بدھ، 7 اگست، 2024

औरत और मर्द की नमाज़ मे कोई फ़र्क़ नही

 औरत और मर्द की नमाज़ मे कोई फ़र्क़ नही 
तहरीर: शैख़ मक़बूल अहमद सलफ़ी हाफ़िज़ाहुल्लाह 
हिंदी मुतर्जिम: हसन फ़ुज़ैल 

अवाम (आम जनता) में यह मशहूर हो गया है कि औरतों की नमाज़ मर्दों से अलग है जबकि हक़ीक़त यह है कि औरतों की नमाज़ हूबहू वैसी ही है जैसी मर्दों की है यानी औरतें भी उसी कैफ़ियत में नमाज़ अदा करें जिस कैफ़ियत में मर्द अदा करता है। इस बात को नुसूस की रोशनी में वाज़ेह करूँगा ताकि आपको यक़ीन हो सके कि वाक़ई औरतों को भी मर्दों की तरह ही नमाज़ अदा करना है। 
इस बारे में सबसे पहले तजुर्बा और मुशाहिदा पेश करके अक़्ली तौर पर दलाईल को समझने के लिए तैयार करना चाहता हूँ। वह यह है कि हमारे समाज में औरतों की अलग नमाज़ का तसव्वुर और रिवाज बाद की पैदा-वार है, जब से लोगों ने मुहम्मद ﷺ को छोड़कर दूसरों को अपना इमाम बनाना और उनकी तक़लीद करना शुरू किया तब से तक़लीदी फ़िरक़ों की औरतें मर्दों से मुख़्तलिफ़ नमाज़ अदा करती हैं क्योंकि मुक़ल्लिद उलमा ने औरतों के लिए सिमट कर नमाज़ पढ़ने का मुकम्मल मुख़्तस मस्नूई तरीक़ा ईजाद कर रखा है। औरतों का हाथ उठाना, हाथ बांधना, रुकू करना, सजदा करना, क़ा'दा करना सब कुछ मर्दों से अलग बनाया है जबकि हम में से अक्सर लोगों ने हरमैन शरीफ़ैन की ज़ियारत की है, वहाँ पर अरब ख़वातीन को मर्दों की तरह नमाज़ पढ़ते हुए देखा है। 
 
ये अरब ख़वातीन ने पैगंबर 'अहद रसूल और अहद सहाबा से ही मर्दों की तरह नमाज़ पढ़ते हुए आ रही हैं। यहीं इस्लाम पहले आया और यहीं से इस्लाम दुनिया में फैला है। इसलिए यहाँ का तरीक़ा-ए-नमाज़ हमें यह शु'ऊर देता है कि औरतों के नमाज़ पढ़ने का सही और असली तरीक़ा वही है जिस तरह अरब की ख़वातीन पढ़ रही हैं। ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ अरब की ख़वातीन ही मर्दों की तरह नमाज़ पढ़ रही हैं बल्कि दुनिया भर में जहाँ भी तक़लीद से हटकर क़ुरआन और हदीस पर अमल करने वाली बहनें रहती हैं, वो मर्दों की तरह नमाज़ अदा करती हैं क्योंकि शारे शरियत हज़रत मुहम्मद ﷺ ने नमाज़ का एक ही तरीक़ा बताया है। उन्होंने मर्दों के लिए अलग और औरतों के लिए अलग नमाज़ का तरीक़ा नहीं बताया है।
अब चलते हैं दलाइल की तरफ़, पहले क़ुरआन में ग़ौर करें कि अल्लाह तआला ने एक ही किताब क़ुरआन की शक्ल में नाज़िल फ़रमाई है। सारी आयात में मर्द और औरत दोनों शामिल हैं। ऐसा नहीं है कि औरतों का क़ुरआन अलग है और मर्दों का क़ुरआन अलग। अलबत्ता क़ुरआन की जो आयत औरत या मर्द के लिए ख़ास है, वह औरत या मर्द के साथ ख़ास मानी जाएगी। मगर जो आयात ख़ास नहीं हैं, उनमें मर्दों के साथ औरतें भी शामिल हैं। ठीक यही मामला हदीस का भी है। हदीस की छह मशहूर और मोअतबर किताबों (बुख़ारी, मुस्लिम, अबू दाऊद, नसाई, तिर्मिज़ी और इब्न माजा) में से हर एक किताब में किताब-उस-सलात का उनवान मौजूद है। इस किताब के तहत शुरू से लेकर आख़िर तक नमाज़ की मुकम्मल तफ़सीलात रकआत, कैफ़ियात और अज़कार व अद'इया से मुताल्लिक़ सारी हदीस मौजूद हैं। इन हदीस को जमा किया जाए तो सैकड़ों की तादाद में होंगी। मगर इन सैकड़ों हदीसों में एक भी हदीस ऐसी नहीं मिलती कि मर्द की नमाज़ अलग है और औरत की नमाज़ अलग है।
