بدھ، 7 اگست، 2024

औरतों के लिए राह (रास्ते में) चलने के आदाब

 औरतों के लिए राह (रास्ते में) चलने के आदाब
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लेखक: शैख़. मक़बूल अहमद सलफ़ी 
हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद 
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एक बहन ने सवाल भेजा था कि एक औरत रास्ता चलते हुए किन बातों का ख़याल (ध्यान) करे और चलने का अंदाज़ (तरीक़ा) क्या हो या'नी (मतलब यह कि) वो आहिस्ता (धीरे) चले या तेज़ भी चल सकती है और चलते हुए अपने आप को सीधी रखे या कुछ झुका हुआ मज़ीद और किन बातों को ध्यान में रखना है ?
  मुझे यह सवाल काफ़ी (बहुत) अहम (ख़ास) मा'लूम हुआ इसलिए सोचा कि इस से मुत'अल्लिक़ (बारे में) अहम (ज़रूरी) मा'लूमात (जानकारी) जमा (इकट्ठा) की जाए ताकि (इसलिए कि) साइला (सवाल करने वाली) के 'अलावा (सिवा) दूसरी मुस्लिम बहनों को भी इस से फ़ाइदा हो चुनांचे (इसलिए) मज़कूरा सवाल के तनाज़ुर में शरी'अत-ए-मुतहहरा से जो रहनुमाई मिलती हैं इस को इख़्तिसार (ख़ुलासे) के साथ मुंदरिजा-ज़ेल (नीचे लिखे हुए) सुतूर (lines) में बयान करता हूं एक औरत जब घर से बाहर निकलने का इरादा करती है तो उसे बुनियादी तौर पर पहले तीन बातों का ख़याल (ध्यान) रखना चाहिए।
(1) अल्लाह-त'आला ने एक औरत को अपने घर में सुकूनत इख़्तियार करने का हुक्म दिया है इसलिए औरत अपने घर को लाज़िम पकड़े और घर से बिला-ज़रूरत बाहर क़दम न निकाले जब औरत को घर से बाहर जाने की ज़रूरत पेश आए तब ही घर से बाहर निकले अल्लाह-त'आला का फ़रमान है:
(وَقَرْنَ فِي بُيُوتِكُنَّ وَلَا تَبَرَّجْنَ تَبَرُّجَ الْجَاهِلِيَّةِ الْأُولَىٰ)
(الاحزاب:33)
तर्जमा: और अपने घरों में सुकूनत इख़्तियार करो और अगले ज़माना-ए-जाहिलियत की तरह बनाव-सिंगार के साथ न निकला करो।
(सूरा अल्-अह़ज़ाब:33)
  इस आयत में अल्लाह ने एक तरफ़ औरत को घर में टिक कर रहने का हुक्म दिया है तो दूसरी तरफ़ यह भी मा'लूम होता है कि औरत ज़रूरत के तहत घर से बाहर जा सकती है जाहिली दौर (समय) की तरह ज़ेब-ओ-ज़ीनत (बनाव-सिंगार) का इज़हार कर के नहीं बल्कि बा-पर्दा हो कर।
  हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु को औरत के घर से निकलने पर बड़ा नागवार लगता था एक मर्तबा का वाक़ि'आ है कि उम्म-उल-मोमिनीन हज़रत सौदा रज़ियल्लाहु अन्हा (पर्दा का हुक्म नाज़िल होने के बाद) क़ज़ा-ए-हाजत (पाख़ाना) के इरादे से बाहर निकली हज़रत उमर आप को भारी-भरकम बदन से पहचान गए और कहा कि किस तरह बाहर रही हैं ? वो वापस घर पलट गई आप के ही घर रसूलुल्लाह ﷺ थे उन्होंने माजरा (क़िस्सा) बयान किया उतने में वह्य (वही) नाज़िल हुई और आप ﷺ ने फ़रमाया:
(إِنَّهُ قَدْ أُذِنَ لَكُنَّ أَنْ تَخْرُجْنَ لِحَاجَتِكُنَّ)
(صحیح البخاری:4795)
तर्जमा: तुम्हें (अल्लाह की तरफ़ से) क़ज़ा-ए-हाजत (पाख़ाना) के लिए बाहर जाने की इजाज़त दे दी गई है।
(सहीह बुख़ारी:4795)
