामान बहम पहुँचाने वाले इस दीन की याद करो। जब तुम्हारे काले करतूत शर्मिंदगी के बोझ तले तुम्हें दबा देंगे, कुछ तो रब से मुलाक़ात का ख़ौफ़ खाओ। अपने भाइयों की गर्दन पर कब तक चाक़ू चलाते रहोगे?
 
कब तक मुसलमानों को मुसलमानों से जुदा करते रहोगे? कब तक अपने भाइयों को काफ़िरों के ज़ुल्म के हवाले करते रहोगे? कब तक मनहज-ए-सलफ़ से दुश्मनी निभाते रहोगे? अल्लाह ने तुम्हें एक उम्मत बना कर भेजा है, अपने भाइयों की मदद करने के लिए भेजा है, काफ़िरों से जिहाद करने और उन पर दीन-ए-हक़ पेश करने के लिए भेजा है। किताबुल्लाह और सुन्नत-ए-रसूल को मज़बूती से थामने के लिए भेजा है। ज़रा अपने पैदा होने का मक़सद भी याद करो, जिसे तुम भूल बैठे हो। दीन में अपने ही भाइयों के ख़िलाफ़ सियासी बाज़ीगरी करने से बाज़ आ जाओ। किताबुल्लाह और सुन्नत-ए-रसूल को हमारी तरह अपना मेयारी ज़िंदगी बना लो। फिर देखो हमारी ताक़त कितनी मज़बूत बन जाती है और कैसे काफ़िर सरकार हमसे थर्राती है। ऐ काश, के तुम जिस तरह मुहम्मद ﷺ से मुहब्बत का नारा लगाते हो, उनसे सच्ची मुहब्बत करते और उनके पैग़ाम को अपनी ज़िंदगी में नाफ़िज़ (लागू) करते।
हम अल्लाह से दुआ करते हैं कि तमाम मुसलमानों को दीन-ए-हक़ की समझ दे, उन्हें मस्लकी मुनाफ़रत (घृणा/द्वेष) से दूर करे, अक़ाइद और आमाल की इस्लाह फ़रमा दे और सबको एक प्लेटफॉर्म पर जमा कर के काफ़िरों और मुशरिकों पर ग़लबा अता फ़रमाए। आमीन।
~ Shaikh Maqubool Ahmad Salafi Hafizahullaah

क्या मय्यत को ग़ुस्ल देने वाला ग़ुस्ल करेगा या वुज़ू काफ़ी है?

 क्या मय्यत को ग़ुस्ल देने वाला ग़ुस्ल करेगा या वुज़ू काफ़ी है?
तहरीर:शैख़ मक़बूल अहमद सलफ़ी हाफ़िज़ाहुल्लाह
हिंदी मुतर्जिम: हसन फ़ुज़ैल 