पाकिस्तान के मारूफ़ (मशहूर) हनफ़ी इदारे "अल-जामिया अल-बनूरिया अल-आलमिया" से एक ख़ातून ने सवाल किया कि मैं इस्लाम में औरत की नमाज़ के लिए हवाला जानना चाहती हूँ, जैसा कि मैं शुरू करने वाली हूँ। मैं हवाला सिर्फ़ सिहाह सित्ता (छह सहीह किताबें) से चाहती हूँ (सिर्फ़ सजदा और तशह्हुद के बारे में)। प्लीज़ सिर्फ़ इन्हीं किताबों से, दूसरी किताबों से नहीं। इस सवाल पर अहनाफ़ के आलमी इदारे ने जवाब दिया कि सिहाह सित्ता से हवाला तलब करना बड़ी जुर्रत है। आगे लिखते हैं कि साइला को चाहिए कि बहिश्ती ज़ेवर से नमाज़ का तरीक़ा पढ़कर उस तरीक़े से नमाज़ अदा करे। बाइख़्तिसार। आप यह फ़तवा इदारे की वेबसाइट (www.onlinefatawa.com) पर आईडी 32164 के तहत देख सकते हैं। इस फ़तवे से आप यह जान सकते हैं कि जो लोग औरतों का अलग तरीक़ा-ए-नमाज़ बताते हैं, उनके पास हदीस की उम्म्हात-उल-कुतुब से एक भी दलील नहीं मिलती। 
अब एक बुनियादी बात समझ लें कि औरतें भी शरई मसाइल में मर्दों की तरह ही हैं, यानी इस्लाम ने जिस चीज़ का भी हुक्म दिया है, उस हुक्म में औरतें भी शामिल हैं, सिवाय इस्तिस्नाई अहकाम के जो मर्द या औरत के साथ मुख़्तस हैं। नबी ﷺ का फ़रमान है: 
إنما النساء شقائق الرجال(السلسلة الصحيحة:2863) 
तर्जमा: औरते (शर'ई अहकाम मे) मर्दो की मानिन्द हैं। 
नबी ﷺ के इस फ़रमान को ज़हन मे रखते हुए औरत व मर्द की नमाज़ से मुताल्लिक़ आप ﷺ का अहम तरीन फ़रमान मुलाहिज़ा फ़रमाएँ अबू सुलैमान मालिक बिन अल-हुवैरिस ने ब्यान किया:
أَتَيْنَا النبيَّ صَلَّى اللهُ عليه وسلَّمَ، ونَحْنُ شَبَبَةٌ مُتَقَارِبُونَ، فأقَمْنَا عِنْدَهُ عِشْرِينَ لَيْلَةً، فَظَنَّ أنَّا اشْتَقْنَا أهْلَنَا، وسَأَلَنَا عَمَّنْ تَرَكْنَا في أهْلِنَا، فأخْبَرْنَاهُ، وكانَ رَفِيقًا رَحِيمًا، فَقَالَ: ارْجِعُوا إلى أهْلِيكُمْ، فَعَلِّمُوهُمْ ومُرُوهُمْ، وصَلُّوا كما رَأَيْتُمُونِي أُصَلِّي، وإذَا حَضَرَتِ الصَّلَاةُ، فَلْيُؤَذِّنْ لَكُمْ أحَدُكُمْ، ثُمَّ لِيَؤُمَّكُمْ أكْبَرُكُمْ(صحيح البخاري:6008، 7246، 631)
तर्जमा: हम नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ख़िदमत में मदीना हाज़िर हुए और हम सब नौजवान और हम उम्र थे। हम नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के साथ बीस दिनों तक रहे। फिर नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को ख़्याल हुआ कि हमें अपने घर के लोग याद आ रहे होंगे और नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हमसे उनके मुताल्लिक़ पूछा जिन्हें हम अपने घरों पर छोड़कर आए थे। हमने नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को सारा हाल सुना दिया। आप बड़े ही नरम-खू और बड़े रहम करने वाले थे। आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि तुम अपने घरों को वापस जाओ और अपने मुल्क वालों को दीन सिखाओ और बताओ और तुम इस तरह नमाज़ पढ़ो जिस तरह तुमने मुझे नमाज़ पढ़ते देखा है। और जब नमाज़ का वक्त आ जाए तो तुम में से एक शख़्स तुम्हारे लिए अज़ान दे फिर जो तुम में बड़ा हो वह इमामत कराए।