  इस हदीष से भी मा'लूम हुआ कि औरत ज़रूरत के पेश-ए-नज़र घर से बाहर जा सकती है और वो ज़रूरत क्या हो सकती है 'इलाज के लिए, ज़रूरी मुलाक़ात के लिए, नमाज़ के लिए 'उज़्र (मजबूरी) के तहत ख़रीद-ओ-फ़रोख़्त (ख़रीदारी) के लिए, शर'ई हद में रहते हुए जाएज़ 'अमल (काम) की अंजाम-दिही (पूरा करने) के लिए और इस क़िस्म (प्रकार) की दूसरी ज़रूरत के लिए जिस के बग़ैर चारा न हो औरत को घर से बिला-ज़रूरत निकलने से क्यूं मना किया जाता है इस की एक बड़ी वजह (कारण) बयान करते हुए नबी ﷺ इरशाद फ़रमाते हैं:
(المرأةُ عورةٌ فإذا خرجتِ استشرفَها الشَّيطانُ)
(صحيح الترمذي:1173)
तर्जमा: औरत (संपूर्ण) पर्दा है जब वो बाहर निकलती है तो शैतान उस को ताकता है।
(सहीह तिर्मिज़ी:1173)
  एक दूसरी हदीष में इस तरह आता है नबी ﷺ फ़रमाते हैं:
(إنَّ المرأةَ عورةٌ ، فإذا خَرَجَتْ استَشْرَفَها الشيطانُ ، وأَقْرَبُ ما تكونُ من وجهِ ربِّها وهي في قَعْرِ بيتِها)
(صحيح ابن خزيمة:1685 وقال الألباني إسناده صحيح)
तर्जमा: औरत तो पर्दा की चीज़ है जब वो घर से निकलती है तो शैतान उस की तरफ़ झाँकता है और औरत अल्लाह के सबसे ज़ियादा क़रीब उस वक़्त होती है जब वो अपने घर के किसी कोने और पोशीदा जगह में हो।
(सहीह इब्ने खुज़ैमा:1685 व क़ाला अल्बानी सनद सहीह)
  या'नी (मतलब यह कि) औरत शैतान के लिए एक ऐसा वसीला (माध्यम) है जिस के ज़री'आ (द्वारा) औरत और मर्द को गुनाह के रास्ता (मार्ग) पर लगा सकता है इसलिए इस्लाम ने गुनाह के सद्द-ए-बाब (रोक) के तौर पर औरत को बिला-ज़रूरत घर से निकलने पर पाबंदी लगाई है घर में रहने वाली औरत महफ़ूज़-ओ-मामून (सुरक्षित) और रब से क़रीब होती है और घर से निकलने वाली औरत फ़ित्ना (बुराई) का बा'इस (कारण) बन सकती है।
(2) दूसरी बात यह है कि जब औरत अपने घर से ज़रूरत के तहत बाहर निकले तो मुकम्मल (पूरे तौर पर) हिजाब (नक़ाब) और पर्दा में निकले इस बात की दलील साबिक़ा (पहली) आयत अहज़ाब भी है इस आयत में अल्लाह ने ज़रूरत के तहत बाहर निकलते वक़्त "तबर्रुज" या'नी बनाव-सिंगार का इज़हार (ज़ाहिर) करने से मना
फ़रमाया है मौलाना अब्दुल रहमान किलानी रहिमहुल्लाह इस आयत के तहत "तबर्रुज" की शरह (व्याख्या) करते हुए लिखते हैं: "तबर्रुज" में क्या कुछ शामिल है ? तबर्रुज ब-मा'नी अपनी ज़ीनत (सुंदरता) जिस्मानी (शारीरिक) महासिन (गुण) और मेक-अप दूसरों को और बिल-ख़ुसूस (ख़ास तौर पर) मर्दों को दिखाने की कोशिश करना और इस में पांच चीज़ें शामिल हैं।
(1) अपने जिस्म (शरीर) के महासिन (गुण) की नुमाइश (दिखाना)
(2) ज़ेवरात की नुमाइश (दिखाना) और झंकार
(3) पहने हुए कपड़ों की नुमाइश
(4) रफ़्तार (चाल) में बाँकपन (टेढ़ापन) और नाज़-ओ-अदा (नख़रे)
(5) ख़ुशबू का इस्ते'माल जो ग़ैरों को अपनी तरफ़ मुतवज्जह (आकर्षित) करे।
(तफ़्सीर तैसीर उल-क़ुरआन)
  यहां पर इस हदीष को भी मद्द-ए-नज़र (सामने) रखें जब नबी ﷺ ने औरतों को 'ईद-गाह निकलने का हुक्म दिया तो इस पर उम्मे अतिय्या रज़ियल्लाहु अन्हा आप ﷺ से पूछती हैं कि अगर किसी औरत के पास जिल्बाब (बड़ी चादर) न हो तो वो कैसे 'ईद-गाह निकले इस पर आप ने फ़रमाया कि उस की बहन उस को चादर उढ़ाए।
(सहीह बुख़ारी:324)