मय्यत को ग़ुस्ल देने वाले से मुताल्लिक़ लोगों में 3 बातें हैं:
(1) वह ग़ुस्ल करे
(2) वह वुज़ू करे
(3) अगर वह पहले से वुज़ू कर चुका है तो सिर्फ़ हाथ धो ले
जो लोग मय्यत को ग़ुस्ल देने वालों के लिए ग़ुस्ल के वाजिब होने के क़ाइल हैं, उनकी दलील यह हदीस है। नबी ﷺ का फ़रमान है:
مَنْ غَسَّلَ الْمَيِّتَ فَلْيَغْتَسِلْ، وَمَنْ حَمَلَهُ فَلْيَتَوَضَّأْ​
तर्जुमा: जो शख़्स किसी मय्यत को नहलाए, ग़ुस्ल घुसल करे और जो उसे उठाए, वह वुज़ू करे।
(अबू दाऊद: 3161)
इसके अलावा एक और दलील मिलती है:
عَنْ عَائِشَةَ أَنَّهَا حَدَّثَتْهُ أَنَّ النَّبِيَّ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ كَانَ يَغْتَسِلُ مِنْ أَرْبَعٍ : مِنَ الْجَنَابَةِ، وَيَوْمَ الْجُمُعَةِ، وَمِنَ الْحِجَامَةِ، وَغُسْلِ الْمَيِّتِ​
तर्जुमा: उम्मुल मोमिनीन आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा ने बयान किया कि नबी ﷺ चार चीज़ों से ग़ुस्ल किया करते थे: जनाबत से, जुमे के दिन, हिजामा करवाने के बाद और मय्यत को ग़ुस्ल देने के बाद।
(अबू दाऊद: 3160। इस हदीस को अल्लामा अल्बानी रहिमहुल्लाह ने ज़ईफ क़रार दिया है)
अज़ीम आबादी साहब ने भी इसे ज़ईफ क़रार दिया है।
(औनुल माबूद: 8/243)
तो यह रिवायत ज़ईफ है इससे दलील नहीं पकड़ी जा सकती। रही बात उपर वाली पहली रिवायत की, तो वह रिवायत ज़ाहिरी तौर पर वाजिब होने का तक़ाज़ा कर रही है, मगर सही आसार से पता चलता है कि यहाँ वाजिब होने का इस्तिदलाल करना सही नहीं है।
पहला असर:
ليس عليكم في غسل ميتكم غسل إذا غسلتموه فإن ميتكم ليس بنجس فحسبكم ان تغسلوا ايديكم​
तर्जुमा: इब्न ए अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं कि मय्यत को ग़ुस्ल देने से तुम्हारे लिए ग़ुस्ल करना वाजिब नहीं है जब तक तुम उसे ग़ुस्ल दो क्योंकि तुम्हारा मय्यत नजिस (नापाक) नहीं होता तो तुम्हारा हाथ धो लेना ही काफ़ी है।
(सहीह उल जामी: 5408)
इमाम हाकिम, इमाम ज़हबी और अल्लामा अल्बानी रहिमहुल्लाह ने इसे सही क़रार दिया है और हाफिज़ इब्न ए हजर रहिमहुल्लाह ने हसन कहा है।
दूसरा असर:
عن ابن عمر كنا نغسل الميت فمنا من يغتسل ومنا من لا يغتسل​
तर्जुमा: इब्न ए उमर रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि हम लोग मय्यत को ग़ुस्ल देते थे, तो हम में से कुछ लोग ग़ुस्ल करते और कुछ ग़ुस्ल नहीं करते।
इस असर को अल्बानी रहिमहुल्लाह ने सही क़रार दिया है।
(अहकामुल जनाइज़: 72)
तीसरा असर:
इसी तरह असमा बिंत-ए-उमैस रज़ियल्लाहु अन्हा वाले असर से भी दलील मिलती है। जब उन्होंने अपने शौहर अबू बक्र सिद्धीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु को उनकी वफ़ात पर ग़ुस्ल दिया, तो उन्होंने मुहाजिरीन से पूछा कि सख़्त सर्दी है और मैं रोज़े से हूँ, क्या मुझे ग़ुस्ल करना पड़ेगा, तो सहाबा ने जवाब दिया कि नहीं।
(मुसन्नफ़ इब्न ए अबी शैबा: 6123, मुअत्ता इमाम मालिक: 521)
इन आसार को सामने रखते हुए यह साबित होता है कि मय्यत को ग़ुस्ल देने वाले के लिए ग़ुस्ल करना मुस्तहब है, अगर वह ग़ुस्ल न करे तो कोई हरज नहीं। यही मौक़िफ़ मुबारकपुरी रहिमहुल्लाह का है और उन्होंने तोहफ़ा उल एहवज़ी में इमाम शौकानी रहिमहुल्लाह से भी इसी मौक़िफ़ को नक़ल किया है, जो सारे दलील में जमा और ततबीक़ की सूरत है।
अलबत्ता वुज़ू के मुताल्लिक शैख़ इब्न ए बाज़ रहिमहुल्लाह ने ज़िक्र किया है कि मय्यत को ग़ुस्ल देने वाला वुज़ू ज़रूर करे, यह तमाम अहल ए इल्म का मौक़िफ़ है। यह वुज़ू नमाज़ ए जनाज़ा के लिए है जैसा कि हर नमाज़ के लिए करते हैं, बग़ैर वुज़ू के कोई नमाज़ नहीं होगी:
لا صلاةَ لمَن لا وُضوءَ لهُ
तर्जुमा: उसकी नमाज़ नहीं जिसकी वुज़ू नहीं है।
(सहीह उत तर्ग़ीब: 203)
अगर मय्यत को ग़ुस्ल देने वाला पहले से वुज़ू किया हुआ है और उसका हाथ मय्यत की शर्मगाह को लग गया, तो फिर वुज़ू करना वाजिब होगा क्योंकि शर्मगाह को हाथ लगाने से वुज़ू टूट जाता है। लेकिन अगर मय्यत की शर्मगाह को हाथ न लगे (और ग़ुस्ल देने में यही तरीक़ा अपनाए कि हाथ पर दस्ताना लगा ले और फिर मय्यत की गंदगी साफ़ करे) तो उसे वुज़ू करना ज़रूरी नहीं है लेकिन कम से कम हाथ धोना ज़रूरी है जैसा कि ऊपर सहीह उल जामे वाली रिवायत में ज़िक्र है।
मज़ीद चंद अहकाम व मसाइल:
अफ़ज़ल अमल: ग़ुस्ल देने वाले के हक़ में अफ़ज़ल यह है कि वह ग़ुस्ल कर ले ताकि इस्तिहबाब पर अमल भी हो जाए और मय्यत को ग़ुस्ल देने, उसे बार-बार देखने और हरकत देने से ज़ेहन में जो फितूर पैदा हो गया है वह दूर हो जाए और ताज़गी और नशीता हो जाए।
एहतियाती अमल: अगर ग़ुस्ल न कर सकें तो कम से कम वुज़ू कर लें, हालांकि उन्होंने पहले वुज़ू किया हुआ हो। अगर पहले वुज़ू नहीं किया तो नमाज़ ए जनाज़ा के लिए वुज़ू तो हर हाल में करना है।
जिसने मय्यत को ग़ुस्ल दिया है, उसे अपना कपड़ा उतारने या साफ़ करने की कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि जब उसे अपना बदन धोना ज़रूरी नहीं तो कपड़ा धोना तो और भी ज़रूरी नहीं होगा।
जनाज़े की नमाज़ के लिए किए गए वुज़ू से दूसरे वक्त की नमाज़ पढ़ सकता है क्योंकि इस वुज़ू और दूसरी नमाज़ के वुज़ू में कोई फ़र्क़ नहीं है।
यह क़ौल "ومن حمله فليتوضأ" (जो मय्यत को उठाए वह वुज़ू करे) इसका मतलब यह नहीं है कि जो मय्यत को कंधा दे वह सब वुज़ू करें। इसका मतलब यह है कि जो मय्यत को हरकत दे, इधर से उधर उठाकर रखे, एक चादर से दूसरी चादर पर ले जाए, वह वुज़ू करे। और इसमें जो वुज़ू का ज़िक्र है वह नमाज़ ए जनाज़ा के लिए वुज़ू करना है।