इस पूरी हदीस पर गहराई से नज़र डालिए तो पता चलता है कि कुछ सहाबा-ए-किराम नबी ﷺ से दीन और नमाज़ का तरीक़ा सीखकर घर लौटे। आपने ﷺ उन्हें हुक्म दिया कि तुम जाओ, ये बातें अपने घरवालों को भी सिखाओ और नमाज़ उसी तरह पढ़ना जैसा तुमने मुझे बीस दिन तक नमाज़ पढ़ते हुए देखा है। घरवालों में बीवी भी शामिल है। अगर औरतों की नमाज़ का तरीक़ा अलग होता तो आपने ﷺ उन्हें वाज़ेह रूप से बता दिया होता कि तुम मर्द मेरी तरह नमाज़ पढ़ना और अपने घर की औरतों को मर्दों से अलग नमाज़ की तालीम देना। आपने ऐसा नहीं फ़रमाया, जैसे कि औरत की नमाज़ का तरीक़ा वही है जो मर्दों का है। इस बारे में यह हदीस "तुम उसी तरह नमाज़ पढ़ो जैसा तुमने मुझे पढ़ते हुए देखा है" फ़ैसला कुन (निर्णायक) है। 
नीज़, यह हदीस आम है, आम हदीस के तहत औरतें भी शामिल होंगी क्योंकि औरतें शरई अहकाम में मर्दों की तरह हैं। इस बारे में आपने ऊपर दलील भी जान ली है। 
मज़कूरा बाला हदीस "वसल्लू कमा राय्तुमूनी उसल्ली" सही बुख़ारी में तीन जगहों पर वारिद है। अब सहीह मुस्लिम से एक सरीह हदीस जो बयान करती है कि औरत और मर्द की नमाज़ बिल्कुल एक जैसी है। चुनांचे सय्यदना सहल बिन साद रज़ियल्लाहु अन्हु बयान करते हैं:
ولقَدْ رَأَيْتُ رَسولَ اللهِ صَلَّى اللَّهُ عليه وسلَّمَ قَامَ عليه فَكَبَّرَ وكَبَّرَ النَّاسُ ورَاءَهُ، وهو علَى المِنْبَرِ، ثُمَّ رَفَعَ فَنَزَلَ القَهْقَرَى حتَّى سَجَدَ في أصْلِ المِنْبَرِ، ثُمَّ عَادَ، حتَّى فَرَغَ مِن آخِرِ صَلَاتِهِ، ثُمَّ أقْبَلَ علَى النَّاسِ فَقالَ: يا أيُّها النَّاسُ إنِّي صَنَعْتُ هذا لِتَأْتَمُّوا بي، ولِتَعَلَّمُوا صَلَاتِي(صحيح مسلم:1216)
तर्जमा: मैं ने रसूलुल्लाह ﷺ को देखा, आप  उस पर खड़े हुए और तकबीर कही, लोगों ने भी आप के पीछे तकबीर कही जबकि आप मेम्बर ही पर थे, फिर आप (ने रुकूअ से सिर उठाया) उठे और उलटे पाँव नीचे उतरे और मेम्बर की जड़  में (जहाँ वो रखा हुआ था) सजदा  किया, फिर  दोबारा वही  किया (मेम्बर पर खड़े हो गए) यहाँ तक कि नमाज़ पूरी कर के फ़ारिग़ हुए, फिर लोगों की तरफ़ मुतवज्जेह हुए और फ़रमाया : लोगो! मैंने ये काम इसलिये  किया है। ताकि आप (मुझे देखते हुए) मेरी पैरवी करो और मेरी नमाज़ सीख लो।
इस हदीस से पता चलता है कि नबी ﷺ ने सहाबा को नमाज़ की तालीम देने के लिए मिम्बर पर चढ़कर नमाज़ पढ़ाई ताकि वाज़ेह रूप से नमाज़ की कैफ़ियत और अदायगी देखी जा सके। हमें यह भी पता है कि मस्जिदे नबवी में आपके पीछे मुक्तदी में औरते भी नमाज़ पढ़ती थीं। जब आपने ﷺ मिम्बर पर नमाज़ अदा कर ली तो आपने सहाबा को मुख़ातिब होकर फ़रमाया: "ऐ लोगों! मैंने यह इसलिए किया ताकि तुम मेरी पैरवी करो और मेरी तरह नमाज़ पढ़ना सीखो।" आपका यह स्पष्ट फ़रमान औरतों के लिए नहीं था? और आपने जिस तरह नमाज़ पढ़ी वह औरतों के लिए नहीं