  गोया (जैसा) कि हर हाल में औरत मुकम्मल पर्दा के साथ ही बाहर निकले और अगर किसी औरत के पास हिजाब (बुर्क़ा') न हो वो भी किसी दूसरे के हिजाब में ही घर से बाहर निकले 'अहद-ए-रसूल की ख़वातीन (औरतें) चेहरा, हाथ और पैर (पांव) समेत मुकम्मल (पूरे) जिस्म (शरीर) ढाँक कर बाहर निकलती थी कपड़े का दामन (पल्लू) ज़मीन से घसीटता था अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा कहते हैं:
(رَخَّصَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ لِأُمَّهَاتِ الْمُؤْمِنِينَ فِي الذَّيْلِ شِبْرًا ثُمَّ اسْتَزَدْنَهُ فَزَادَهُنَّ شِبْرًا فَكُنَّ يُرْسِلْنَ إِلَيْنَا فَنَذْرَعُ لَهُنَّ ذِرَاعًا)
(ابوداؤد:4119، صححہ البانی)
तर्जमा: रसूलुल्लाह ﷺ ने उम्महात-उल-मोमिनीन रज़ियल्लाहु अन्हुमा को एक बालिश्त दामन (पल्लू) लटकाने की रुख़्सत (इजाज़त) दी तो उन्होंने इस से ज़ियादा की ख़्वाहिश ज़ाहिर की तो आप ﷺ ने उन्हें मज़ीद (और भी) एक बालिश्त की रुख़्सत (इजाज़त) दे दी चुनांचे (इसलिए) उम्महात-उल-मोमिनीन हमारे पास कपड़े भेजती तो हम उन्हें एक हाथ नाप दिया करते थे।
(अबू दाऊद:4119 सहीह अल्बानी)
  यहां एक बालिश्त से मुराद निस्फ़ (आधी) पिंडली से एक बालिश्त है जिस की इजाज़त रसूल ﷺ ने दी सहाबियात में पर्दा का शौक़ देखे वो मज़ीद पर्दा का मुतालबा (अनुरोध) करती हैं फिर आप ﷺ ने मज़ीद (और भी) एक बालिश्त की इजाज़त दे दी इस तरह मर्दों के मुक़ाबला में औरत को अपना लिबास (कपड़े) निस्फ़ (आधी) पिंडली से दो बालिश्त नीचे तक रखना है दो बालिश्त बराबर एक हाथ होता है इसलिए इब्ने उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा निस्फ़ साक़ (आधी पिंडली) से एक हाथ कपड़ा नापते थे यहां एक और हदीष मुलाहज़ा (अध्यन) करे एक ख़ातून (औरत) आप ﷺ से यह सवाल करती हैं कि मैंने 'अर्ज़ (अनुरोध) किया: अल्लाह के रसूल हमारा मस्जिद तक जाने का रास्ता ग़लीज़ (गंदा) और गंदगियों वाला है तो जब बारिश हो जाए तो हम क्या करे ?
आप ﷺ ने फ़रमाया: क्या इस के आगे फिर कोई इस से बेहतर और पाक रास्ता नहीं है ? मैंने कहा: हां है आप ﷺ ने फ़रमाया: तो यह इस का जवाब है।
(अबू दाऊद:384 सहीह अल्बानी)
  इस हदीष से भी औरत का लिबास ज़मीन से घिसट कर चलने की दलील मिलती है और यहां पर्दा की इस तफ़्सील का मक़्सद है कि आज की ख़वातीन (औरतें) इन बातों से नसीहत हासिल करे और अपनी इस्लाह करे।
(3) तीसरी चीज़ यह है कि औरत ख़ुशबू लगा कर बाहर न निकले अबू मूसा अश'अरी रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि नबी-ए-करीम ﷺ ने फ़रमाया:
( كلُّ عينٍ زانيةٌ ، والمرأةُ إذا استعطَرَت فمرَّت بالمَجلسِ ، فَهيَ كذا وَكذا. يعني زانيةً)
 (صحيح الترمذي:2786)
तर्जमा: हर आंख ज़िना-कार है और औरत जब ख़ुशबू लगा कर मजलिस के पास से गुज़रे तो वो भी ऐसी-ऐसी है या'नी (मतलब यह कि) वो भी ज़ानिया है।
(सहीह तिर्मिज़ी:2786)
  इस हदीष में ख़ुशबू लगा कर घर से बाहर निकलने वाली औरत के लिए किस-क़दर व'ईद (धमकी) है 
