अहले तक़लीद को सलफ़ियत से ख़ौफ़ क्यों?
तहरीर: शैख़ मक़बूल अहमद सलफ़ी हाफ़िज़ाहुल्लाह
हिंदी मुतर्जिम: हसन फ़ुज़ैल सलफ़ियत रसूलुल्लाह ﷺ और आप के असहाब का तरीक़ा और मनहज है। सलफ़ी हज़रात इसी मनहज और तरीक़े के ऐन मुताबिक़ अपनी ज़िन्दगी गुज़ारते हैं। उम्मत-ए-मुस्लिमा में सलफ़ी के अलावा तमाम फ़िरक़े, जमाअतें और मसालिक अहकाम और मसाइल में मनहज-ए-नबवी और मनहज-ए-सहाबा से मुन्हरिफ़ हैं बल्कि बहुत सारे फ़िरकों में अक़ाइद की गुमराहियाँ भी पाई जाती हैं और शिर्क और बिदअत से तो सिर्फ़ सलफ़ी ही पाक और साफ़ हैं। कोई माने या न माने मगर मेरा यह मानना है कि अगर कोई जमाअत दीन इस्लाम के लिए मुख़्लिस है, वह क़ुरआन और हदीस पर चलने का दावा करती है और वह अपने दावे में सच्ची और पक्की है तो इस जमाअत को भी सलफ़ी, अहले हदीस और मुहम्मदी कह सकते हैं। मगर क्या आपको मालूम है कि अहले तक़लीद और ख़ास मस्लक की तक़लीद करने वाले ख़ुद को मुहम्मद ﷺ की तरफ़, सहाबा की तरफ़ और मुहद्दिसीन की तरफ़ निस्बत करके मुहम्मदी, सलफ़ी और अहले हदीस क्यों नहीं कहलवाते? क्यों कि वह क़ुरआन और हदीस की तालीमात से दूर हैं। अगर वह दावा भी करें कि हम क़ुरआन और हदीस के मानने वाले हैं तो वह अपने दावा में झूठे हैं। सभी जानते हैं कि दावा बग़ैर दलील के बातिल है।
इस्लाम का एक अहम उसूल है कि कोई दावा हम बग़ैर दलील के तस्लीम नहीं करेंगे क्योंकि हमारा दीन दलील और सबूत पर क़ाइम है। अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु बयान करते हैं कि नबी ﷺ ने फ़रमाया:
لو يعطي الناس بدعواهم لادعى ناس دماء رجال وأموالهم ولكن اليمين على المدعى عليه.(صحيح مسلم:1711)
तर्जुमा: अगर सिर्फ़ दावा की वजह से लोगों के मुतालबे मान लिए जाने लगे तो बहुतों का ख़ून और माल बर्बाद हो जाएगा, लेकिन क़सम मुद्दआ अलैह पर है।
यह हदीस हमें बतलाती है कि दावा करने वाले पर लाज़िमन दलील देनी है, बग़ैर दलील के कोई दावा तस्लीम नहीं किया जाएगा और जो किसी मामले में इंकार करे तो उसे क़सम खानी है। मुदआ के ज़िम्मा दलील और बुरहान देना है। इसकी एक वाज़ेह हदीस यह है।
البينة على المدعي واليمين على من أنكر.(ارواه الغليل:2685)
तर्जुमा: दलील देना उसके ऊपर है जो दावा करे और क़सम खाना उसके ऊपर है जो इंकार करे।
अल-मुहिम, यह बात साफ़ हो गई कि अहले तक़लीद ख़ुद को सलफ़ी, अहले हदीस और मुहम्मदी नहीं कह सकते। वजह साफ़ ज़ाहिर है। एक अदना और मामूली जगह की तरफ़ निस्बत करके देवबंदी और बरेलवी कहलाने पर फ़ख़्र करते हैं मगर सलफ़ी और मुहम्मदी कहलाने में ख़ौफ़ क्यों है? दरअसल सलफ़ियत से उन्हें दुश्मनी है। सलफ़ की तालीमात से कोसों दूर हैं और क़ुरआन और हदीस के नाम पर ख़ुद साख़्ता मलफ़ूज़ात पर कारबंद हैं।