थी? बिल्कुल थी। आपके मिम्बर पर अदा किया गया तरीक़ा-ए-नमाज़ और आपका स्पष्ट फ़रमान कि मुझसे नमाज़ का तरीक़ा सीखो, साफ़-साफ़ बताता है कि औरत और मर्द की नमाज़ का तरीक़ा बिल्कुल एक जैसा है। अगर औरतों के तरीक़े-ए-नमाज़ में फ़र्क़ होता तो जब आपने मस्जिदे नबवी में मिम्बर पर चढ़कर मर्दों को नमाज़ की तालीम दी, उसी वक्त औरतों को भी अलग से तालीम देते। मगर आपने ऐसा नहीं किया, जो इस बात की ठोस दलील है कि औरत भी मर्दों की तरह नमाज़ पढ़ेगी।
नमाज़ एक इबादती मामला है, जिब्रील अलैहिस्सलाम आसमान से नाज़िल होकर नबी ﷺ को नमाज़ पढ़ाते हैं और नमाज़ों के वक़्त से आगाह करते हैं। सही बुख़ारी में अबू मुसअद रज़ियल्लाहु अन्हु ने बयान किया कि मैंने रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से सुना, आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फ़रमा रहे थे:
سَمِعْتُ رَسولَ اللَّهِ صَلَّى اللهُ عليه وسلَّمَ يقولُ: نَزَلَ جِبْرِيلُ فأمَّنِي، فَصَلَّيْتُ معهُ، ثُمَّ صَلَّيْتُ معهُ، ثُمَّ صَلَّيْتُ معهُ، ثُمَّ صَلَّيْتُ معهُ، ثُمَّ صَلَّيْتُ معهُ يَحْسُبُ بأَصَابِعِهِ خَمْسَ صَلَوَاتٍ(صحيح البخاري:3221)
तर्जमा: जिब्राईल अलैहिस्सलाम नाज़िल हुए और उन्होंने मुझे नमाज़ पढ़ाई। मैंने उनके साथ नमाज़ पढ़ी  फिर (दूसरे वक़्त की) उन के साथ मैंने नमाज़ पढ़ी  फिर उन के साथ मैंने नमाज़ पढ़ी  फिर मैंने उन के साथ नमाज़ पढ़ी  फिर मैंने उन के साथ नमाज़ पढ़ी  अपनी उँगलियों पर आप ने पाँचों नमाज़ों को गिनकर बताया।
नमाज़ एक ऐसी इबादत है जिसमें अपनी मर्ज़ी से बाल बराबर भी कोई अमल अंजाम नहीं दिया जाएगा, यह अल्लाह की तरफ़ से नाज़िल की गई है। रसूलुल्लाह ﷺ की वफ़ात के सौ साल, दो सौ साल बाद किसी इमाम या आलिम को कैसे इख़्तियार मिलेगा कि वह औरतों की नमाज़ का अलग तरीक़ा बयान करे या किसी उम्मती को कैसे इजाज़त है कि वह हदीस रसूल को छोड़कर उलमा के अक़वाल के मुताबिक़ अल्लाह की इबादत करे? हम देखते हैं कि अहनाफ़ के यहाँ औरतों की नमाज़ मर्दों से बिल्कुल अलग बयान की जाती है। यह इबादत में मनमानी और अल्लाह के दीन को बदल देना है। अल-हिफ़्ज़ व अल-अमां।
मज़कूरा बाला सारी दलीलों से वाज़ेह है कि औरतों की नमाज़ मर्दों जैसी है, फिर भी एक ख़ास दलील जो औरतों से ही मुताल्लिक़ है, उसे भी ज़िक्र करना मुनासिब समझता हूँ। 
जलील अल-क़दर सहाबी अबू दर्दा अंसारी रज़ियल्लाहु अन्हु की बीवी उम्म-ए-दर्दा रज़ियल्लाहु अन्हा के बारे में फ़क़ीह उम्मत, अमीरुल मोमिनीन फ़ी हदीस इमाम बुख़ारी रहमतुल्लाह अलैह ने अपनी तीन किताबों में ज़िक्र किया है कि उम्म-ए-दर्दा मर्दों की तरह नमाज़ अदा करती थीं। तीनों किताबों की इबारत के साथ इस दलील का इल्म हासिल करते हैं।
पहली किताब: क़ुरआन के बाद धरती की सबसे मोतबर किताब सही बुख़ारी में "بابُ سُنَّةِ الْجُلُوسِ فِي التَّشَهُّدِ" (बाब: तशह्हुद में बैठने का मस्नून तरीक़ा) के तहत इमाम बुख़ारी ने मुअल्लक़ा ज़िक्र किया है।
"وكانت ام الدرداء تجلس في صلاتها جلسة الرجل وكانت فقيهة".