ऐसी औरत को ज़ानिया कहा गया है क्यूंकि (इसलिए कि) इस ख़ुशबू से लोग उस की तरफ़ माएल (आकर्षित) होगे या'नी वो लोगों को अपनी तरफ़ माएल (आकर्षित) करने का सबब (कारण) बन रही है इसलिए उसके वास्ते सख़्त व'ईद (धमकी) है यही वजह (कारण) है कि औरत को घर से मस्जिद के लिए आने की इजाज़त है लेकिन औरत ने ख़ुशबू लगाई हो तो इस सूरत (स्थिति) में उसे मस्जिद आने की इजाज़त नहीं है अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं कि रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया:
(أيُّما امرأةٍ أصابت بخورًا فلا تشهدنَّ معنا العشاءَ)
(صحيح أبي داود:4175)
तर्जमा: जिस औरत ने ख़ुशबू की धूनी (धुआँ) ले रखी हो तो वो हमारे साथ 'इशा के लिए (मस्जिद में) न आए।
(सहीह अबू दाऊद:4175)
  इस जगह यह भी ध्यान रहे कि चूड़ी या पाज़ेब (पायल) या कोई ऐसी चीज़ न लगा कर निकले जिससे चलते वक़्त झंकार और आवाज
पैदा हो क्यूंकि लोग इस आवाज की तरफ़ माएल (आकर्षित) होगे हत्ता कि माएल (आकर्षित) करने वाले पुर-कशिश (खींचने वाले) लिबास (कपड़े) और माएल (आकर्षित) करने वाली कोई सिफ़त (गुण) भी न अपनाए नबी ﷺ ने माएल (आकर्षित) करने वाली औरत और माएल (आकर्षित) वाली औरत (सीधी राह से) के बारे में फ़रमाया:
(لَا يَدْخُلْنَ الْجَنَّةَ وَلَا يَجِدْنَ رِيحَهَا، وَإِنَّ رِيحَهَا لَيُوجَدُ مِنْ مَسِيرَةِ كَذَا وَكَذَا)
(مسلم:2128)
तर्जमा: वो जन्नत में न जाएगी बल्कि (किंतु) उस की ख़ुशबू भी उन को न मिलेगी हालांकि जन्नत की ख़ुशबू इतनी दूर से आ रही होगी।
(सहीह मुस्लिम:2128)
  इन बुनियादी बातों को ज़ेहन (मन) में रखते हुए राह (रास्ते में) चलते वक़्त एक औरत को मुंदरिजा-ज़ेल (नीचे लिखी हुई) बातें ध्यान में रखनी चाहिए।
🔹इस त'अल्लुक़ (संबंध) से सबसे पहली बात यह है कि औरत सड़क के किनारे से चले क्यूंकि (इसलिए कि) नबी ﷺ ने औरतों को दरमियान सड़क (रास्ते के बीच में) चलने से मना' फ़रमाया है:
सय्यदना अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु बयान करते हैं कि रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया:
(ليس لِلنِّساءِ وسَطُ الطَّرِيقِ)( السلسلة الصحيحة:856)
तर्जमा: औरतों के लिए रास्ते के दरमियान में (बीच में) चलना दुरुस्त (सही) नहीं।
(अल-सिलसिला अल-सहीहा:856)
  वैसे आजकल गाड़ियों की वजह (कारण) से 'उमूमन (आम तौर पर) दरमियान सड़क चलना सब के लिए मुश्किल है फिर भी मुख़्तलिफ़ रास्ते अभी भी ऐसे हैं जहां पूरे सड़क पर लोग चलते हैं ऐसे में औरतों को किनारे से चलना चाहिए।
  अबू उसैद अंसारी रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है:
(أنَّه سَمِعَ رسولَ اللهِ صلَّى اللهُ عليه وسلَّمَ يقولُ وهو خارِجٌ من المسجِدِ، فاختَلَطَ الرِّجالُ مع النِّساءِ في الطَّريقِ، فقال رسولُ اللهِ صلَّى اللهُ عليه وسلَّمَ للنِّساءِ: استَأخِرْنَ؛ فإنَّه ليس لَكُنَّ أنْ تَحقُقْنَ الطَّريقَ، عليكُنَّ بحافَاتِ الطَّريقِ. قال: فكانتِ المرأةُ تَلصَقُ بالجِدارِ حتى إنَّ ثَوبَها ليتعلَّقُ بالجِدارِ من لُصوقِها به)
(سنن ابی داؤد:5272، حسنہ البانی)