सलफ़ियत एक साफ़ और शफ़्फ़ाफ़ मनहज है जो हमें रसूलुल्लाह ﷺ ने अता फ़रमाया है और जिस पर ख़ैरुल क़ुरून के मुसलमान चलकर दिखाए हैं। रही नसीब जो ख़ैरुल क़ुरून का मनहज इख़्तियार करते हैं और वाए बदनसीबी जो बाद के ज़माने वालों की तक़लीद करते हैं। नबी ﷺ का फ़रमान सादिक़ आ रहा है:
اتخذ الناس رؤوسا جهالا فسئلوا فافتوا بغير علم فضلوا واضلوا.(صحيح مسلم:2673)
तर्जुमा: लोग जाहिलों को सरदार बना लेंगे। उनसे सवालात किए जाएंगे और ये बग़ैर इल्म के जवाब देंगे, इसलिए ख़ुद भी गुमराह होंगे और लोगों को भी गुमराह करेंगे।
आज के ज़माने में अहले तक़लीद के सलफ़ियों के साथ मुत'अस्सबाना (तास्सुब से भरा हुआ) सुलूक, जाहिलाना रवैया, पुर तशद्दुद मामला और मुजरिमाना किरदार से एक बात तो रोज़-ए-रोशन की तरह ज़ाहिर होकर हर कस-ओ-ना-कस (हर आदमी) पर वाशिगाफ़ (साफ़) हो गई है कि उनके दिल में मनहज-ए-सलफ़ पर चलने वालों के लिए वही नफ़रत और दुश्मनी है जो काफ़िरों को इस्लाम के लिए होती है।
अहले हदीस मसाजिद का इंहिदाम (ढाना), अल्लाह के पाकीज़ा घरों पर कब्ज़ा, मसाजिद और मदरिस में मुवह्हिद के ख़िलाफ़ नापाक मंसूबे हैं। बस्ती के सलफ़ी मुसलमानों के साथ ज़ुल्म और ज़्यादती, दिन और रात 'वहाबी' का ताना, उनका सोशल बहिष्कार, हुकूमत के नापाक अजाइम में इमदाद, मासूमों पर फ़र्ज़ी मुकद्दमात, अहले हदीस के ख़िलाफ़ अवाम को मुश्त'इल करना, काफ़िरों से जिहाद की तरह अपने तलबा को मुनाज़रा बाज़ी का फ़न सिखाना, सलफ़ियों से लेन-देन, शादी-ब्याह, यहाँ तक कि उनके मसाजिद और मदारिस और उनकी किताबों से कुल्ली तौर पर अवाम और ख़वास को दूर रहने की तालीम देना, सलफ़ी मुसलमानों और सलफ़ी तंज़ीम की तरफ़ दहशतगर्दी का इन्तिसाब करना, ख़ास किताब और सुन्नत की तालीम, उनकी नश्र-ओ-इशाअत और दावत और तबलीग़ में रुकावट डालना - यह सारे घिनौने काम अगर काफ़िर करते तो इस क़दर हैरानी नहीं होती, जितनी हैरानी उन लोगों पर है जो इकराम मुस्लिम का दर्स देने वाले, नबवी मिशन तबलीग़ के नाम पर दिन-रात गली-कूचे घूमने वाले हैं।
डॉक्टर ज़ाकिर नाइक को दावत और तबलीग़ से रोकने, हिंदुस्तान में उन पर अर्सा-ए-हयात तंग करने, उन्हें दहशतगर्द क़रार देने, उनकी मिशन की दहशतगर्दी से जोड़ने और ख़ालिस किताब और सुन्नत की तालीम आम होने से रोकने वाले अहले तक़लीद ही हैं। उन्होंने न किसी पर डाका डाला, न किसी की दुकान बंद की, न किसी पर ज़ुल्म और सितम किए, न किसी का घर उजाड़ा, न किसी का क़त्ल किया। तौहीद की दावत देना अगर जुर्म है तो बस एक यही जुर्म किया जो अंबिया ने भी किया। ख़ालिस तौहीद की दावत दी, लोगों को एक अल्लाह का सजदा करने की तरफ़ बुलाया। उस काम की सज़ा जिस तरह अंबिया को काफ़िरों ने दी, उसी तरह डॉक्टर ज़ाकिर नाइक को हिंदुस्तान के सलफ़ियों से ख़ाइफ़ मुसलमानों ने दी। किस क़दर काफ़िरों के अतवार (तौर तरीक़े) और आज के झूठे मुसलमानों के किरदार में मुसावात पाया जाता है?