तर्जमा: उम्म-ए-दर्दा रज़ियल्लाहु ताआला अन्हा फ़क़ीह थीं और वह नमाज़ में (तकबीर के दौरान) मर्दों की तरह बैठती थीं, यानी उम्म-ए-दर्दा एक आलिमा और फ़क़ीह थीं और वे नमाज में मर्दों की तरह तशह्हुद करती थीं।
दूसरी किताब: अब्द रबा बिन सुलैमान बिन उमैर शामी रहिमहुल्लाह कहते हैं:
رَأَيْتُ أُمَّ الدَّرْدَاءِ "تَرْفَعُ يَدَيْهَا فِي الصَّلَاةِ حَذْوَ مَنْكِبَيْهَا حِينَ تَفْتَتِحُ الصَّلَاةَ , وَحِينَ تَرْكَعُ وَإِذَا قَالَ: «سَمِعَ اللَّهُ لِمَنْ حَمِدَهُ» رَفَعَتْ يَدَيْهَا , وَقَالَتْ:«رَبَّنَا وَلَكَ الْحَمْدُ»(جزء رفع الیدین للبخاري : 24)
तर्जमा: मैंने उम्म-ए-दर्दा रज़ियल्लाहु ताआला अन्हा को देखा, वह नमाज़ में कंधों तक रफ़-उल-यदैन करती थीं। जब नमाज़ शुरू करतीं और जब रुकू करतीं। और जब (इमाम) سمع اللَّهُ لِمَنْ حَمِدَهُ कहते तो रफ़'-उल-यदैन करतीं और फ़रमाती थीं "रब्बना वलाकल हम्द"।
तीसरी किताब: सही बुख़ारी की मुअल्लक़ हदीस को इमाम बुख़ारी ने इन्हीं अल्फाज़ के साथ अपनी किताब अल-तारीख़ अल-सग़ीर (906) में मक़हूल के वसीला से ज़िक्र किया है और शैख़ अल्बानी रहमतुल्लाह अलैह ने इसकी सनद को सफ़त सलात अल-नबी के सफ़ा 189 पर सही क़रार दिया है।
यह ख़ास हदीस औरतों के बाब में इस बात की ख़ास दलील है कि औरतें भी मर्दों की ही तरह नमाज़ अदा करेंगी। अगर इस हदीस के बारे में कोई यह कहता है कि सिर्फ़ एक औरत मर्दों जैसी नमाज़ पढ़ती थी और बाक़ी औरतें मर्दों जैसी नमाज़ नहीं पढ़ती थीं, तो यह बड़ी जाहिलिय्यत और कोताह-फ़हमी है। इस हदीस में क़तअन नहीं ज़िक्र किया गया कि सिर्फ़ एक औरत मर्दों जैसी नमाज़ पढ़ती थी बल्कि रावी की नज़र जिस ख़ातून पर पड़ी, उन्होंने उस ख़ातून के बैठने की कैफ़ियत बयान की है। यहाँ एक बड़ा इल्मी नुक्ता यह भी समझ में आता है कि अगर इस सहाबी की नमाज़ सुन्नत के ख़िलाफ़ होती तो रावी ज़रूर टोके या यह ज़िक्र करते कि वह ख़ातून नमाज़ में सुन्नत की मुख़ालिफ़त कर रही थी। रावी का महज़ कैफ़ियत बताना इस बात की दलील है कि औरत की नमाज़ मर्दों की तरह है और इस दौर की आम औरतों ने भी मर्दों की तरह नमाज़ पढ़ी।
इस पस-मंज़र में सजदा से मुताल्लिक़ सहीहैन की एक हदीस पर भी ग़ौर करें, अनस बिन मालिक रज़ियल्लाहु अन्हु ने बयान किया कि नबी करीम ﷺ ने फरमाया:
اعْتَدِلُوا في السُّجُودِ، ولَا يَبْسُطْ أحَدُكُمْ ذِرَاعَيْهِ انْبِسَاطَ الكَلْبِ(صحيح البخاري:822) 
तर्जमा : सजदा मे एतिदाल को मलहूज़ रखो और तुम मे से कोई अपने बाज़ को कुत्ते की तरह न फैलाए। 
इस हदीस में नबी ﷺ ने हर किसी को मुख़ातिब करके फ़रमाया है कि तुम में से कोई भी सजदा करते वक्त कुत्ते की तरह बाज़ू न फैलाए। क्या इस हुक्म में औरत शामिल नहीं है? बिलकुल शामिल है। इस हदीस की बुनियाद पर औरतें भी उसी तरह सजदा करेंगी जैसे मर्द सजदा करते हैं और सजदा करते हुए कुत्तों की कैफ़ियत से बचेंगी।