तर्जमा: उन्होंने रसूलुल्लाह ﷺ को उस वक़्त फ़रमाते हुए सुना जब आप ﷺ मस्जिद से बाहर निकल रहे थे और लोग रास्ते में औरतों में मिल जुल गए थे तो रसूलुल्लाह ﷺ ने औरतों से फ़रमाया: "तुम पीछे हट जाओ तुम्हारे लिए रास्ते के दरमियान (बीच में) से चलना ठीक नहीं तुम्हारे लिए रास्ते के किनारे किनारे चलना मुनासिब (ठीक) है"
फिर तो ऐसा हो गया कि औरतें दीवार से चिपक कर चलने लगी यहां तक कि उनके कपड़े (दुपट्टे वग़ैरा) दीवार में फंस जाते थे।
(सुनन अबू दाऊद:5272 हसन अल्बानी)
  ज़रा ग़ौर फ़रमाए कि जब नबी ﷺ की तरफ़ से कोई फ़रमान (हुक्म) आ जाता तो इस पर 'अमल करने में सहाबियात किस-क़दर (कितना) शौक़ दिखाती थी- सुब्हान-अल्लाह।
🔹राह (रास्ते में) चलते हुए औरतों के लिए एक अहम (बहुत ज़रूरी) शर'ई हुक्म (शरी'अत हुक्म) निगाह (नजर) नीची कर के चलना है निगाह (नजर) नीची करने का हुक्म मर्दों को भी दिया गया है और ख़ुसूसियत (पाबंदी) के साथ औरतों को भी इस का हुक्म दिया गया अल्लाह-त'आला फ़रमान है:
(وَقُل لِّلْمُؤْمِنَاتِ يَغْضُضْنَ مِنْ أَبْصَارِهِنَّ وَيَحْفَظْنَ فُرُوجَهُنَّ وَلَا يُبْدِينَ زِينَتَهُنَّ إِلَّا مَا ظَهَرَ مِنْهَا ۖ وَلْيَضْرِبْنَ بِخُمُرِهِنَّ عَلَىٰ جُيُوبِهِنَّ)
(النور:31)
तर्जमा: और मुसलमान औरतों से कहो कि वो भी अपनी निगाहें (नज़रें) नीची रखे और अपनी 'इस्मत (आबरू) में फ़र्क़ न आने दें और अपनी ज़ीनत को ज़ाहिर न करे सिवाए इस के जो ज़ाहिर है और अपने गिरेबानों पर अपनी ओढ़नियां डाले रहे।
(सूरा अन्-नूर:31)
  यह आयत 'आम हालात में भी जहां अजनबी मर्द हज़रात (लोग) हो या राह (रास्ता) चलते हुए या सफ़र करते हुए एक औरत को अपनी निगाहें (नज़रें) नीची कर के ज़ीनत (सुंदरता) को छुपाते हुए और अपने सीनों (छाती) पर ओढ़नी डाले हुए रखे गोया (जैसे) राह (रास्ता) चलते वक़्त एक औरत को बुनियादी तौर पर इन बातों को 'अमल (काम) में लाना है।
🔹मज़कूरा आयत की रौशनी-में यह भी मा'लूम होता है कि औरत इधर-उधर नज़रें घुमाते हुए हर चीज़ को घूरते और देखते हुए और चारों तरफ़ इल्तिफ़ात (ध्यान) करते हुए न चले बल्कि (किंतु) सर झुका कर निगाहें (नज़रें) नीची कर के और सामने देखते हुए चले और ज़रूरत के वक़्त ही नज़र उठाए और इल्तिफ़ात (तवज्जोह) करे 
अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु नबी ﷺ के चलने की कैफ़ियत (दशा) बताते हुए कहते हैं:
(اتَّبَعْتُ النبيَّ صَلَّى اللهُ عليه وسلَّمَ، وخَرَجَ لِحَاجَتِهِ، فَكانَ لا يَلْتَفِتُ، فَدَنَوْتُ منه)
(صحيح البخاري:155)
तर्जमा: रसूलुल्लाह ﷺ (एक मर्तबा) रफ़ा'-ए-हाजत (पाख़ाना) के लिए तशरीफ़ ले गए आप ﷺ की 'आदत मुबारक थी कि आप ﷺ (चलते वक़्त) इधर-उधर नहीं देखा करते थे तो मैं भी आप ﷺ के पीछे-पीछे आप ﷺ के क़रीब पहुंच गया।
(सहीह बुख़ारी:155)
  और भी अहादीस में है कि आप ﷺ चलते हुए इधर-उधर इल्तिफ़ात (तवज्जोह) नहीं करते जैसे ज़ाबिर बिन अब्दुल्लाह रज़ियल्लाहु अन्हु रिवायत करते हैं:
(كان لا يَلْتَفِتُ ورَاءَهُ إذا مَشَى)(صحيح الجامع:4870)
तर्जमा: या'नी नबी ﷺ चलते वक़्त पीछे मुड़ कर नहीं देखा करते थे।
(सहीह अल-जामे':4870)
  और एक रिवायत में इस तरह है:
(كان إذا مَشَى لَم يلتَفِت)
(صحيح الجامع :4786)
तर्जमा: या'नी आप ﷺ जब चलते तो इधर-उधर इल्तिफ़ात (तवज्जोह) नहीं फ़रमाते।