ख़ैर, अल्लाह का दीन किसी का मोहताज नहीं है। किसी एक को दावत से रोक देने पर यह दीन मिटेगा भी नहीं। अल्लाह जिस से चाहता है, अपने दीन का काम लेता है और यह दीन ग़ालिब हो कर रहेगा, हालांकि लोग दीन-ए-हक़ और मनहज-ए-सलफ़ से दुश्मनी करते रहें।
अंग्रेज़ों ने वतन का सच्चा पासबान और सही माने में असली मुसलमान सलफ़ियों को ही समझा। इसी लिए उन्हें ही अपना सबसे बड़ा दुश्मन समझकर ख़ास निशाना बनाया और 'वहाबी' कहकर पुकारा। इस वक़्त न सिर्फ़ हिंदुस्तान में बल्कि चारों ओर आलम में सलफ़ियों से काफ़िरों की और तमाम मसालिक के मुसलमानों की खुली और सख़्त दुश्मनी ज़ाहिर करती है कि हम सलफ़ी ही सच्चे पाक मुसलमान हैं जो हक़ीक़ी तौर पर सिरात-ए-मुस्तक़ीम पर ग़ामज़न हैं। हमारी ख़ालिस तौहीद की दावत से जहाँ काफ़िर ख़ाइफ़ (ख़ौफ़ज़दा) हैं, वहीं ख़ुद सख़्ता मसलक पर भी ख़ौफ़ का घेरा असर है।
एक तरफ़ कलमा तौहीद पढ़कर नए-नए मुसलमान इस्लाम में जौक़-दर-जौक़ (गिरोह के गिरोह) दाख़िल हो रहे हैं, तो दूसरी तरफ़ तक़लीद और शिर्क और बिदअत से तौबा करके बहुत सारे लोग सच्चे पाक सलफ़ी बन रहे हैं। क्यों न काफ़िरों को सलफ़ी से ख़ौफ़ हो और क्यों न हम अहले तक़लीद की नज़र में दहशतगर्द क़रार पाए?
अपने साथ इस क़दर ज़ुल्म और ज़्यादती होने के बावजूद हमने अहले तक़लीद को दुश्मन कहकर नहीं पुकारा, न कोई इल्ज़ाम लगाया और न कभी ताना कशी की। किसी मस्जिद या मदरसा पर क़ब्ज़ा नहीं किया, कोर्ट-कचहरी में फ़र्ज़ी केस दर्ज नहीं किया, हुकूमत के लिए किसी मासूम को आला कार नहीं बनाया। हमने हमेशा अपने सब्र का दामन वसी रखा, ताना कशी के बावजूद ज़बान पर हरूफ़-ए-शिकायत नहीं आने दिए।
तथापि आज जब हिंदुस्तानी पार्लियामेंट में मदरसा से फ़ारिग़ तहसील सलफ़ी ममालिक के रियालो से बदन का गोश्त और पोस्ट बढ़ाने वाला अपने चेहरे पर दाढ़ी की सुन्नत को सजाने वाला बदरुद्दीन अजमल ने सर बुरहान-ए-मुल्क के सामने सलफ़ियों को दहशतगर्द क़रार दे कर अपने मसलकी बुग़ज़ और अना की दो टोक अंदाज़ में ज़ाहिर कर दिया। हम तो जानते ही हैं कि उन्हें सलफ़ियत से ख़ुदा के वास्ते का बेर है। काफ़िरों ने भी इसका नज़ारा देखा। मुसलमानों के ऐसे ही ख़ूबसूरत नज़ारों से काफ़िरों को समझने में आसानी होती है और ज़मीर-फ़रोश मुल्लाओं के ज़मीर का सौदा करके फिर सच्चे मुसलमानों का क़त्ल-ए-आम करते हैं।
मैं आख़िर में सलफ़ियत से बुग़्ज़ रखने वालों को यह पैग़ाम देना चाहता हूँ कि एक दिन तुम्हारा सामना अल्लाह से होगा। इस्लाम का दावेदार हो कर मुसलमानों की ज़िल्लत और रुस्वाई का सामान बहम पहुँचाने वाले इस दीन की याद करो। जब तुम्हारे काले करतूत शर्मिंदगी के बोझ तले तुम्हें दबा देंगे, कुछ तो रब से मुलाक़ात का ख़ौफ़ खाओ। अपने भाइयों की गर्दन पर कब तक चाक़ू चलाते रहोगे?