ग़ौर से, पूरी बहस का ख़ुलासा यह हुआ कि एक औरत अपनी नमाज़ बिल्कुल वैसे ही पढ़े जैसे मर्द पढ़ते हैं और मर्दों में भी वह मर्द जो रसूलुल्लाह ﷺ की तरह नमाज़ अदा करता है। नियत, इक़ामत, तक़बीरा, रफ़-उल-यदैन, क़ियाम, रुकू, क़ौमा, सजदा, जल्सा, क़दा और सलाम सब कुछ हदीस की रौशनी में होना चाहिए और ये सारे अमल मर्दों और औरतों के लिए एक जैसे हैं, ठीक वैसे ही जैसे औरतें भी नमाज़ की रकअत उतनी ही अदा करेंगी जितनी रकअत मर्द अदा करते हैं और दौरान नमाज़ वही कलाम पढ़ेंगी जो मर्द पढ़ते हैं। यानी औरत और मर्द की नमाज़ में न रकअत में फ़र्क़ है, न अज़कार और दुआ में फ़र्क़ है, और न कैफ़ियत और औसाफ़ में फ़र्क़ है क्योंकि इनमें तफ़रीक़ की कोई सही दलील नहीं है।
आख़िर में मैं उन लोगों के गुमराहियों को भी दूर करना चाहता हूँ जो औरतों की इज़्ज़त और हया का नाम लेकर उनके लिए हया के आधार से नमाज़ का मसनूई तरीक़ा ईजाद करते हैं। मुक़ल्लिद लोग तो अपनी औरतों को मस्जिद में जाने से मना करते हैं, फिर भी नमाज़ का तरीक़ा औरतों के लिए अलग से तैयार करके बताते हैं जबकि नबी ﷺ के ज़माने में औरते मस्जिदे नबवी में हाज़िर होकर रसूल के पीछे नमाज़ अदा करती थीं। होना तो यह चाहिए था कि औरतों की हया के लिहाज़ से मस्जिद में हाज़िर होने वाली औरतों की नमाज़ अलग होती क्योंकि वे मर्दों के साथ एक ही मस्जिद में नमाज़ अदा करती थीं, जबकि रसूलुल्लाह ﷺ ने औरतों की अलग नमाज़ नहीं बताई।
बेशक, औरत औरत है, हया और पर्दे की चीज़ है, इसलिए नमाज़ के मुताल्लिक़ से औरतों के लिए जो मुनासिब अहकाम थे, वह रसूलुल्लाह ﷺ ने बयान कर दिए। इस बारे में कुछ हदीसें मुलाहिज़ा फ़रमाएँ:
(1) औरत (महिला) की नमाज़ मस्जिद के बजाय घर में बेहतर है। नबी ﷺ का फ़रमान है:
صلاةُ المرأةِ في بيتِها أفضلُ من صلاتِها في حجرتِها وصلاتُها في مَخدعِها أفضلُ من صلاتِها في بيتِها(صحيح أبي داود:570)
तर्जमा: औरतों की नमाज़ उसके अपने घर में आंगन के बजाय कमरे के अंदर ज़्यादा बेहतर है, बल्कि कमरे के बजाय (अंदरूनी) कोठरी में ज़्यादा बेहतर है।
(2) औरत मस्जिद में भी नमाज़ पढ़ सकती है लेकिन ख़ुशबू लगाकर न आएं। ज़ैनब सक़फ़ीया रज़ियल्लाहु तआला अन्हा बयान करती हैं कि नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया:
إذا خرجتْ إحْداكنَّ إلى المسجدِ فلا تقْرَبنَّ طِيبًا(صحيح الجامع:501)
तर्जमा: जब तुम में से कोई औरत मस्जिद की तरफ़ जाए तो वह ख़ुशबू के क़रीब भी न जाए।
(3) बालिग़ा औरत बिना दुपट्टे के नमाज़ न पढ़े, उम्मुल मोमिनीन आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा से रिवायत है कि नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया:
لا يقبلُ اللَّهُ صلاةَ حائضٍ إلَّا بخِمارٍ(صحيح أبي داود:641)
तर्जमा: बालिग़ा औरत की नमाज़ बिना ओढ़नी के अल्लाह तआला क़बूल (स्वीकार) नहीं करता।