(सहीह अल-जामे':4786)
  जब मर्द की हैसियत से नबी ﷺ का यह हाल है तो एक औरत जो सरापा (सर से लेकर पांव तक) पर्दा है इस को और भी इस मु'आमला में हस्सास रहना चाहिए।
🔹औरत के लिए पैर (पांव) मार कर या'नी पटख़ पटख़ कर चलने की मुमान'अत (मनाही) है अल्लाह-त'आला फ़रमाता है:
(وَلَا يَضْرِبْنَ بِأَرْجُلِهِنَّ لِيُعْلَمَ مَا يُخْفِينَ مِن زِينَتِهِنَّ)
(النور:31)
तर्जमा: और इस तरह ज़ोर-ज़ोर से पांव मार कर न चले कि उन की पोशीदा ज़ीनत मा'लूम हो जाए।
(सूरा अन्-नूर :31)
  इस आयत में औरत की चाल पर पाबंदी लगाई जा रही है कि वो अपने पैरों को ज़मीन पर मार कर न चले जिस से उसके पैरों की ज़ीनत ज़ाहिर हो जाए या पाज़ेब (पायल) वग़ैरा की झंकार (आवाज़) सुनाई देने लगे औरत 'आम चाल जिस में संजीदगी (गंभीरता) और वक़ार (एहतिराम) हो इस तरह चले।
🔹औरत का ज़ेवर उस की शर्म-ओ-हया है और यह ज़ेवर औरत के साथ हमेशा होना चाहिए जब घर से निकले तो राह (रास्ते में) चलते हुए हया (शर्म) के साथ चले और फ़ाहिशा (बद-कार) औरत की तरह मटक-मटक कर नाज़-ओ-अदा (नख़रे) के साथ न चले आप ने मूसा अलैहिस्सलाम के मदयन सफ़र से मुत'अल्लिक़ (बारे में) दो बहनों का क़िस्सा पढ़ा होगा इस क़िस्सा में एक बहन के आने का ज़िक्र कुछ इस अंदाज़ में है:
(فَجَاءَتْهُ إِحْدَاهُمَا تَمْشِي عَلَى اسْتِحْيَاءٍ)
(القصص:25)
तर्जमा: इतने-में उन दोनों औरतों में से एक उनकी तरफ़ शर्म-ओ-हया से चलती हुई आई।
(सूरा अल्-क़सस:25)
  मूसा अलैहिस्सलाम ने अल्लाह से ख़ैर-ओ-भलाई नाज़िल करने की दु'आ की थी अल्लाह ने दु'आ क़ुबूल फ़रमाईं और दो बहनों में एक हया के साथ मूसा अलैहिस्सलाम के पास आई और कहने लगी कि मेरे बाप आप को बुला रहे हैं ताकि आप ने हमारे (जानवरों) को जो पानी पिलाया है उसकी उजरत (मज़दूरी) दे।
🔹अल्लाह ज़मीन में किसी के लिए ग़ुरूर-व-तकब्बुर (घमंड) से चलना रवा (जाएज़) नहीं है ख़्वाह (चाहे) औरत हो या मर्द और औरत तो सिंफ़-ए-नाज़ुक है उसे मर्द के मुक़ाबला और भी तवाज़ो' ('इज़्ज़त) के साथ चलना चाहिए और अल्लाह को अकड़ू वाली अदा हरगिज़ पसंद नहीं है इसलिए इस ने अपने बंदों को ज़मीन में अकड़ कर चलने से मना फ़रमाया है और ब-तौर-ए-'इबरत बनी-इस्राईल का यह वाक़ि'आ भी मुलाहज़ा फ़रमाए अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से मर्वी (रिवायत) है उन्होंने बयान किया कि नबी ﷺ ने फ़रमाया:
(بيْنَما رَجُلٌ يَمْشِي في حُلَّةٍ، تُعْجِبُهُ نَفْسُهُ، مُرَجِّلٌ جُمَّتَهُ، إِذْ خَسَفَ اللَّهُ بِهِ، فَهو يَتَجَلْجَلُ إلى يَومِ القِيَامَةِ)
(صحيح البخاري:5789)
तर्जमा: (बनी-इस्राईल में) एक शख़्स एक जोड़ा पहन कर किब्र-ओ-ग़ुरूर (घमंड) में सर-मस्त (मदहोश) सर के बालों में कंघी किए हुए अकड़ कर इतराता जा रहा था कि अल्लाह-त'आला ने उसे ज़मीन में धँसा दिया अब वो क़ियामत तक इस में तड़पता रहेगा या धँसता रहेगा।
(सहीह बुख़ारी:5789)
🔹राह (रास्ते में) चलते हुए बहुत सारे लोगों के पास से औरत का गुज़र हो सकता है ऐसे में किसी अजनबी मर्द को सलाम करना या किसी मर्द का औसत को सलाम करना कैसा है ?