कब तक मुसलमानों को मुसलमानों से जुदा करते रहोगे? कब तक अपने भाइयों को काफ़िरों के ज़ुल्म के हवाले करते रहोगे? कब तक मनहज-ए-सलफ़ से दुश्मनी निभाते रहोगे? अल्लाह ने तुम्हें एक उम्मत बना कर भेजा है, अपने भाइयों की मदद करने के लिए भेजा है, काफ़िरों से जिहाद करने और उन पर दीन-ए-हक़ पेश करने के लिए भेजा है। किताबुल्लाह और सुन्नत-ए-रसूल को मज़बूती से थामने के लिए भेजा है। ज़रा अपने पैदा होने का मक़सद भी याद करो, जिसे तुम भूल बैठे हो। दीन में अपने ही भाइयों के ख़िलाफ़ सियासी बाज़ीगरी करने से बाज़ आ जाओ। किताबुल्लाह और सुन्नत-ए-रसूल को हमारी तरह अपना मेयारी ज़िंदगी बना लो। फिर देखो हमारी ताक़त कितनी मज़बूत बन जाती है और कैसे काफ़िर सरकार हमसे थर्राती है। ऐ काश, के तुम जिस तरह मुहम्मद ﷺ से मुहब्बत का नारा लगाते हो, उनसे सच्ची मुहब्बत करते और उनके पैग़ाम को अपनी ज़िंदगी में नाफ़िज़ (लागू) करते।
हम अल्लाह से दुआ करते हैं कि तमाम मुसलमानों को दीन-ए-हक़ की समझ दे, उन्हें मस्लकी मुनाफ़रत (घृणा/द्वेष) से दूर करे, अक़ाइद और आमाल की इस्लाह फ़रमा दे और सबको एक प्लेटफॉर्म पर जमा कर के काफ़िरों और मुशरिकों पर ग़लबा अता फ़रमाए। आमीन।
~ Shaikh Maqubool Ahmad Salafi Hafizahullaah
इस्लाम का एक अहम उसूल है कि कोई दावा हम बग़ैर दलील के तस्लीम नहीं करेंगे क्योंकि हमारा दीन दलील और सबूत पर क़ाइम है। अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु बयान करते हैं कि नबी ﷺ ने फ़रमाया:
لو يعطي الناس بدعواهم لادعى ناس دماء رجال وأموالهم ولكن اليمين على المدعى عليه.(صحيح مسلم:1711)
तर्जुमा: अगर सिर्फ़ दावा की वजह से लोगों के मुतालबे मान लिए जाने लगे तो बहुतों का ख़ून और माल बर्बाद हो जाएगा, लेकिन क़सम मुद्दआ अलैह पर है।
यह हदीस हमें बतलाती है कि दावा करने वाले पर लाज़िमन दलील देनी है, बग़ैर दलील के कोई दावा तस्लीम नहीं किया जाएगा और जो किसी मामले में इंकार करे तो उसे क़सम खानी है। मुदआ के ज़िम्मा दलील और बुरहान देना है। इसकी एक वाज़ेह हदीस यह है।
البينة على المدعي واليمين على من أنكر.(ارواه الغليل:2685)
तर्जुमा: दलील देना उसके ऊपर है जो दावा करे और क़सम खाना उसके ऊपर है जो इंकार करे।