(4) मस्जिद में औरत और मर्द एक साथ नमाज़ पढ़ने पर औरतों की सफ़ मर्दो से पीछे होगी। सय्यदना अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु का बयान है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया:
خَيْرُ صُفُوفِ الرِّجالِ أوَّلُها، وشَرُّها آخِرُها، وخَيْرُ صُفُوفِ النِّساءِ آخِرُها، وشَرُّها أوَّلُها( صحيح مسلم:440)
तर्जमा: मर्दो की सफ़ो में सबसे बेहतर पहली सफ़ है और सबसे बुरी आख़िरी सफ़ है। और औरतों के लिए सबसे बुरी पहली सफ़ है (जबकि मर्दो की सफ़े उनके क़रीब हों) और अच्छी सफ़ पिछली सफ़ है। (जो कि मर्दो से दूर हो)।
(5) औरत मर्दो की इमामत नहीं कर सकती है, न मर्दो के साथ नमाज़ पढ़ते वक्त (समय) आवाज़ निकाल सकती है, अगर मर्द इमाम से ग़लती हो जाए तो भी उसे ज़बान से आवाज़ नहीं निकालनी चाहिए बल्कि एक हाथ को दूसरे हाथ पर मारकर इमाम को गलती पर तवज्जो देनी चाहिए। सुहैल बिन साद रज़ियल्लाहु अन्हु से मरवी है कि नबी ﷺ ने फ़रमाया:
التسبيحُ للرجالِ، والتصفيحُ للنساءِ (صحيح البخاري:1204)
तर्जमा: तस्फ़ीक़ (ख़ास तरीक़े से एक हाथ को दूसरे हाथ पर मारना) औरतों के लिए है और तस्बीह (सुब्हानल्लाह कहना) मर्दो के लिए है। 
ये सारे अहकाम औरतों को फ़ितने से बचाने, उनकी इज़्ज़त और पाकीज़गी की हिफ़ाज़त करने और उनकी शर्म और हया का ख़्याल रखने से मुताल्लिक़ हैं। इन अहकाम का ये मतलब नहीं है कि औरतों की नमाज़ मर्दो से अलग है, बल्कि मतलब ये है कि औरतों की नमाज़ तो मर्दो की तरह ही है लेकिन उनकी इज़्ज़त का ध्यान रखते हुए उनके लिए कुछ ख़ास अहकाम भी बयान किए गए हैं। 
कुछ लोग उम्मत को इस तरह धोखा देते हैं कि हज भी नबी ﷺ के तरीक़े पर करना है, लेकिन तवाफ़ और सई में औरतों को रमल नहीं करना है बल्कि धीरे चलना है, और औरतों के धीरे चलने की कोई अलग से दलील नहीं है। उलमा औरतों की हया का ख़्याल रखते हुए धीरे चलने का हुक्म देते हैं, इसी तरह नमाज़ का मसला भी है। औरतों की हया के कारण उन्हें सिमटकर नमाज़ पढ़ने को कहा जाता है।
इस बात का जवाब यह है कि अव्वलन (पहला) : नमाज़ को हज के तवाफ़ और सई पर क़ियास करना ही ग़लत है। तवाफ़ और सई में आदमी बातें कर सकता है, खा पी सकता है, हंस सकता है, अगर थक जाए तो बैठ सकता है वग़ैरह, लेकिन ये बातें नमाज़ में मना हैं और इनसे नमाज़ बातिल होती है। सानियन (दूसरा) : नमाज़ पढ़ने का पूरा तरीका हमें रसूलुल्लाह ﷺ ने बता दिया है, जिसमें औरत और मर्द दोनों शामिल हैं, इसलिए किसी बाहरी से नमाज़ का तरीक़ा लेने की बिल्कुल ज़रूरत नहीं है। और मैंने पहले भी बताया है कि इबादत में एक बाल बराबर भी कोई अपनी इच्छा से अमल नहीं करेगा, जबकि मुक़ल्लिदो के यहाँ औरतों की पूरी नमाज़ बनावटी है, वह कैसे सही हो सकती है? सालिसन (तीसरा): औरतों के रमल के मुताल्लिक़ में मरफ़ू हदीस भले ही नहीं है, लेकिन कई आसार से साबित है। बैहक़ी ने आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा, मुसनद