  सह्ल रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है:
(كُنَّا نَفْرَحُ يَومَ الجُمُعَةِ قُلتُ: ولِمَ؟ قالَ: كَانَتْ لَنَا عَجُوزٌ، تُرْسِلُ إلى بُضَاعَةَ - قالَ ابنُ مَسْلَمَةَ: نَخْلٍ بالمَدِينَةِ - فَتَأْخُذُ مِن أُصُولِ السِّلْقِ، فَتَطْرَحُهُ في قِدْرٍ، وتُكَرْكِرُ حَبَّاتٍ مِن شَعِيرٍ، فَإِذَا صَلَّيْنَا الجُمُعَةَ انْصَرَفْنَا، ونُسَلِّمُ عَلَيْهَا فَتُقَدِّمُهُ إلَيْنَا، فَنَفْرَحُ مِن أجْلِهِ، وما كُنَّا نَقِيلُ ولَا نَتَغَدَّى إلَّا بَعْدَ الجُمُعَةِ)
(صحيح البخاري:6248)
तर्जमा: हम जुम'आ के दिन ख़ुश हुआ करते थे मैंने 'अर्ज़ (गुज़ारिश) की किस लिए ? फ़रमाया कि हमारी एक बुढ़िया थी जो मक़ाम-ए-बूज़ाआ जाया करती थी इब्ने सलमा ने कहा कि बूज़ाआ मदीना-मुनव्वरा का खजूर का एक बाग़ था फिर वो वहां से चुक़ंदर (beet) लाया करती थी और उसे हाँडी में डालती थी और जौ के कुछ दाने पीस कर (उसमें मिलाती थी) जब हम जुम'आ की नमाज़ पढ़ कर वापस होते तो उन्हें सलाम करने आते और वो यह चुक़ंदर की जड़ में आटा मिली हुई दा'वत हमारे सामने रखती थी हम इस वजह (कारण) से जुम'आ के दिन ख़ुश हुआ करते थे और क़ैलूला या दोपहर का खाना हम जुम'आ के बाद करते थे।
(सहीह बुख़ारी:6248)
  इस हदीष से मा'लूम होता है कि मर्द हज़रात औरत को सलाम कर सकते है इसलिए इमाम बुख़ारी रहिमहुल्लाह ने बाब बाँधा है 
(بَابُ تَسْلِيمِ الرِّجَالِ عَلَى النِّسَاءِ، وَالنِّسَاءِ عَلَى الرِّجَالِ)
(बाब: मर्दों का औरतों को सलाम करना और औरतों का मर्दों को)
  नबी ﷺ भी औरतों को सलाम करते थे शहर बिन हौशब कहते हैं कि उन्हें असमा बिंत यज़ीद रज़ियल्लाहु अन्हा ने ख़बर दी है:
(مرَّ علينا النبيُّ صلَّى اللهُ عليهِ وسلَّمَ في نسوةٍ، فسلَّم علينا)
( صحيح أبي داود:5204)
तर्जमा: हम औरतों के पास से नबी-ए-करीम ﷺ गुज़रे तो आप ﷺ ने हमें सलाम किया।
(सहीह अबू दाऊद:5204)
  उम्मा हानी बिंत अबू-तालिब जो नबी ﷺ की चचा-ज़ाद बहन थी रिश्ते में आप उनके लिए ग़ैर-महरम हुए इस के बावुजूद उन्होंने (फ़त्ह मक्का के मौक़ा' से) आप ﷺ को सलाम किया।
(देखें: सहीह बुख़ारी:6158)
  इन तमाम बातों का ख़ुलासा (निचोड़) यह है कि औरत मर्द को और मर्द औरत को सलाम कर सकते है जब फ़ित्ना का ख़ौफ़ (डर) न हो मसलन (जैसे) 'उम्र-ए-दराज़ से या औरतों और मर्दों की जमा'अत में या महरम की मौजूदगी में (सामने) लेकिन फ़ित्ना का अंदेशा हो तो सलाम तर्क कर देना बेहतर है और यह हुक्म मा'लूम रहे कि सलाम करना वाजिब नहीं सुन्नत है।
  आख़िरी कलाम (बात)