अल-मुहिम, यह बात साफ़ हो गई कि अहले तक़लीद ख़ुद को सलफ़ी, अहले हदीस और मुहम्मदी नहीं कह सकते। वजह साफ़ ज़ाहिर है। एक अदना और मामूली जगह की तरफ़ निस्बत करके देवबंदी और बरेलवी कहलाने पर फ़ख़्र करते हैं मगर सलफ़ी और मुहम्मदी कहलाने में ख़ौफ़ क्यों है? दरअसल सलफ़ियत से उन्हें दुश्मनी है। सलफ़ की तालीमात से कोसों दूर हैं और क़ुरआन और हदीस के नाम पर ख़ुद साख़्ता मलफ़ूज़ात पर कारबंद हैं।
सलफ़ियत एक साफ़ और शफ़्फ़ाफ़ मनहज है जो हमें रसूलुल्लाह ﷺ ने अता फ़रमाया है और जिस पर ख़ैरुल क़ुरून के मुसलमान चलकर दिखाए हैं। रही नसीब जो ख़ैरुल क़ुरून का मनहज इख़्तियार करते हैं और वाए बदनसीबी जो बाद के ज़माने वालों की तक़लीद करते हैं। नबी ﷺ का फ़रमान सादिक़ आ रहा है:
اتخذ الناس رؤوسا جهالا فسئلوا فافتوا بغير علم فضلوا واضلوا.(صحيح مسلم:2673)
तर्जुमा: लोग जाहिलों को सरदार बना लेंगे। उनसे सवालात किए जाएंगे और ये बग़ैर इल्म के जवाब देंगे, इसलिए ख़ुद भी गुमराह होंगे और लोगों को भी गुमराह करेंगे।
आज के ज़माने में अहले तक़लीद के सलफ़ियों के साथ मुत'अस्सबाना (तास्सुब से भरा हुआ) सुलूक, जाहिलाना रवैया, पुर तशद्दुद मामला और मुजरिमाना किरदार से एक बात तो रोज़-ए-रोशन की तरह ज़ाहिर होकर हर कस-ओ-ना-कस (हर आदमी) पर वाशिगाफ़ (साफ़) हो गई है कि उनके दिल में मनहज-ए-सलफ़ पर चलने वालों के लिए वही नफ़रत और दुश्मनी है जो काफ़िरों को इस्लाम के लिए होती है।
अहले हदीस मसाजिद का इंहिदाम (ढाना), अल्लाह के पाकीज़ा घरों पर कब्ज़ा, मसाजिद और मदरिस में मुवह्हिद के ख़िलाफ़ नापाक मंसूबे हैं। बस्ती के सलफ़ी मुसलमानों के साथ ज़ुल्म और ज़्यादती, दिन और रात 'वहाबी' का ताना, उनका सोशल बहिष्कार, हुकूमत के नापाक अजाइम में इमदाद, मासूमों पर फ़र्ज़ी मुकद्दमात, अहले हदीस के ख़िलाफ़ अवाम को मुश्त'इल करना, काफ़िरों से जिहाद की तरह अपने तलबा को मुनाज़रा बाज़ी का फ़न सिखाना, सलफ़ियों से लेन-देन, शादी-ब्याह, यहाँ तक कि उनके मसाजिद और मदारिस और उनकी किताबों से कुल्ली तौर पर अवाम और ख़वास को दूर रहने की तालीम देना, सलफ़ी मुसलमानों और सलफ़ी तंज़ीम की तरफ़ दहशतगर्दी का इन्तिसाब करना, ख़ास किताब और सुन्नत की तालीम, उनकी नश्र-ओ-इशाअत और दावत और तबलीग़ में रुकावट डालना - यह सारे घिनौने काम अगर काफ़िर करते तो इस क़दर हैरानी नहीं होती, जितनी हैरानी उन लोगों पर है जो इकराम मुस्लिम का दर्स देने वाले, नबवी मिशन तबलीग़ के नाम पर दिन-रात गली-कूचे घूमने वाले हैं।