इब्न अबी शैबा में इब्न उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा से, इब्न अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा और हसन व अता से मरवी है। इब्न मुंज़िर ने इज्मा नक़ल किया है कि औरतों पर रमल नहीं है और दीन में इज्मा भी हुज्जत है, जबकि नमाज़ का मामला रमल से अलग है। यहाँ पर सब कुछ मरफ़ू हदीसों से, यानी मुकम्मल नमाज़ का तरीक़ा रसूलुल्लाह ﷺ से साबित है, और जहां मोहम्मद रसूलुल्लाह ﷺ का तरीक़ा मौजूद हो, वहां किसी और का तरीक़ा और क़ौल अपनाने की कोई गुंजाइश नहीं है। मतलब यह है कि जहां शरीयत चुप है, वहां उम्मत अगर किसी बात पर इज्मा कर ले तो यह दलील है, लेकिन जहां शरीयत मौजूद है, वहां किसी क़ौल और इज्मा की कोई ज़रूरत नहीं है।
कुछ लोग यह कहकर धोखा देते हैं कि औरतों को सिमट कर नमाज़ पढ़ने का तरीक़ा अस्लाफ़ से मनक़ूल है, बल्कि मरफ़ू हदीसें भी मिलती हैं। इसलिए इससे मुताल्लिक़ कुछ मारूफ़ रिवायतें और कुछ आसार पेश किए जाते हैं। इन सब का ज़िक्र (उल्लेख) करने और तज्ज़िया (विश्लेषण) करने का यह मक़ाम नहीं है। एक शेर से इस बात को समझने की कोशिश करें: (होते हुए मुस्तफ़ा (ﷺ) की गुफ़्तार - मत देख किसी का क़ौल-ओ-किरदार)
अल्लाह ने क़ुरआन में कई जगहों पर अपनी और उसके रसूल की इत्तिबा करने का हुक्म दिया है, यानी दीन सिर्फ़ अल्लाह और उसके रसूल से लिया जाएगा। दूसरी बात यह है कि औरत और मर्द की नमाज़ के तरीक़े में फ़र्क़ से मुताल्लिक़ जो भी दलील दी जाती है, चाहे वह क़ौल हो या हदीस, कोई भी साबित और सही नहीं है।
जब कोई चीज़ साबित ही न हो तो उससे दलील पकड़ना बेकार है। बल्कि ऊपर जामिया बनुरिया का फ़तवा देखा जा चुका है, उनके हिसाब से सही सित्ता यानी सबसे मो'तबरीन (विश्वसनीय) हदीस की छ: किताबों में औरत और मर्द की नमाज़ में फ़र्क़ की एक भी दलील मौजूद नहीं है, जबकि इन सभी छ: किताबों में "किताब अल-सलात" क़ाइम करके सभी मुहद्दिसीन ने नमाज़ की सभी मरफ़ू रिवायतें (रसूल अल्लाह का नमाज़ का तरीक़ा) ज़िक्र कर दिया है जिनमें नमाज़ की शुरुआत से लेकर अंत तक सारी कैफ़ियात मनक़ूल हैं, यहां तक कि नमाज़ का सबसे छोटा पहलू भी ज़िक्र से खाली नहीं है। बाक़ी जिन दलीलों से हनफ़ी इस्तिदलाल करके औरतों की नमाज़ अलग बताते हैं, वे सब नाक़ाबिल-ए-एतिबार हैं। उनकी हक़ीक़त जानने के लिए हाफ़िज़ सलाहुद्दीन यूसुफ़ रहिमहुल्लाह की मुख़्तसर किताब "क्या औरतों का तरीक़ा नमाज़ मर्दो से अलग है?" का मुताल'अ (अध्ययन) फ़ायदेमंद होगा। इस किताब को दारुस्सलाम ने शाए (प्रकाशित) किया है और किताब व-सेंट डॉट-कॉम पर दस्तियाब है।  
अल्लाह तआला से दुआ है कि लोगों को हक़ पर चलने और मुसलमानों में से औरत और मर्द को रसूल अल्लाह ﷺ के तरीक़े के मुताबिक़ इबादत करने की तौफ़ीक़ बख़्शे। आमीन।
~ Maqubool Ahmad Salafi

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