अल्लाह ने औरत को मर्दों से बिल्कुल अलग साख़्त (बनावट) और ख़ुसूसिय्यात दे कर पैदा फ़रमाया है इसलिए औरत सरापा (संपूर्ण) पर्दा कही जाती है और उस की ज़िंदगी में हमेशा पर्दा नुमायाँ रहना चाहिए यह पर्दा लिबास-व-पोशाक के साथ, चाल-चलन, मु'आमलात और गुफ़्तुगू (बात-चीत) में भी झलकना चाहिए मुंदरिजा-ए-बाला (ऊपर लिखी हुई) सुतूर (लकीरें) में औरत के राह (रास्ते में) चलने से मुत'अल्लिक़ (बारे में) चंद अहम-उमूर (महत्वपूर्ण बातें) बयान कर दिए गए हैं इन के 'अलावा (सिवा) भी मज़ीद (और भी) मसाइल हो सकते हैं ताहम (फिर भी) बुनियादी चीज़ों का ज़िक्र हो चुका है इस के साथ सरसरी तौर पर यह बातें भी औरतों के 'इल्म में रहे कि वो फ़ैशन वाले लिबास, 'उर्यां लिबास (बे-पर्दा) शोहरत और फ़ुहश (बद-कार) औरतों के लिबास लगा कर बाहर न निकले इस से फ़ित्ना भी फैलेगा और औरत गुनाहगार भी होगी इसी तरह हील वाली सैंडल लगा कर बाहर न निकले, राह (रास्ते में) चलते हुए हँसी-मज़ाक़, बिला-ज़रूरत ज़ोर-ज़ोर से बातें करना, मोबाइल पर गुफ़्तुगू (बात-चीत) करते हुए चलना, लोगों की भीड़ में रुक कर बिला ज़रूरत सलाम-ओ-कलाम करना और मर्दों की तरफ़ बिला ज़रूरत नज़रें उठाना वग़ैरा औरतों के हक़ में मुनासिब (ठीक) नहीं है औरत मर्द की मुशाबहत इख़्तियार न करे यह ला'नत का सबब (कारण) है।
(عَنِ ابْنِ عَبَّاسٍ رَضِيَ اللَّهُ عَنْهُمَا، قَالَ:" لَعَنَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ الْمُتَشَبِّهِينَ مِنَ الرِّجَالِ بِالنِّسَاءِ، وَالْمُتَشَبِّهَاتِ مِنَ النِّسَاءِ بِالرِّجَالِ)
(صحيح البخاري:5885)
तर्जमा: इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा ने बयान किया कि रसूलुल्लाह ﷺ ने उन मर्दों पर ला'नत भेजी जो औरतों जैसा चाल-चलन इख़्तियार करे और उन औरतों पर ला'नत भेजी जो मर्दों जैसा चाल-चलन इख़्तियार करे।
(सहीह बुख़ारी:5885) 
  हत्ता कि मुसलमान औरत काफ़िरा और फ़ाहिशा औरत की कोई मज़्मूम (ख़राब) और फ़ुहश (अश्लील) चीज़ और बुरी सिफ़त (गुण) की नक़्क़ाली (अनुकरण) न करे और यह मा'लूम रहे कि औरत मा'मूली दूरी तक तो अकेले जा सकती है लेकिन कहीं दूसरी जगह का सफ़र करना हो तो बग़ैर महरम सफ़र करना जाएज़ नहीं है बल्कि ज़रूरत के वक़्त ग़ैर-मामून जगहों पर भी औरत अकेली न जाए ख़्वाह (चाहे) वो जगह नज़दीक ही क्यूं न हो आजकल (इस समय) मा'मूली दूरी भी लोग सवारी से तय करते हैं ऐसे में औरत को सवारी में मर्दों से हटकर बैठना चाहिए और बहुत अफ़सोस (दुःख) के साथ कहना पड़ता है कि बा'ज़ (कुछ) औरतें ग़ैर-महरम के साथ मोटर-साइकिल पर सट कर बैठती हैं यह 'अमल (काम) जाएज़ नहीं है।
अल्लाह-त'आला से दु'आ करता हूं कि मुस्लिम मां बहनों को दीन पर चलने की तौफ़ीक़ दे उन्हें शर'ई हिजाब अपनाने और शर'ई हुदूद में रहते हुए आमद-ओ-रफ़्त करने (आने-जाने) की तौफ़ीक़ दे।
आमीन
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