डॉक्टर ज़ाकिर नाइक को दावत और तबलीग़ से रोकने, हिंदुस्तान में उन पर अर्सा-ए-हयात तंग करने, उन्हें दहशतगर्द क़रार देने, उनकी मिशन की दहशतगर्दी से जोड़ने और ख़ालिस किताब और सुन्नत की तालीम आम होने से रोकने वाले अहले तक़लीद ही हैं। उन्होंने न किसी पर डाका डाला, न किसी की दुकान बंद की, न किसी पर ज़ुल्म और सितम किए, न किसी का घर उजाड़ा, न किसी का क़त्ल किया। तौहीद की दावत देना अगर जुर्म है तो बस एक यही जुर्म किया जो अंबिया ने भी किया। ख़ालिस तौहीद की दावत दी, लोगों को एक अल्लाह का सजदा करने की तरफ़ बुलाया। उस काम की सज़ा जिस तरह अंबिया को काफ़िरों ने दी, उसी तरह डॉक्टर ज़ाकिर नाइक को हिंदुस्तान के सलफ़ियों से ख़ाइफ़ मुसलमानों ने दी। किस क़दर काफ़िरों के अतवार (तौर तरीक़े) और आज के झूठे मुसलमानों के किरदार में मुसावात पाया जाता है?
ख़ैर, अल्लाह का दीन किसी का मोहताज नहीं है। किसी एक को दावत से रोक देने पर यह दीन मिटेगा भी नहीं। अल्लाह जिस से चाहता है, अपने दीन का काम लेता है और यह दीन ग़ालिब हो कर रहेगा, हालांकि लोग दीन-ए-हक़ और मनहज-ए-सलफ़ से दुश्मनी करते रहें।
अंग्रेज़ों ने वतन का सच्चा पासबान और सही माने में असली मुसलमान सलफ़ियों को ही समझा। इसी लिए उन्हें ही अपना सबसे बड़ा दुश्मन समझकर ख़ास निशाना बनाया और 'वहाबी' कहकर पुकारा। इस वक़्त न सिर्फ़ हिंदुस्तान में बल्कि चारों ओर आलम में सलफ़ियों से काफ़िरों की और तमाम मसालिक के मुसलमानों की खुली और सख़्त दुश्मनी ज़ाहिर करती है कि हम सलफ़ी ही सच्चे पाक मुसलमान हैं जो हक़ीक़ी तौर पर सिरात-ए-मुस्तक़ीम पर ग़ामज़न हैं। हमारी ख़ालिस तौहीद की दावत से जहाँ काफ़िर ख़ाइफ़ (ख़ौफ़ज़दा) हैं, वहीं ख़ुद सख़्ता मसलक पर भी ख़ौफ़ का घेरा असर है।
एक तरफ़ कलमा तौहीद पढ़कर नए-नए मुसलमान इस्लाम में जौक़-दर-जौक़ (गिरोह के गिरोह) दाख़िल हो रहे हैं, तो दूसरी तरफ़ तक़लीद और शिर्क और बिदअत से तौबा करके बहुत सारे लोग सच्चे पाक सलफ़ी बन रहे हैं। क्यों न काफ़िरों को सलफ़ी से ख़ौफ़ हो और क्यों न हम अहले तक़लीद की नज़र में दहशतगर्द क़रार पाए?
अपने साथ इस क़दर ज़ुल्म और ज़्यादती होने के बावजूद हमने अहले तक़लीद को दुश्मन कहकर नहीं पुकारा, न कोई इल्ज़ाम लगाया और न कभी ताना कशी की। किसी मस्जिद या मदरसा पर क़ब्ज़ा नहीं किया, कोर्ट-कचहरी में फ़र्ज़ी केस दर्ज नहीं किया, हुकूमत के लिए किसी मासूम को आला कार नहीं बनाया। हमने हमेशा अपने सब्र का दामन वसी रखा, ताना कशी के बावजूद ज़बान पर हरूफ़-ए-शिकायत नहीं आने दिए।
तथापि आज जब हिंदुस्तानी पार्लियामेंट में मदरसा से फ़ारिग़ तहसील सलफ़ी ममालिक के रियालो से बदन का गोश्त और पोस्ट बढ़ाने वाला अपने चेहरे पर दाढ़ी की सुन्नत को सजाने वाला बदरुद्दीन अजमल ने सर बुरहान-ए-मुल्क के सामने सलफ़ियों को दहशतगर्द क़रार दे कर अपने मसलकी बुग़ज़ और अना की दो टोक अंदाज़ में ज़ाहिर कर दिया। हम तो जानते ही हैं कि उन्हें सलफ़ियत से ख़ुदा के वास्ते का बेर है। काफ़िरों ने भी इसका नज़ारा देखा। मुसलमानों के ऐसे ही ख़ूबसूरत नज़ारों से काफ़िरों को समझने में आसानी होती है और ज़मीर-फ़रोश मुल्लाओं के ज़मीर का सौदा करके फिर सच्चे मुसलमानों का क़त्ल-ए-आम करते हैं।
मैं आख़िर में सलफ़ियत से बुग़्ज़ रखने वालों को यह पैग़ाम देना चाहता हूँ कि एक दिन तुम्हारा सामना अल्लाह से होगा। इस्लाम का दावेदार हो कर मुसलमानों की ज़िल्लत और रुस्वाई का सामान बहम पहुँचाने वाले इस दीन की याद करो। जब तुम्हारे काले करतूत शर्मिंदगी के बोझ तले तुम्हें दबा देंगे, कुछ तो रब से मुलाक़ात का ख़ौफ़ खाओ। अपने भाइयों की गर्दन पर कब तक चाक़ू चलाते रहोगे?
कब तक मुसलमानों को मुसलमानों से जुदा करते रहोगे? कब तक अपने भाइयों को काफ़िरों के ज़ुल्म के हवाले करते रहोगे? कब तक मनहज-ए-सलफ़ से दुश्मनी निभाते रहोगे? अल्लाह ने तुम्हें एक उम्मत बना कर भेजा है, अपने भाइयों की मदद करने के लिए भेजा है, काफ़िरों से जिहाद करने और उन पर दीन-ए-हक़ पेश करने के लिए भेजा है। किताबुल्लाह और सुन्नत-ए-रसूल को मज़बूती से थामने के लिए भेजा है। ज़रा अपने पैदा होने का मक़सद भी याद करो, जिसे तुम भूल बैठे हो। दीन में अपने ही भाइयों के ख़िलाफ़ सियासी बाज़ीगरी करने से बाज़ आ जाओ। किताबुल्लाह और सुन्नत-ए-रसूल को हमारी तरह अपना मेयारी ज़िंदगी बना लो। फिर देखो हमारी ताक़त कितनी मज़बूत बन जाती है और कैसे काफ़िर सरकार हमसे थर्राती है। ऐ काश, के तुम जिस तरह मुहम्मद ﷺ से मुहब्बत का नारा लगाते हो, उनसे सच्ची मुहब्बत करते और उनके पैग़ाम को अपनी ज़िंदगी में नाफ़िज़ (लागू) करते।
हम अल्लाह से दुआ करते हैं कि तमाम मुसलमानों को दीन-ए-हक़ की समझ दे, उन्हें मस्लकी मुनाफ़रत (घृणा/द्वेष) से दूर करे, अक़ाइद और आमाल की इस्लाह फ़रमा दे और सबको एक प्लेटफॉर्म पर जमा कर के काफ़िरों और मुशरिकों पर ग़लबा अता फ़रमाए। आमीन।
~ Shaikh Maqubool Ahmad Salafi Hafizahullaah
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